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JK killings : कहां हैं FIR, 30 सालों तक पुलिस ने क्यों नहीं की जांच ?

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Published : Mar 20, 2022, 4:20 PM IST

द कश्मीर फाइल्स फिल्म (The Kashmir Files) के रिलीज के बाद से जम्मू-कश्मीर में 1990 के दशक में हुई हत्याओं (1990 jammu kashmir killings) पर एक बार फिर से चर्चा शुरू हुई है. तत्कालीन राज्य सरकार, जम्मू-कश्मीर पुलिस के रवैये और गत 32 वर्षों में केंद्र सरकार की भूमिका पर भी टीका-टिप्पणी हो रही है. नृशंस हत्याओं से इनकार नहीं किया जा रहा, लेकिन गत तीन दशकों में पुलिस की कार्रवाई पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं. पीड़ितों का मानना है कि अदालतें मामले की गंभीरता पर विचार कर सकती हैं. सरकारों के संबंध में इनका मानना है कि न्यायिक आयोग के गठन का भी विकल्प मौजूद है. पीड़ितों की ओर से यह भी पूछा जा रहा है कि पुलिस के पास दर्ज प्राथमिकी आज कहां (JK killings Where are the FIR) है ? यह सवाल भी उठ रहा है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस तीन दशक से हत्याओं की जांच पर आगे क्यों नहीं बढ़ सकी (JK Police has not moved on killings) ?

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कश्मीरी पंडितों की हत्या

नई दिल्ली : किसी भी अपराध के लिए पुलिस से प्राथमिकी दर्ज करने की अपेक्षा की जाती है. किसी भी अपराध पर कार्रवाई करना किसी भी राज्य और उसकी पुलिस का मौलिक कर्तव्य है. लेकिन, जब कश्मीर की बात आती है, तो सभी बुनियादी बातें फीकी पड़ जाती हैं. अल्पसंख्यक समुदाय के सैकड़ों लोग आतंकवादियों द्वारा मारे गए, कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई, अपहरण कर लिया गया, मारपीट की गई, कई घरों को लूट लिया गया और जला दिया गया, कई मंदिरों को अपवित्र किया गया. कोई ठोस आधिकारिक संख्या नहीं है. कश्मीरी पंडित समुदाय के नेताओं का कहना है कि 700 से अधिक लोग मारे गए, लेकिन बलात्कार, हमले, अपहरण आदि के आंकड़े दर्ज नहीं हैं. हत्याओं, लिंचिंग, बलात्कार, अपहरण, हमला, लूट और आगजनी के बारे में कोई ठोस रिकॉर्ड नहीं होने के कारण, अत्याचारों के 'सबूत' खोने के कगार पर हैं.

कश्मीर में सबसे चर्चित राजनीतिक हत्याओं में से एक टीकालाल टपलू का है. उनके बेटे आशुतोष टपलू, जो कश्मीर से भागकर दिल्ली में बस गए थे, का कहना है कि कभी कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई और उन्हें कभी मृत्यु प्रमाण पत्र भी नहीं मिला. सुषमा शल्ला कौल के पिता पंडित चुन्नी लाल शल्ला का मई 1990 में अपहरण, अत्याचार और गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. वह कश्मीर के बारामूला में तैनात एक सीआईडी अधिकारी थे और यह उनके पीएसओ थे जिन्होंने उन्हें धोखा दिया था. सुषमा ने कहा, 'मुझे याद है कि उन्होंने हमें बताया था कि प्राथमिकी हो चुकी है.'

पुलिस ने फर्जी केस फाइल नंबर दिया
'पिछले साल जब सुषमा ने प्राथमिकी के बारे में पूछताछ करने की कोशिश की, तो उसने पाया कि नंबर कभी मौजूद नहीं था. यह एक फर्जी केस फाइल नंबर था जो उसे दिया गया था. तब से, वह नंबर की मांग कर रही है, लेकिन आधिकारिक तौर पर उसे कुछ भी नहीं बताया गया है. मुझे केस फाइल नंबर मिला, जो अनौपचारिक रूप से नया था.' सुषमा कहती हैं, 'पुलिस ने मुझे आधिकारिक तौर पर कुछ भी नहीं दिया है और मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है'

पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र भी नहीं
मूल रूप से श्रीनगर के हब्बा कदल के रहने वाले रमेश मोटा का दावा है कि उनके पास अपने पिता की हत्या की कोई प्राथमिकी नहीं है. उनके पिता, ओंकार नाथ मोटा, एक व्यापारी थे, जिनकी कश्मीर के पंपोर जिले में उनके पैतृक घर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. उन्होंने कहा, 'हमारे पास बड़ी संपत्ति थी - चार घर और छह दुकानें, बड़ी जमीन और पंपोर में एक घर. मेरे पिता की 29 जुलाई, 1990 को हमारे पंपोर घर में हत्या कर दी गई थी. चार आतंकवादी हमारे घर में घुस गए और उन्हें गोली मार दी गई. उन्होंने हमारे सारे पैसे लूट लिए. मैं अपनी किशोरावस्था में था और मेरी बहन सिर्फ 8 साल की थी. कोई मदद नहीं थी. तब बहुत बुरा था.'

'मुझे याद है कि उस समय पुलिस द्वारा कुछ वायरलेस संदेश दिया गया था, लेकिन जहां तक मुझे याद है, कोई प्राथमिकी नहीं थी. मेरे पास मेरे पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र भी नहीं है. हब्बा कदल में हमारी सारी संपत्ति लोगों द्वारा हड़प ली गई थी.'

हत्यारों को कभी गिरफ्तार नहीं किया गया
एक दूरसंचार इंजीनियर नवीन सप्रू (29) की 27 फरवरी, 1990 को कन्या कदल, श्रीनगर के पास दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. हमले का कारण ज्ञात नहीं था, हत्यारों को कभी गिरफ्तार नहीं किया गया था और न ही कभी कोई प्राथमिकी दर्ज की गई थी.

चश्मदीद गवाहों ने बताए खूनी विवरण
रोहित काक ने कहा, 'मेरे चाचा को एक व्यस्त सड़क पर कई बार गोली मारी गई थी. आतंकवादियों ने उनके चारों ओर नृत्य किया और किसी भी मदद को डराने के लिए जश्न में गोलियां चलाईं. कई चश्मदीद गवाह थे जिन्होंने हमें खूनी विवरण के बारे में बताया कि कैसे आतंकवादी चाहते थे कि उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए. जब चाचा ने पानी की मांग की, तो उसका चेहरा नाले में डाल दिया गया. उन्हें बचाया जा सकता था. उनकी मौत हो गई.'

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जेकेएलएफ के बिट्टा कराटे ने की हत्या
काक ने कहा, 'सप्रू एक सज्जन व्यक्ति थे. वह कभी आवाज भी नहीं उठाते थे. हमें बाद में पता चला कि उनकी हत्या जेकेएलएफ के बिट्टा कराटे ने की थी.' यह पूछे जाने पर कि प्राथमिकी क्यों दर्ज नहीं की गई, उन्होंने कहा, 'मैं तब सिर्फ 12 साल का था. लेकिन मुझे याद है कि उन दिनों स्थिति ऐसी नहीं थी कि कोई पुलिस से संपर्क कर मदद ले सके. वास्तव में, हमें हमेशा संदेह था कि जम्मू-कश्मीर पुलिसकर्मी आतंकवादियों के साथ है. अगर कोई पुलिस से संपर्क करता, तो आतंकवादियों की ओर से जवाबी कार्रवाई की आशंका होती.'

पिता की गोली मारकर हत्या
संजय काक के पिता, 53 वर्षीय बंसीलाल काक, जम्मू-कश्मीर सरकार में एक कार्यकारी अभियंता थे और उनके मुस्लिम सहयोगियों के साथ अच्छे संबंध थे. उन्होंने कहा, '25 अगस्त, 1990 को, मेरे पिता के एक सहयोगी ने उन्हें किसी बहाने अनंतनाग में कार्यालय से बाहर निकाल दिया और वह कभी वापस नहीं आए. मेरे पिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई. मुझे अभी भी पता नहीं क्यों. मुझे नहीं पता कि वहां कोई प्राथमिकी है या नहीं. मुझे जम्मू-कश्मीर पुलिस से कुछ नहीं मिला. मैं तब छोटा था. मेरी मां की भी मृत्यु हो गई थी और मेरे पिता की मौत हो गई थी. यह विनाशकारी था.' उन्होंने कहा कि उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था क्योंकि हर कोई संघर्ष कर रहा था.

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सैकड़ों मामलों में शिकायत दर्ज नहीं हुई
सुषमा, संजय काक, आशुतोष टपलू, रमेश मोटा, रोहित काक की तरह ऐसे कई मामले हैं, जहां कश्मीर में अपनों के मारे जाने के बाद परिवारों को भागने को मजबूर होना पड़ा. ऐसे सैकड़ों मामले हैं जहां शिकायत दर्ज नहीं की जा सकी.

माहौल पूरी तरह से शत्रुतापूर्ण
सुषमा ने कहा, 'कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर किए जाने के बाद, उनके पास उनके पास कुछ भी नहीं था. इसलिए तत्काल चिंताएं भोजन, आश्रय, कपड़े और फिर अपने बच्चों के लिए शिक्षा और बढ़ते डर की थीं. कोई भी वापस जाकर मामले दर्ज नहीं कर सकता था या उनका पीछा नहीं कर सकता था. इसके अलावा, माहौल पूरी तरह से शत्रुतापूर्ण था. '

बलात्कार की संख्या दर्ज नहीं
मारे गए और घाटी से भागने वालों की संख्या विवादित है, जबकि बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की संख्या दर्ज नहीं की गई है. हत्याओं के कई मामलों में तो कभी प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गई और यहां तक कि जिन मामलों में मामले दर्ज किए गए, उनमें भी प्रगति लगभग शून्य ही रही. जबकि समुदाय का कहना है कि लगभग सात लाख कश्मीरी पंडितों को भागने के लिए मजबूर किया गया था, और मारे गए लोगों की संख्या 700 से अधिक है, किसी भी जम्मू-कश्मीर प्रशासन और यहां तक कि केंद्र ने वास्तविक आंकड़े प्राप्त करने के लिए कुछ भी नहीं किया है. समुदाय के नेता प्रलय के पीछे के चेहरों को उजागर करने के लिए जांच की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन बाद की सरकारों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.

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कानूनी संस्थानों के लिए जांच स्वाभाविक नहीं
सामूहिक पलायन के तीन दशक बाद, केंद्र या राज्य की किसी भी सरकार ने पलायन की जांच के लिए आयोग या एसआईटी का गठन नहीं किया. जब लाखों से अधिक लोगों को अपनी भूमि छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, तो क्या किसी सरकार या शीर्ष कानूनी संस्थानों के लिए जांच करना स्वाभाविक नहीं है? दुर्भाग्य से, इस मामले में, किसी भी जांच का आदेश नहीं दिया गया है, न ही कोई आयोग गठित किया गया है और न ही सताए गए लोगों को न्याय दिलाने के लिए कोई गंभीर प्रयास किया गया है.

कश्मीरी पंडितों की हत्या पर आरटीआई का जवाब
एक स्थानीय संगठन, कश्मीर पंडित संघर्ष समिति (केपीएसएस) के एक अनुमान के अनुसार, जिसने 2008 और 2009 में एक सर्वेक्षण किया था, 1990 से 2011 तक विद्रोहियों द्वारा 399 कश्मीरी हिंदुओं को मार डाला गया था, जिनमें से 75 प्रतिशत पहले वर्ष के दौरान मारे गए थे. पिछले साल दायर एक आरटीआई में कहा गया था कि 1990 में आतंकवाद की स्थापना के बाद से हमलों में 89 कश्मीरी पंडित मारे गए (1990 kashmiri pandit killings) थे. संख्या विवादित है क्योंकि कई कश्मीरी पंडित प्राथमिकी दर्ज नहीं करवा सके और उनका कोई पुलिस रिकॉर्ड नहीं है.

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12 साल पहले विधानसभा में सरकार का बयान
23 मार्च, 2010 को, तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के राजस्व मंत्री रमन भल्ला ने जम्मू में विधानसभा को बताया कि '1989 से 2004 तक कश्मीर में 219 पंडित मारे गए.' चूंकि पीड़ितों के परिवार मामले दर्ज करने या आगे बढ़ाने के लिए कश्मीर वापस नहीं जा सके, इसलिए आवाजें उठ रही हैं कि अब कदम उठाए जाएं.

अदालतें विचार कर सकती हैं, न्यायिक आयोग के गठन का भी विकल्प
दिल्ली उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रमेश वांगनू ने कहा, 'हालांकि सामान्य परिस्थितियों में अधिकतम 3 साल प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है, लेकिन वास्तव में, भारतीय आपराधिक कानून कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करने की सीमा को परिभाषित नहीं करता है. अतीत में, 15 साल बाद भी प्राथमिकी दर्ज की जाती थी. एक व्यक्ति द्वारा दर्ज किया गया था, लेकिन उसके पास सबूत थे और इसलिए अदालत ने इसे स्वीकार कर लिया. कश्मीरी पंडितों के मामले में, यह एक सामूहिक हत्या और महिलाओं का बलात्कार और लूट हो रही थी और यदि कोई संगठन इसे लेता है तो अदालतें विचार कर सकती हैं, या सरकार एसआईटी या न्यायिक आयोग बना सकते हैं.'

(आईएएनएस)

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