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History Of Defecting Leaders In Chhattisgarh: दल बदलने वाले नेताओं का हैरान करने वाला इतिहास, जानिए किसे मिली कामयाबी और कौन कौन हो गए गुम ?

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Aug 22, 2023, 6:36 PM IST

History Of Defecting Leaders In Chhattisgarh
दल बदलने वाले नेताओं का हैरान करने वाला इतिहास

History Of Defecting Leaders In Chhattisgarh विधानसभा चुनाव 2023 नजदीक देख छत्तीसगढ़ में दल बदलने का सिलसिला भी तेज हो गया है. चुनावी गुणा गणित के हिसाब से दरकिनार किए गए नेता अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे हैं. सटीक कैलकुलेशन से पद, प्रतिष्ठा और टिकट तीनों हासिल हो रहे हैं, वहीं इसमें जरा सी चूक पाॅलिटिकल कॅरियर ही खत्म कर सकती है. छत्तसीगढ़ में दल बदलने वाले नेताओं का लंबा इतिहास है. आईये जानते हैं किसके हिस्से आई कामयाबी और कौन नाकामी के साथ हुआ गुम.Chhattisgarh Assembly Elections 2023

दल बदलने वाले नेताओं का हैरान करने वाला इतिहास

रायपुर: चुनावी साल में प्रमुख पार्टियों के बीच जुबानी जंग तेज हो गई है. भाई भतीजावाद के आरोपों के बीच पार्टी में अनदेखी और भविष्य सुरक्षित करने के लिहाज से दल बदलने का दौर भी शुरू है. ठीक चुनाव से पहले दल बदलने की यह परंपरा कोई नई नहीं है. छत्तीसगढ़ बनने के बाद और उससे पहले भी नेताओं का दूसरी पार्टियों में जाना लगा रहा. कोई भाजपा से कांग्रेस में, तो कोई कांग्रेस से भाजपा में गया. कुछ ने दूसरे दलों का भी रुख किया. ऐसे में छत्तीसगढ़ की राजनीति में कौन-कौन से बड़े नेता रहे जिन्होंने दल बदला, उनका छत्तीसगढ़ चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ा, इसे समझने की कोशिश करते हैं.

हाल ही में इन बड़े नेताओं ने बदली पार्टी: छत्तीसगढ़ में एक के बाद एक बड़े नेता दल बदल रहे हैं. हाल ही में कुछ बड़े नेताओं ने पार्टी बदली है. नंद कुमार साय छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक बड़े नाम हैं, उन्होंने लंबे समय तक भाजपा का साथ दिया. अब भाजपा को छोड़ कांग्रेस का दामन थाम लिया है. वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम कांग्रेस का दामन छोड़ चुके हैं और अब एक नई पार्टी बनाने की तैयारी में है. जेसीसीजे के वरिष्ठ नेता और विधायक धर्मजीत सिंह ने भाजपा प्रवेश किया है. धर्मजीत सिंह का कद काफी बड़ा है. इसके पहले की बात की जाए तो विद्याचरण शुक्ल, करुणा शुक्ला, पवन दीवान, महेंद्र कर्मा, मदन डहरिया आदि ने भी चुनावी समर में पार्टी बदली थी.

History Of Defecting Leaders In Chhattisgarh
हाल में इन पार्टियों के बड़े नेताओं ने बदला दल

राज्य बनने के पहले और राज्य बनने के बाद कई नेताओं ने दल बदले. इसका कई को लाभ मिला तो कुछ को नुकसान भी झेलना पड़ा. फिर चाहे विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, अरविंद नेताम, अजीत जोगी, नंद कुमार साय हों या वर्तमान में भाजपा में शामिल होने वाले धर्मजीत सिंह. - अनिरुद्ध दुबे, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीति के जानकार

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सबसे ज्यादा दल बदलने वाले नेता थे विद्याचरण शुक्ल: छत्तीसगढ़ की राजनीति में जबरदस्त पकड़ रखने वाले विद्याचरण शुक्ल की शुरुआत कांग्रेस से रही. फिर परिस्थिति ऐसी बनी कि वे दल बदलते गए और उनका वर्चस्व कम होता गया. विद्या चरण शुक्ला को इंदिरा गांधी के शासन काल में नंबर-2 माना जाता था. विद्या चरण शुक्ला सबसे पहले कांग्रेस छोड़कर जन मोर्चा में गए. जनमोर्चा से जनता दल, फिर कांग्रेस में वापसी की. इसके बाद जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब सीएम नहीं बनाए जाने से दुखी होकर एनसीपी का गठन किया. इसके बाद भाजपा में गए और अंत में कांग्रेस लौट आए. 2 अगस्त 1929 को उनका जन्म हुआ था और 11 जून 2013 को उनका निधन हुआ. झीरम घाटी कांड में उन्हें गोली लगी थी.

अरविंद नेताम को पार्टी ने ही दिखाया बाहर का रास्ता: इंदिरा गांधी के दौर में मंत्री रहे छत्तीसगढ़ के कद्दावर आदिवासी नेता अरविंद नेताम का भी दल बदलने का अपना इतिहास रहा है. अरविंद नेताम ने 1998 में कांग्रेस छोड़कर बसपा प्रवेश किया. फिर 2002 में एनसीपी में चले गए. इसके बाद 2007 में वापस कांग्रेस में लौटे, लेकिन इस बार नेताम का पहले जैसा मान सम्मान नहीं रहा. इसके बाद नेताम ने राष्ट्रपति चुनाव में पीए संगमा का समर्थन किया, जिसके कारण कांग्रेस ने नेताम को पार्टी से निकाल दिया. फिर वे 2012 में संगमा की पार्टी एनपीपी में गए. इसके बाद कांग्रेस में वापसी की. इस बीच में कुछ दिन भाजपा में भी रहे. हालांकि उनकी राजनीति हाशिये पर ही रही, जबकि सामाजिक स्तर पर उनका प्रभाव है.

दल बदल से बिगड़ी संत और कवि पवन दीवान की छवि: छत्तीसगढ़ की राजनीति में संत और कवि पवन दीवान का नाम भी चर्चा में रहा. वह अपने ज्ञान के साथ-साथ दल बदल के लिए भी छत्तीसगढ़ की राजनीति में जाने जाते हैं. दीवान 1977 में जनता पार्टी से विधायक बने और मंत्री भी बनाए गए. 1980 में दीवान जनता पार्टी से अलग हो गए. इसके बाद दीवान ने खुद की छत्तीसगढ़ पार्टी का गठन किया. मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार थी, तब दीवान कांग्रेस में चले गए थे. बाद में दीवान सांसद भी बने. इस बीच 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले दीवान भाजपा में चले गए. लेकिन 2012 में दीवान वापस कांग्रेस में लौटे और बाद में वे दोबारा भाजपा में चले गए.

अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी ने भी बदली पार्टी: भारत रत्न अटलबिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला बीजेपी से दो बार विधायक और एक बार सांसद रहीं. इस बीच वे बीजेपी महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष और भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनीं. लेकिन उन्होंने 2013 में कांग्रेस प्रवेश कर लिया. इसके बाद 2014 में कांग्रेस ने उन्हें बिलासपुर से लोकसभा की टिकट दी. करुणा वहां चुनाव हार गईं. इसके बाद 2018 में राजनांदगांव से डॉ. रमन सिंह के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ीं. इस बार भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

सीपीआई के महेंद्र कर्मा कांग्रेस में आकर बने मंत्री: दल बदलने के बाद सफल नेताओं की बात की जाए तो उसमें महेंद्र शर्मा का नाम भी शामिल है, जो बस्तर टाइगर के नाम से जाने जाते थे. महेंद्र कर्मा शुरुआत में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) में रहे और विधायक बने. कर्मा बाद में कांग्रेस में आ गए. यहां वे मंत्री भी बनाए गए. छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद मुख्यमंत्री को लेकर उनका नाम भी चर्चा में रहा, लेकिन सीपीआई से लौटने के कारण कर्मा इस दौड़ से बाहर हो गए. हालांकि 2003 में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी, तब वे नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. 2013 में झीरम घाटी कांड में वे शहीद हो गए. इसके बाद उनकी पत्नी देवती कर्मा दो बार विधायक चुनी गईं.



जोगी शासन काल में दल बदलने वाले 12 विधायक:

  1. तरुण चटर्जी: कांग्रेस के टिकट पर तरुण चटर्जी ने 1980 में पहली बार रायपुर ग्रामीण से जीत दर्ज की. 1999 तक चटर्जी इस सीट से लगातार विधायक रहे. चटर्जी 90 के दशक के सबसे मजबूत नेता माने जाते थे. कांग्रेस छोड़कर वे जनता दल और फिर भाजपा में शामिल हुए. इसके बाद जोगी शासन में दलबदल किया और मंत्री बनाए गए. लेकिन 2003 में चटर्जी हार गए. उसके बाद से ही चटर्जी राजनीति से किनारे हो गए.
  2. श्यामा ध्रुव: भाजपा के टिकट पर श्याम ध्रुव कांकेर से 1998 में चुनाव जीतीं. लेकिन बाद में श्याम ध्रुव कांग्रेस में शामिल हो गईं और 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा. लेकिन इस बार का चुनाव वे हार गईं.
  3. मदन डहरिया: मस्तूरी से मदन डहरिया 1998 में भाजपा विधायक चुने गए. बाद में उन्होंने कांग्रेस में प्रवेश किया और दल बदलने के बाद वे 2003 और 2008 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन दोनों ही चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
  4. गंगूराम बघेल: भाजपा के टिकट से गंगूराम बघेल ने आरंग से 1993 और 1998 में चुनाव लड़ा. दोनों में जीत हासिल की. बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया. इसके बाद जोगी सरकार में गंगूराम मंत्री बने. लेकिन 2003 में वे कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और चुनाव हार गए.
  5. प्रेम सिंह सिदार: भाजपा के टिकट से प्रेम सिंह सिदार लैलूंगा से 1993 और 1998 में जीते. दलबदल करने के बाद 2003 में कांग्रेस से लड़े और हार गए.
  6. लोकेन्द्र यादव: भाजपा से लोकेंद्र यादव बालोद में 1998 में चुनाव जीते. लेकिन कांग्रेस में आने के बाद 2003 में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2008 में फिर दल बदला और सपा के टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन यहां से भी उन्हें हार मिली.
  7. विक्रम भगत: भाजपा के टिकट से 1984 में जशपुर के विधायक बने. वे यहां के लगातार चार बार विधायक रहे. जोगी शासनकाल में कांग्रेस में शामिल हुए. इसके बाद 2003 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और हार गए.
  8. डॉ. शक्राजीत नायक: भाजपा के टिकट से 1998 में सरिया सीट से जीते. जोगी शासनकाल में सिंचाई मंत्री बने. 2003 और 2008 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीते. 2013 में हार गए. 2018 में उनके बेटे प्रकाश नायक विधायक बने.
  9. डाॅ. हरिदास भारद्वाज: भाजपा के टिकट से 1998 से भटगांव से जीते. 2008 में कांग्रेस से सरायपाली से जीते. लेकिन 2013 में कांग्रेस के टिकट से लड़े और हार गए.
  10. रानी रत्नमाला: भाजपा से चंद्रपुर से 1998 में जीतीं. कांग्रेस में चली गईं, फिर चुनाव ही नहीं लड़ा.
  11. डाॅ. सोहनलाल: भाजपा के टिकट से सामरी सीट से 1998 में चुनाव जीते. इसके बाद इन्हें टिकट ही नहीं मिला.
  12. परेश बागबाहरा: भाजपा के टिकट से 1999 उपचुनाव में विधायक चुने गए थे. दलबदल के आठ साल बाद यानी 2008 में कांग्रेस ने इन्हें खल्लारी से चुनाव लड़ाया और इन्होंने पार्टी को जीत दिलाई. हालांकि अगला चुनाव नहीं जीत पाए. इसके बाद बागबाहरा जनता कांग्रेस से जुड़े और वहां से भाजपा में शामिल हो गए.
History Of Defecting Leaders In Chhattisgarh
जोगी कांग्रेस शासनकाल में इन विधायकों ने बदली पार्टी


छत्तीसगढ़ बनने के बाद सबसे पहले विधायक रामदयाल ने बदला दल : छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद दल बदलने वाले पहले विधायक रामदयाल उइके थे. उइके 1998 में मरवाही से भाजपा के विधायक थे. अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री चुने गए, तब उइके विधायक नहीं थे. उइके ने जोगी के लिए अपनी सीट छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गए. इसके बाद 2003, 2008 और 2013 में पाली तानाखार सीट से कांग्रेस के विधायक रहे. लेकिन 2018 में विधानसभा चुनाव से पहले उइके भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा.

हाल ही में इन विधायकों ने बदली पार्टी: दल बदलने वालों में वर्तमान में भाजपा के विधायक सौरभ सिंह भी हैं. उनका परिवार कांग्रेस से जुड़ा था. वे कांग्रेस से बसपा में गए और विधायक बने. इसके बाद भाजपा में आ गए. बसपा के विधायक रहे, अब वे भाजपा में हैं. धर्मजीत सिंह कांग्रेस से जोगी कांग्रेस में गए और अब उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया है. इसी तरह बलौदाबाजार विधायक प्रमोद शर्मा को लेकर भी जल्द दूसरे दल में शामिल होने की चर्चा है.

पार्टी छोड़ने के बाद कुछ नेताओं ने बनाया खुद का दल: ताराचंद साहू भाजपा नेता थे और वे भाजपा से सांसद भी रहे. बाद में उन्होंने भाजपा छोड़ अपनी खुद की पार्टी बनाई. साहू ने छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच का गठन किया. हालांकि वे सफल नहीं हुए. वहीं छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने भी अपनी पार्टी बनाई और साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के पांच विधायकों ने जीत भी हासिल की. हालांकि 2023 का चुनाव आते-आते अब पांच में दो ही विधायक बचे हैं. मरवाही में खुद जोगी की सीट हाथ से निकल गई. इसके बाद खैरागढ़ में देवव्रत सिंह के निधन के बाद उपचुनाव में यह सीट भी चली गई. लोरमी के विधायक धर्मजीत सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया, जो वर्तमान में भाजपा में चले गए. अब डॉ. रेणु जोगी और प्रमोद शर्मा ही पार्टी में विधायक हैं. जोगी के निधन के बाद पार्टी की स्थिति भी पहले से कमजोर हो चुकी है.

दल बदलने को लेकर निश्चित नहीं है थ्येरी: दल बदलने के बाद कामयाब मिल ही जाएगी, ऐसी गारंटी नहीं. नाकामियों का भी आंकड़ा ऐसा नहीं है कि दल बदलने से नेता हिचकें. ऐसे में कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में दल बदल के मिश्रित प्रभाव देखने को मिले हैं. विद्याचरण शुक्ल या अरविंद नेताम दल बदल के बाद बड़े कैनवास पर नहीं उभर पाए. जबकि महेंद्र कर्मा ऐसे नेता थे, जो नेता प्रतिपक्ष बने. कांग्रेस में उन्होंने अपनी जगह बनाई. तरुण चटर्जी जैसे नेताओं का प्रभाव घट गया. हालांकि डॉ. शक्राजीत नायक अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे. जहां तक नंदकुमार साय की बात है तो उनकी छवि बड़ी है. पार्टी में उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा था, इसलिए वे कांग्रेस में आए. भाजपा के लिए यह बड़ा नुकसान साबित हो सकता है.

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