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किशोरों को वयस्क जेलों में रखना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना है: सुप्रीम कोर्ट

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Published : Sep 13, 2022, 4:05 PM IST

Updated : Sep 13, 2022, 4:59 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किशोरों को वयस्क जेलों में बंद करना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना है. शीर्ष अदालत ने एक हत्या के दोषी की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसने उम्रकैद की सजा काट रहे अपराध के समय नाबालिग होने का दावा किया था. याचिकाकर्ता, जिसकी सजा को 2016 में शीर्ष अदालत ने बरकरार रखा, उसने कोर्ट से उत्तर प्रदेश सरकार को उसकी सही उम्र के सत्यापन के लिए निर्देश देने की मांग की.

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सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता राष्ट्रीय अदालतों द्वारा बताई जाने वाली सबसे पुरानी अवधारणाओं में से एक है, और किशोरों को वयस्क जेलों में बंद करना कई पहलुओं पर उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना है. न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा को कहीं अधिक व्यापक व्याख्या मिली है और आज स्वीकार की गई धारणा यह है कि स्वतंत्रता में वे अधिकार और विशेषाधिकार शामिल हैं, जिन्हें लंबे समय से एक स्वतंत्र व्यक्ति द्वारा खुशी की व्यवस्थित खोज के लिए आवश्यक माना जाता है.

पीठ ने सोमवार को दिए एक फैसले में कहा, यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि किशोरों को वयस्क जेलों में बंद करना कई पहलुओं पर उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करना है. पीठ ने कहा कि किशोर न्याय प्रणाली के पदाधिकारियों में बच्चे के अधिकारों और संबंधित कर्तव्यों के बारे में जागरूकता कम है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि एक बार बच्चा वयस्क आपराधिक न्याय प्रणाली के जाल में फंस जाता है, तो बच्चे के लिए इससे बाहर निकलना मुश्किल होता है.

शीर्ष अदालत ने एक हत्या के दोषी की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसने उम्रकैद की सजा काट रहे अपराध के समय नाबालिग होने का दावा किया था. याचिकाकर्ता, जिसकी सजा को 2016 में शीर्ष अदालत ने बरकरार रखा, उसने कोर्ट से उत्तर प्रदेश सरकार को उसकी सही उम्र के सत्यापन के लिए निर्देश देने की मांग की.

याचिकाकर्ता विनोद कटारा की ओर से पेश अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने कहा कि उनके मुवक्किल ने किशोर होने की दलील नहीं दी थी, फिर भी कानून उन्हें किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2011 के प्रावधानों के संबंध में इस समय भी इस तरह की याचिका दायर करने की अनुमति दे रहा है.

याचिकाकर्ता को परिवार रजिस्टर प्रमाण पत्र भी प्राप्त हुआ, जहां उसका जन्म वर्ष 1968 दिखाया गया था, और दावा किया कि अपराध के समय वह 14 वर्ष का था. पीठ ने कहा, ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय बाद, रिट आवेदक यूपी पंचायत राज (परिवार रजिस्टरों का रखरखाव) नियम, 1970 के तहत जारी परिवार रजिस्टर दिनांक 02.03.2021 के रूप में एक दस्तावेज प्राप्त करने की स्थिति में था. फैमिली रजिस्टर सर्टिफिकेट, रिट आवेदक का जन्म वर्ष 1968 के रूप में दिखाया गया है.

कोर्ट ने कहा कि यह रिकॉर्ड पर रखे गए दस्तावेजी सबूत हैं जो कानून के संघर्ष में एक किशोर की उम्र निर्धारित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं. शीर्ष अदालत ने चिकित्सा आयु निर्धारण परीक्षण का निर्देश दिया है. कोर्ट ने कहा कि इस तरह का परीक्षण तीन डॉक्टरों की एक टीम द्वारा किया जाएगा, जिनमें से एक डॉक्टर को रेडियोलॉजी विभाग का प्रमुख होना जरुरी है. आगे कहा गया, हम आगरा के सत्र न्यायालय को इस आदेश के संचार की तारीख से एक महीने के भीतर कानून के संबंध में रिट आवेदक के किशोर होने के दावे की जांच करने का निर्देश देते हैं. शीर्ष अदालत ने सत्र अदालत को याचिकाकर्ता द्वारा उद्धृत परिवार रजिस्टर को सत्यापित करने का निर्देश दिया.

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Last Updated :Sep 13, 2022, 4:59 PM IST
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