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ग्लेशियर खिसकने से मलबा मचा सकता है तबाही, वैज्ञानिकों ने दी हिदायत

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Published : Sep 23, 2021, 11:44 AM IST

ग्लोबल वॉर्मिंग से ग्लेशियरों में आ रहा बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है. दरअसल ग्लोबल वॉर्मिंग (Global warming) की वजह से उच्च हिमालय क्षेत्र में छोटे-छोटे ग्लेशियर की संख्या कम हो रही है. ग्लेशियर के पीछे खिसकने से घाटियों व तेज ढलानों में करोड़ों टन मलबा जमा हो रहा है. अतिवृष्टि होने पर ये मलबा भारी तबाही ला सकता है.

ग्लेशियर खिसकने से मलबा मचा सकता है तबाही
ग्लेशियर खिसकने से मलबा मचा सकता है तबाही

श्रीनगर: उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने और भूस्खलन समेत तमाम घटनाएं समय-समय पर सामने आती रहती हैं. यही नहीं, ग्लेशियर में झीलों के बनने की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं. जो आने वाले समय में किसी खतरे से कम नहीं है. इसको लेकर वैज्ञानिकों ने एक बार फिर सजग रहने की हिदायत दी है.

दरअसल ग्लोबल वॉर्मिंग (Global warming) की वजह से उच्च हिमालयी क्षेत्र में छोटे-छोटे ग्लेशियर की संख्या कम हो रही है. ग्लेशियर के पीछे खिसकने से घाटियों व तेज ढलानों में मलबा जमा हो रहा है. अतिवृष्टि होने पर ये मलबा भारी तबाही ला सकता है. जिसका खामियाजा हमें उठाना पड़ सकता है. जिसको लेकर वैज्ञानिकों ने अलर्ट कर दिया है.

भू वैज्ञानिक वाईपी सुंदरियाल ने दिया बयान

हेमवंती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विवि के भू वैज्ञानिक वाईपी सुंदरियाल चमोली जिले के ऋषि गंगा की बाढ़ और हिमस्खलन का अध्ययन कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस तबाही का सीधा संबंध इस मलबे से था. उनके अध्ययन के अनुसार इन घाटियों में बनी परियोजनाओं के कारण ऊंची पहाड़ियों पर तापमान में वृद्धि होती है. जिसका अध्ययन परियोजनाओं को बनाने से पूर्व किया जाना अनिवार्य होना चाहिए. साथ ही इन क्षेत्रों में जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए. इससे खतरे बढ़ते हैं.

इसी साल सात फरवरी को चमोली जिले में ऋषि गंगा हिमखंड टूटने से बाढ़ आ गई थी. इसके बाद 23 अप्रैल को सुमना में हिमखलन हुआ. दोनों घटनाओं में भारी तबाही हुई. वैज्ञानिकों ने पाया दोनों स्थानों पर ग्लेशियर का मलबा पानी और बर्फ के साथ नीचे आया और ये घटना इतनी विकराल हुई.

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वैज्ञानिकों की मानें तो उच्च हिमालय में ग्लोबल वॉर्मिंग को समझते हुए यहां विकास किया जाना चाहिए. वैज्ञानिक अध्ययन को देखा जाना चाहिए. वहां बड़ी गतिविधियों को नहीं करना चाहिए. उतनी गतिविधियां करनी चाहिए कि जो मानवीय जीवन के लिए आवश्यक है.

उत्तराखंड में करीब 1200 ग्लेशियर झील: वैज्ञानिकों के अनुसार, ग्लेशियर पिघलने से नई परेशानियां भी खड़ी हो गयी हैं. क्योंकि ग्लेशियर के पिघलने से ग्लेशियर लेक (glacier lake) बन रहे हैं. यही नहीं, उत्तराखंड में करीब 1200 ग्लेशियर झील हैं, जिसमें से एक भी झील, खतरनाक नहीं है. बावजूद इसके ग्लेशियर लेक के टूटने का खतरा बना रहता है. लिहाजा, लगातार इन झीलों का शोध किया जा रहा है. साथ ही ये भी देखा जा रहा है कि कौन सी झील पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. हालांकि, उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बहुत कम लोग ही रहते हैं.

झील टूटने से बढ़ जाता है बाढ़ का खतरा: अगर कोई झील टूटती है तो उससे भारी नुकसान होता है. लेकिन यह भी सबसे अहम है कि जो झील टूट रही है उसके आस-पास किस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर है ये नुकसान को बयां करता है क्योंकि झील के टूटने से आस-पास की चीजें तबाह हो जाती हैं. अगर कोई ऐसी झील टूटती है जो बहुत ऊपर है, और वहां कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है तो इससे कोई नुकसान नहीं होगा. लेकिन इसका असर मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में देखने को मिलता है. क्योंकि झील के टूटने से पानी का जलस्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है.

ग्लेशियर झील से घट चुकी हैं घटनाएं: ग्लेशियर और झीलों पर निगरानी रखा जाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि पिछले 10 सालों में राज्य के भीतर तीन बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं. पहला साल 2013 में केदारनाथ में आयी आपदा और साल 2017 में गंगोत्री में आयी आपदा के साथ ही 2021 में रैणी गांव में ग्लेशियर टूटने से फ्लड आया था. हालांकि, गंगोत्री में साल 2017 में आयी आपदा से कुछ ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था, क्योंकि वहां जनसंख्या बेहद कम थी. ऐसे में, अगर समय-समय पर ग्लेशियर झीलों की देख-रेख की जाए तो झील से होने वाले खतरे को टाला जा सकता है.

कुछ ग्लेशियरों की निगरानी करने की है जरूरत: हिमालय में करीब 10,000 ग्लेशियर मौजूद हैं जिसमें से उत्तराखंड रीजन में करीब एक हजार ग्लेशियर हैं. ऐसे में सभी ग्लेशियरों की निगरानी करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि ऐसे ग्लेशियर की निगरानी करने की जरूरत है जिसके नीचे लोग रह रहे हों या फिर कोई बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा हो.

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