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हिंदी दिवस : भाषाई एकरूपता पर राजनीतिक टकराव और असंतोष नया नहीं

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Published : Sep 14, 2021, 6:00 AM IST

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कॉन्सेप्ट फोटो, हिंदी दिवस

विभाजन से पहले और स्वतंत्रता के बाद, भाषा की राजनीति को लेकर हमेशा विवाद हुआ है. 14 सितंबर, 1949 को भारत में हिंदी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में सूचीबद्ध किया गया. इसलिए इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. भारत के कई राज्यों में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने को लेकर ज्यादातर विरोध हुए हैं. यह विरोध अब भी जारी है. विरोध का आधार राजनीतिक ज्यादा है.

हैदराबाद : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने 1925 के कराची अधिवेशन में निर्णय लिया था कि देश में 'हिन्दुस्तानी' भाषा आम बोलचाल की भाषा होगी. हिंदुस्तानी भाषा हिंदी और उर्दू का लोकप्रिय अविभाज्य मिश्रण होगी.

आधिकारिक भाषा हिंदी

14 सितंबर, 1949 को भारत में आधिकारिक भाषा के तौर पर हिंदी भाषा को सूचीबद्ध किया गया था, जिसके बाद से इस दिन को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. केंद्र सरकार के लिए हिंदी और अंग्रेजी भारत की दो आधिकारिक भाषाएं हैं, जबकि संविधान में 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है. 1947 में भारतीय स्वतंत्रता के बाद से केंद्र सरकार द्वारा हिंदी को व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के रूप में दर्जा देने का प्रायस किया गया, जिसे बढ़ावा देने के लिए हिंदी सिनेमा ने भी एक महत्वूर्ण भूमिका निभाई.

इतिहास

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने 1925 के कराची अधिवेशन में निर्णय लिया था कि हिन्दुस्तानी स्वतंत्र राष्ट्र की सामान्य भाषा होना चाहिए, जो हिंदी और उर्दू का लोकप्रिय अविभाज्य मिश्रण है. हालांकि इस संकल्प को हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रभाव के कारण कुछ साल बाद संशोधन का सुझाव दिया गया. सुझाव में कहा गया कि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा होना चाहिए. इस प्रस्ताव ने मुसलमानों सहित कांग्रेस के कई सदस्यों को निराश हाथ लगी, जिसके कारण सांप्रदायिक उलझनों का सामना करना पड़ा. दूसरी ओर मुस्लिम लीग जिसका गठन 1906 में हुआ था. वहीं दूसरी तरफ उर्दू भाषा मुस्लिमों की पहचान का प्रतीक हो बन गई. 1946 में भारत विभाजन के करीब उर्दू को पाकिस्तान के साथ जोड़ दिया गया, जिसके बाद उर्दू को नए स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय भाषा की दावेदारी से हटा दिया गया.

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हिंदी दिवस

हिंदी समर्थक / हिंदुस्तानी समूह में जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के शामिल होने के बाद दोनों भाषाओं में से किसी एक को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने के तर्क दिए गए. हिंदी विरोधी समूह ने इसका विरोध किया और अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखने का समर्थन किया. इस मुद्दे को सुलझाने के लिए 1949 में भारतीय संविधान समिति ने समझौता किया, जिसे मुंशी-अय्यंगार सूत्र के रूप में जाना जाता है.

भाषा का नाम हिंदी (देवनागरी लिपि) में था, लेकिन हिंदुस्तानी के समर्थकों को एक निर्देश खंड के साथ दिलासा दिया गया, जिसने संस्कृत को हिंदी शब्दावली के मुख्य आधार के रूप में निर्देशित किया. इसमें अन्य भाषाओं के शब्दों का स्पष्ट रूप से बहिष्कार नहीं किया गया था. इसमें 'राष्ट्रीय भाषा' का जिक्र न होकर भारतीय संघ की दो आधिकारिक भाषाओं का वर्णन किया गया. अंग्रेजी का आधिकारिक उपयोग संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानी 26 जनवरी, 1965 को समाप्त हो गया था.

शुरुआत में हुए टकराव

बालकृष्ण शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राजनेताओं की हिंदी समर्थक लॉबी ने अंग्रेजी को अपनाने का विरोध किया. इन लोगों का कहना था कि आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के अवशेष की तरह है. इन लोगों ने हिंदी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा के रूप में लाने के लिए धरना-प्रदर्शन भी किए.

उन्होंने हिंदी भाषा के प्रयोग को लेकर कई मौकों पर संशोधन के प्रयास किए, लेकिन यह कभी लागू नहीं हो सका. ऐसा इसलिए क्योंकि आधे से अधिक भारतीयों को हिंदी का आधिपत्य अस्वीकार्य रहा, विशेषकर देश के दक्षिण और पूर्व के राज्यों में. 1965 में हिंदी को प्रभावी ढंग से अनिवार्य किए जाने के बाद तमिलनाडु में हिंसक विरोध प्रदर्शन किया गया.

परिणामस्वरूप, भारत के संविधान के लागू होने के 15 साल बाद, कांग्रेस कार्य समिति ने एक प्रस्ताव पर सहमति व्यक्त की जिसमें कहा गया कि आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी की स्थिति तब तक नहीं बदलेगी जब तक कि सभी राज्य इस पर सहमति नहीं देते. अंत में, 1967 के आधिकारिक भाषा अधिनियम के माध्यम से, सरकार ने द्विभाषावाद की नीति अपनाई. इससे भारत में आधिकारिक भाषाओं के रूप में अंग्रेजी और हिंदी के उपयोग की गारंटी अनिश्चितकाल के लिए मिल गई.

1971 के बाद, भारत की भाषा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया गया. इसके तहत क्षेत्रीय भाषाओं को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का फैसला हुआ. ऐसा करने का मकसद भाषाओं को राजभाषा आयोग के समक्ष प्रतिनिधित्व का हक देना था. यह कदम बहुभाषी जनता की भाषाई नाराजगी को रोकने के लिए उठाया गया था. स्वतंत्रता के समय इस सूची में 14 भाषाएं थीं, जो 2007 में बढ़कर 22 हो गईं.

एनडीए सरकार के तहत हिंदी भाषा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने का प्रयास किए. हालांकि, सरकार आलोचकों के निशाने पर भी रही. आलोचकों का कहना है कि बहुसंख्यक होने के कारण सरकार के प्रयास गैर-हिंदी भाषी लोगों पर भाषा थोपने का है.

2014 में सरकार ने अपने अधिकारियों को सोशल मीडिया अकाउंट और सरकारी पत्रों में हिंदी का उपयोग करने का आदेश दिया. खुद पीएम मोदी ने भी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल सकने के बावजूद राजनयिक गतिविधियों में हिंदी का प्रयोग किया. उन्होंने विश्व के नेताओं के साथ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हिंदी में ही भाषण दिए. पिछले साल की शुरुआत में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी केंद्र सरकार को सुझाव दिया था कि सभी गणमान्य व्यक्तिओं और मंत्रियों को हिंदी में भाषण देना चाहिए.

अधिकांश राष्ट्रवादी देशों में बोली जाने वाली भाषा एकजुट करने में अहम भूमिका निभाती है, लेकिन शासकीय रूप से भाषा को थोपना हमेशा परेशानी और खाई पैदा करता है. बांग्लादेश इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. इतिहास में भी इसके कई उदाहरण हैं जहां अंधराष्ट्रीयता और लोगों को बांटने के लिए एक ही भाषा के उपयोग का सहारा लिया गया. भाजपा और उसके पूर्ववर्ती जनसंघ ने भारत की एकजुटता के लिए लंबे समय से हिंदी के प्रयोग की वकालत की है. इस मुद्दे पर ध्रुवीकरण उत्तर भारत में पार्टी के हिंदी भाषी जनाधार को मजबूत कर सकता है.

हालांकि, पिछले साल बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी संकेतक लगाए जाने और और तामिलनाडु में हाईवे पर लगे माइलस्टोन पर हिंदी के प्रयोग को लेकर हाल में ही विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं. ऐसे में भाषा को लेकर गुप्त तरीके से किए जाने वाले किसी भी फैसले के खिलाफ लोगों की खीझ और हिंदी विरोधी राजनीति अपना सिर उठा सकती है.

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