ETV Bharat / bharat

खपत और विकास को बढ़ाने को लेकर तीन बड़ी चुनौतियां

author img

By

Published : Dec 31, 2019, 10:50 AM IST

photo
प्रतिकात्मक चित्र

2019 में वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भविष्य में देश में खपत को सकारात्मक रूप से बढ़ाने के लिये तीन बड़ी चुनौतियां सामने हैं. इसमें, (क) कौशल विकास और रोजगार, (ख) ग्रामीण भारत में सामाजिक और आर्थिक समन्वय और (ग) एक स्वस्थ और सतत भविष्य शामिल हैं. एक साल पहले आई इस रिपोर्ट से लेकर अब तक इस दिशा में उठाये गये कदमों का हम अध्ययन करेंगे.

2019 में वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भविष्य में देश में खपत को सकारात्मक रूप से बढ़ाने के लिये तीन बड़ी चुनौतियां सामने हैं. इसमें, (क) कौशल विकास और रोजगार, (ख) ग्रामीण भारत में सामाजिक और आर्थिक समन्वय और (ग) एक स्वस्थ और सतत भविष्य शामिल हैं. एक साल पहले आई इस रिपोर्ट से लेकर अब तक इस दिशा में उठाये गये कदमों का हम अध्ययन करेंगे.

इन पहलुओं पर नजर डालने से पहले, पिछले एक साल में देश की अर्थव्यवस्था के हाल को समझना जरूरी है.

2018-19 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर 8.0% थी.

2019-20 की पहली तिमाही में यह गिरकर 5.0% पहुंच गई. हालांकि, डब्ल्यूईएफ कि रिपोर्ट में कहा गया था कि 2019 के लिये भारत की विकास दर करीब 7.5% रहेगी.

इसके पीछे विश्न बाजार में भारत की अहम भूमिका को कारण माना गया था. इस आंकडे के विपरीत, फिलहाल 2019-20 में देश की विकास दर के 5% के करीब रहने की उम्मीद है. इसके लिया अंतरराष्ट्रीय कारणों के साथ ही कई घरेलू कारण भी जिम्मेदार हैं.

इन कारणों में, जीएसटी से जुड़े मामले, 10 लाख करोड़ के एनपीए, नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों के बुरे हाल, कृषि क्षेत्र में विकास और कमाई पर ब्रेक जैसे कारण पिछले एक साल में आई मंदी के लिये जिम्मेदार हैं.

कई अर्थशास्त्रियों की राय में, देश की अर्थव्यवस्था इस समय आईसीयू में है. हालांकि अभी घबराहट की जरूरत नहीं है,क्योंकि यह फिलहाल अर्थव्यवस्था का सुस्त होना है, मंदी नहीं. इससे एक से दो सालों में उभरा जा सकेगा.

कौशल विकास और रोजगार की पहली चुनौती की बात करें तो, राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2017-18 की रिपोर्ट में रोजगार के बारे में कई बाते सामने आई हैं.

2017-18 में देश में बेरोजगारी पिछले 45 सालों के अपने अधिकतम स्तर, 6.1% पर रही. इसी समय में, काम में महिलाओं की हिस्सेदारी भी कम होती गई है. 2004-05 के दौरान ये आंकड़ा 42% था, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 22% पहुंच गया. अभी भी 80-90% वर्कर अनौपचारिक क्षेत्र में हैं. इसलिये सरकार को औपचारिक क्षेत्र के विकास और अनौपचारिक क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने की तरफ काम करना पड़ेगा.

जनसांख्यिकी विभाजनों के कारण, मजदूरों की संख्या में बड़ा इजाफा होगा. यह ऐसे समय में होगा जब बाकी दुनिया में बड़ी उम्र के लोगों की संख्या बढ़ रही है. सांख्यिकी विभाजन का फायदा तभी मिल सकेगा जब देश में लोगों को रोजगार, शिक्षा और कौशल विकास मुहैया कराया जा सके.

हालांकि, ये लाभांश राज्यों पर भी निर्भर करेगा. इसके पूर्व में ज्यादा होने की उम्मीद है, और दक्षिण में, जहां जनसंख्या की उम्र ज्यादा होने लगी है, वहां ये कम होगा. कर्मचारियों में कौशल की कमी जग जाहिर है.

NITI आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फॉर्मिंग इंडिया) के अनुसार, देश में केवल 2.3% कर्मचारियों को कौशल विकास में प्रशिक्षण है, वहीं यह आंकड़ा अन्य देशों में 70-80% तक है. अन्य शब्दों में यह कहा जा कता है कि, कौशल विकास के मामले में भारत में बहुत धीमी गति से काम हो रहा है.

भारत के कौशल विकाल के परिवेश में कई बदलाव आये हैं. इसके लिये संस्थागत ढांचा तैयार किया गया है. निजी क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी को बढ़ाया गया है, राज्य स्तर पर भी कौशल विकास के कार्यक्रमों को शुरू किया गया है. 17 केंद्रीय मंत्रालयों ने भी कौशल विकास के लिये कदम उठाये हैं. हालांकि, इस क्षेत्र में काफी कुछ किया जा रहा है, लेकिन इस सबके बीच यह सबसे जरूरी है कि कौशल विकास के कार्यक्रमों से जुड़ी सभी संस्थाएं साथ आकर काम करे.

कौशल विकास के क्षेत्र में चीन के अनुभव से भारत को कुछ सीख मिल सकती है. चीन के टेक्निकल एंड वोकेशनल ट्रेनिंग सिस्टम के लिये, 1996 में लाया गया वोकेशनल एजुकेशन लॉ, मील का पत्थर साबित हुआ है.

चीन की अर्थव्यवस्था में ऐसे कई खास पहलू हैं जो उसे अपने यहां जमीनी स्तर पर कौशल विकास के कदमों को लागू करने का मौका देते हैं. इस कानून में औद्योगिक क्षेत्र के सहयोग से शिक्षा में तकनीक के बारे में पढ़ाये जाने को जोड़ने का प्रावधान है. इसके साथ ही, इसमें, ग्रामीण क्षेत्रों मे प्रौढ़ शिक्षा और वोकेशनल ट्रेनिंग का भी प्रावधान है.

ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देशों में इस तरह के कानून से वोकेशनल शिक्षा को कानूनी रूप दिया गया है. इसी तरह के एक कानून की भारत में भी जरूरत है, जिसमें, कौशल विकास को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारियों के साफ तरह से बताया गया हो.

कौशल विकास से जुड़ा एक और मसला है कि, दक्षिण कोरिया ने अपने यहां बेहतरीन शिक्षा प्रणाली से देश में कौशल के स्तर को बढ़ा दिया है. इसलिये भारतीय आबादी को भी मुकाबले में रखने के लिये बेहतर बेसिक शिक्षा देने की जरूरत है.

दूसरी चुनौती है, ग्रामीण भारत में सामाजिक-आर्थिक विकास को लाना. पिछले एक साल में आर्थिक घीमी रफ्तार के कारण ग्रामीण क्षेत्र की आय में कमी आई है. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में संसाधनों और डिजिटाइजेशन के मुद्दों पर फासले को कम करने की जरूरत है. इस दिशा में सरकार द्वारा अगले पांच साल में 100 लाख करोड़ खर्च करने का ऐलान एक अच्छा कदम है. हालांकि इसकी बीरीकियों पर अभी काम होना बाकी है. सरकार को इस फंड का ज्यादा हिस्सा ग्रामीण और अर्ध्द शहरी क्षेत्रों पर खर्च करना चाहिए.

पिछले कुछ सालों में सरकार ने एलपीजी कनेक्शन मुहैया कराने (उज्जवला योजना), बिजली दिलाने (सौभाग्य योजना), स्वच्छ भारत अभियान शुरू कर अच्छी पहल की है. इन योजनाओं ने समाज में खासतौर पर महिलाओं को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई है. 2019 के बजट में देश के हर परिवार को 2022 तक बिजली और रसोई गैस सुविधा मुहैया कराने का लक्ष्य है. इस दावे पर काम की रफ्तार का अगले दो सालों में आंकलन करने की जरूरत है.

ग्रामीण क्षेत्र में विकास के लिये सूचना तकनीक भी कारगर हथियार साबित हो सकता है. भारत सरकार द्वारा शुरू किये गये डिजिटल इंडिया कार्यक्रम से देश के सभी नागरिकों को इंटरनेट से जोड़ने और देश को डिजिटल दुनिया में एक ताकत बनाने का लक्ष्य है. इस कार्यक्रम के तहत देश के ग्रामीण इलाकों को हाई स्पीड इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है. मोबाइल सेवाओं में देश ने काफी रफ्तार पकड़ी है, लेकिन इंटरनेट नेटवर्क के फैलाव में अभी हमारी रफ्तार नाकाफी है.

आर्थिक विकास के मसले पर, प्रधानमंत्री जन धन योजना ने ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ने का काम किया है. इस योजना के तहत, सितंबर 2019 तक 37.1 करोड़ बैंक खाते खोले जा चुके हैं, और इनमें करीब 1.02 लाख करोड़ रुपये भी जमा हैं.

इनमें से 59% खाते अर्ध शहरी इलाकों में हैं. लेकिन अगर खातों के इस्तेमाल की बात करें तो, यह पिछले दो सालों में काफी धीमी गति से हो रही है. आर्थिक समावेश सलाहकार समिति के अंतर्गत नेशनल स्ट्रेटजी फॉर फाइनेंशियल इंक्लूजन (एनएसएफआई) 2019-2024 की रूप रेखा तैयार की गई है. उम्मीद है कि इससे भी ग्रामीण क्षेत्र में और आर्थिक समावेश हो सकेगा.

तीसरी चुनौती है स्वस्थ और सतत भविष्य. संयुक्त राष्ट्र के सतत लक्ष्यों के मद्देनजर यह और जरूरी हो गया है. शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण और अस्वस्थ आबादी के चलते यह समस्या यहां परेशानी का बड़ा सबब है. सर्वे बताते हैं कि भारत में होने वाली मौतों में से 63% के लिये संक्रामक बीमारियां जिम्मेदार हैं.

सरकार प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना पर ध्यान दे रही है, जिसके तहत 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख रुपये का बीमा दिया जाता है. कुछ अनुमानों के मुताबिक इस योजना के लिये हमे एक लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी. अनुमानित खर्चों की तुलना में इस योजना पर हो रहा खर्च न के बराबर है. ये तय है कि बेहतर स्वास्थ नेटवर्क में स्वास्थ बीमा एक महत्वपूर्ण किरदार है, लेकिन सभी के लिये स्वास्थ सेवा हमारा लक्ष्य होना चाहिए.

मौजूदा वायु और पानी के प्रदूषण, वेस्ट मैनेजमेंट और शहरी भीड़ पर ध्यान देने की जरूरत है. हाल के दिनों में सरकार ने प्रदूषण के स्तरों को कम करने और मौसम के बदलावों की चुनौतियों से निपटने के लिये कदम उठाने शुरू किये हैं.

सरकार के इन्हीं कदमों में से एक है नमामी गंगे परियोजना. देश में पर्यावरण संरक्षण के नियम अन्य किसी भी देश से ज्यादा सख्त हैं, लेकिन इन्हें लागू करने में ढिलाई के कारण ये कारगर साबित नहीं हो रहे हैं.

इसके नतीजतन, वायु और जल के साथ, पर्यावरण को हर तरह से नुसान पहुंच रहा है. पंजाब और हरियाणा में हर साल पराली जलाने से दिल्ली की हवा जहरीली हो जाती है. दिल्ली के हवा प्रदूषण में निर्माण कार्यों और गाड़ियों के धुएं का भी बड़ा हिस्सा है. चीन के बीजिंग और शंघाई शहरों से, वायु प्रदूषण और वेस्ट मैनेजमंट के बारे में सीखा जा सकता है.

पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं के फेल होने के पीछे अन्य कारणों में से एक है, संस्थागत नाकामयबी और उदासीनता. प्रदूषण की समस्या के लिये आम लोगों का, 'यह मेरी समस्या नहीं है.' नजरिया भी दोषी है. पर्यावरण के बचाव के लिये, संस्थाओं को नियमों का कड़ाई से पालन करवाना होगा. साथ ही लोगों को भी एकजुट होकर अपने स्तर पर पर्यावरण को बचाने के लिये काम करना होगा.

पिछले एक साल में आर्थिक विकास और खपत विकास में कमी आई है. डब्ल्यूईएफ की रिपोर्ट में जिन तीन चुनौतियों का जिक्र किया गया है, उन पर काम की रफ्तार मिली जुली रही है. रोजगार की स्थिति खराब हुई है और नये रोजगारों के अवसरों में कमी आई है.

वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी मिलने से, बिजली सुविधा बेहतर होने से, खुले में शौच आदि में कमी आने से हालात कुछ बेहतर जरूर हुए हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में भी ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन संक्रामक बीमारियां बढ़ रही हैं, और इन पर ध्यान देने की जरूरत है. पर्यावरण प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन इसके साथ ही लोगों में जागरूकता भी बढ़ रही है.

भारत एक बड़ा देश है, और इसकी समस्याएं भी राज्य दर राज्य बदलती रहती हैं. इसलिये, केंद्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों के स्तर पर भी इन तीन समस्याओं से निपटने के लिये काम करने की जरूरत है. इन तीन चुनौतियों के साथ कृषि विकास को भी एक चुनौती की तरह देखना चाहिए, क्योंकि कृषि से होने वाली आय खपत को बढ़ाने में जरूरी है.

(लेखक- एस महेन्द्र देव)

वाइस चांसलर, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR)


Conclusion:

Intro:Body:

खपत और विकास को बढ़ाने को लेकर तीन बड़ी चुनौतियां



2019 में वर्ल्‍ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि भविष्य में देश में खपत को सकारात्मक रूप से बढ़ाने के लिये तीन बड़ी चुनौतियां सामने हैं. इसमें, (क) कौशल विकास और रोजगार, (ख) ग्रामीण भारत में सामाजिक और आर्थिक समन्वय और (ग) एक स्वस्थ और सतत भविष्य शामिल हैं. एक साल पहले आई इस रिपोर्ट से लेकर अब तक इस दिशा में उठाये गये कदमों का हम अध्ययन करेंगे. 

इन पहलुओं पर नजर डालने से पहले, पिछले एक साल में देश की अर्थव्यवस्था के हाल को समझना जरूरी है. 

2018-19 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर 8.0% थी.

2019-20 की पहली तिमाही में यह गिरकर 5.0% पहुंच गई. हालांकि, डब्ल्यूईएफ कि रिपोर्ट में कहा गया था कि 2019 के लिये भारत की विकास दर करीब 7.5% रहेगी.

इसके पीछे विश्न बाजार में भारत की अहम भूमिका को कारण माना गया था. इस आंकडे के विपरीत, फिलहाल 2019-20 में देश की विकास दर के 5% के करीब रहने की उम्मीद है. इसके लिया अंतरराष्ट्रीय कारणों के साथ ही कई घरेलू कारण भी जिम्मेदार हैं. 

इन कारणों में, जीएसटी से जुड़े मामले, 10 लाख करोड़ के एनपीए, नॉन बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों के बुरे हाल, कृषि क्षेत्र में विकास और कमाई पर ब्रेक जैसे कारण पिछले एक साल में आई मंदी के लिये जिम्मेदार हैं. 

कई अर्थशास्त्रियों की राय में, देश की अर्थव्यवस्था इस समय आईसीयू में है. हालांकि अभी घबराहट की जरूरत नहीं है,क्योंकि यह फिलहाल अर्थव्यवस्था का सुस्त होना है, मंदी नहीं. इससे एक से दो सालों में उभरा जा सकेगा.    

कौशल विकास और रोजगार की पहली चुनौती की बात करें तो, राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2017-18 की रिपोर्ट में रोजगार के बारे में कई बाते सामने आई हैं. 

2017-18 में देश में बेरोजगारी पिछले 45 सालों के अपने अधिकतम स्तर, 6.1% पर रही. इसी समय में, काम में महिलाओं की हिस्सेदारी भी कम होती गई है. 2004-05 के दौरान ये आंकड़ा 42% था, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 22% पहुंच गया. अभी भी 80-90% वर्कर अनौपचारिक क्षेत्र में हैं. इसलिये सरकार को औपचारिक क्षेत्र के विकास और अनौपचारिक क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने की तरफ काम करना पड़ेगा.  

जनसांख्यिकी विभाजनों के कारण, मजदूरों की संख्या में बड़ा इजाफा होगा. यह ऐसे समय में होगा जब बाकी दुनिया में बड़ी उम्र के लोगों की संख्या बढ़ रही है. सांख्यिकी विभाजन का फायदा तभी मिल सकेगा जब देश में लोगों को रोजगार, शिक्षा और कौशल विकास मुहैया कराया जा सके.

हालांकि, ये लाभांश राज्यों पर भी निर्भर करेगा. इसके पूर्व में ज्यादा होने की उम्मीद है, और दक्षिण में, जहां जनसंख्या की उम्र ज्यादा होने लगी है, वहां ये कम होगा. कर्मचारियों में कौशल की कमी जग जाहिर है.

NITI आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फॉर्मिंग इंडिया) के अनुसार, देश में केवल 2.3% कर्मचारियों को कौशल विकास में प्रशिक्षण है, वहीं यह आंकड़ा अन्य देशों में 70-80% तक है. अन्य शब्दों में यह कहा जा कता है कि, कौशल विकास के मामले में भारत में बहुत धीमी गति से काम हो रहा है.

भारत के कौशल विकाल के परिवेश में कई बदलाव आये हैं. इसके लिये संस्थागत ढांचा तैयार किया गया है. निजी क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी को बढ़ाया गया है, राज्य स्तर पर भी कौशल विकास के कार्यक्रमों को शुरू किया गया  है. 17 केंद्रीय मंत्रालयों ने भी कौशल विकास के लिये कदम उठाये हैं. हालांकि, इस क्षेत्र में काफी कुछ किया जा रहा है, लेकिन इस सबके बीच यह सबसे जरूरी है कि कौशल विकास के कार्यक्रमों से जुड़ी सभी संस्थाएं साथ आकर काम करे. 

कौशल विकास के क्षेत्र में चीन के अनुभव से भारत को कुछ सीख मिल सकती है. चीन के टेक्निकल एंड वोकेशनल ट्रेनिंग सिस्टम के लिये, 1996 में लाया गया वोकेशनल एजुकेशन लॉ, मील का पत्थर साबित हुआ है. 

चीन की अर्थव्यवस्था में ऐसे कई खास पहलू हैं जो उसे अपने यहां जमीनी स्तर पर कौशल विकास के कदमों को लागू करने का मौका देते हैं. इस कानून में औद्योगिक क्षेत्र के सहयोग से शिक्षा में तकनीक के बारे में पढ़ाये जाने को जोड़ने का प्रावधान है.  इसके साथ ही, इसमें, ग्रामीण क्षेत्रों मे प्रौढ़ शिक्षा और वोकेशनल ट्रेनिंग का भी प्रावधान है.

ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे कई देशों में इस तरह के कानून से वोकेशनल शिक्षा को कानूनी रूप दिया गया है. इसी तरह के एक कानून की भारत में भी जरूरत है, जिसमें, कौशल विकास को लेकर केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारियों के साफ तरह से बताया गया हो.  

कौशल विकास से जुड़ा एक और मसला है कि, दक्षिण कोरिया ने अपने यहां बेहतरीन शिक्षा प्रणाली से देश में कौशल के स्तर को बढ़ा दिया है. इसलिये भारतीय आबादी को भी मुकाबले में रखने के लिये बेहतर बेसिक शिक्षा देने की जरूरत है.

दूसरी चुनौती है, ग्रामीण भारत में सामाजिक-आर्थिक विकास को लाना. पिछले एक साल में आर्थिक घीमी रफ्तार के कारण ग्रामीण क्षेत्र की आय में कमी आई है. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में संसाधनों और डिजिटाइजेशन के मुद्दों पर फासले को कम करने की जरूरत है. इस दिशा में सरकार द्वारा अगले पांच साल में 100 लाख करोड़ खर्च करने का ऐलान एक अच्छा कदम है. हालांकि इसकी बीरीकियों पर अभी काम होना बाकी है. सरकार को इस फंड का ज्यादा हिस्सा ग्रामीण और अर्ध्द शहरी क्षेत्रों पर खर्च करना चाहिए.    

पिछले कुछ सालों में सरकार ने एलपीजी कनेक्शन मुहैया कराने (उज्जवला योजना), बिजली दिलाने (सौभाग्य योजना), स्वच्छ भारत अभियान शुरू कर अच्छी पहल की है. इन योजनाओं ने समाज में खासतौर पर महिलाओं को सशक्त करने में अहम भूमिका निभाई है. 2019 के बजट में देश के हर परिवार को 2022 तक बिजली और रसोई गैस सुविधा मुहैया कराने का लक्ष्य है. इस दावे पर काम की रफ्तार का अगले दो सालों में आंकलन करने की जरूरत है.  

ग्रामीण क्षेत्र में विकास के लिये सूचना तकनीक भी कारगर हथियार साबित हो सकता है. भारत सरकार द्वारा शुरू किये गये डिजिटल इंडिया कार्यक्रम से देश के सभी नागरिकों को इंटरनेट से जोड़ने और देश को डिजिटल दुनिया में एक ताकत बनाने का लक्ष्य है. इस कार्यक्रम के तहत देश के ग्रामीण इलाकों को हाई स्पीड इंटरनेट से जोड़ने का लक्ष्य है. मोबाइल सेवाओं में देश ने काफी रफ्तार पकड़ी है, लेकिन इंटरनेट नेटवर्क के फैलाव में अभी हमारी रफ्तार नाकाफी है.  

आर्थिक विकास के मसले पर, प्रधानमंत्री जन धन योजना ने ग्रामीण क्षेत्रों को जोड़ने का काम किया है. इस योजना के तहत, सितंबर 2019 तक 37.1 करोड़ बैंक खाते खोले जा चुके हैं, और इनमें करीब 1.02 लाख करोड़ रुपये भी जमा हैं. 

इनमें से 59% खाते अर्ध शहरी इलाकों में हैं. लेकिन अगर खातों के इस्तेमाल की बात करें तो, यह पिछले दो सालों में काफी धीमी गति से हो रही है. आर्थिक समावेश सलाहकार समिति के अंतर्गत नेशनल स्ट्रेटजी फॉर फाइनेंशियल इंक्लूजन (एनएसएफआई) 2019-2024  की रूप रेखा तैयार की गई है. उम्मीद है कि इससे भी ग्रामीण क्षेत्र में और आर्थिक समावेश हो सकेगा.

तीसरी चुनौती है स्वस्थ और सतत भविष्य. संयुक्त राष्ट्र के सतत लक्ष्यों के मद्देनजर यह और जरूरी हो गया है. शहरी क्षेत्रों में प्रदूषण और अस्वस्थ आबादी के चलते यह समस्या यहां परेशानी का बड़ा सबब है. सर्वे बताते हैं कि भारत में होने वाली मौतों में से 63% के लिये संक्रामक बीमारियां जिम्मेदार हैं. 

सरकार प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना पर ध्यान दे रही है, जिसके तहत 10 करोड़ परिवारों को 5 लाख रुपये का बीमा दिया जाता है.  कुछ अनुमानों के मुताबिक इस योजना के लिये हमे एक लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी. अनुमानित खर्चों की तुलना में इस योजना पर हो रहा खर्च न के बराबर है. ये तय है कि बेहतर स्वास्थ नेटवर्क में स्वास्थ बीमा एक महत्वपूर्ण किरदार है, लेकिन सभी के लिये स्वास्थ सेवा हमारा लक्ष्य होना चाहिए. 

मौजूदा वायु और पानी के प्रदूषण, वेस्ट मैनेजमेंट और शहरी भीड़ पर ध्यान देने की जरूरत है. हाल के दिनों में सरकार ने प्रदूषण के स्तरों को कम करने और मौसम के बदलावों की चुनौतियों से निपटने के लिये कदम उठाने शुरू किये हैं. 

सरकार के इन्हीं कदमों में से एक है नमामी गंगे परियोजना. देश में पर्यावरण संरक्षण के नियम अन्य किसी भी देश से ज्यादा सख्त हैं, लेकिन इन्हें लागू करने में ढिलाई के कारण ये कारगर साबित नहीं हो रहे हैं. 

इसके नतीजतन, वायु और जल के साथ, पर्यावरण को हर तरह से नुसान पहुंच रहा है. पंजाब और हरियाणा में हर साल पराली जलाने से दिल्ली की हवा जहरीली हो जाती है. दिल्ली के हवा प्रदूषण में निर्माण कार्यों और गाड़ियों के धुएं का भी बड़ा हिस्सा है. चीन के बीजिंग और शंघाई शहरों से, वायु प्रदूषण और वेस्ट मैनेजमंट के बारे में सीखा जा सकता है.

पर्यावरण से जुड़ी योजनाओं के फेल होने के पीछे अन्य कारणों में से एक है, संस्थागत नाकामयबी और उदासीनता. प्रदूषण की समस्या के लिये आम लोगों का, 'यह मेरी समस्या नहीं है.' नजरिया भी दोषी है. पर्यावरण के बचाव के लिये, संस्थाओं को नियमों का कड़ाई से पालन करवाना होगा. साथ ही लोगों को भी एकजुट होकर अपने स्तर पर पर्यावरण को बचाने के लिये काम करना होगा.

पिछले एक साल में आर्थिक विकास और खपत विकास में कमी आई है. डब्ल्यूईएफ की रिपोर्ट में जिन तीन चुनौतियों का जिक्र किया गया है, उन पर काम की रफ्तार मिली जुली रही है. रोजगार की स्थिति खराब हुई है और नये रोजगारों के अवसरों में कमी आई है. 

वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी मिलने से, बिजली सुविधा बेहतर होने से, खुले में शौच आदि में कमी आने से हालात कुछ बेहतर जरूर हुए हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में भी ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन संक्रामक बीमारियां बढ़ रही हैं, और इन पर ध्यान देने की जरूरत है. पर्यावरण प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन इसके साथ ही लोगों में जागरूकता भी बढ़ रही है. 

भारत एक बड़ा देश है, और इसकी समस्याएं भी राज्य दर राज्य बदलती रहती हैं. इसलिये, केंद्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों के स्तर पर भी इन तीन समस्याओं से निपटने के लिये काम करने की जरूरत है. इन तीन चुनौतियों के साथ कृषि विकास को भी एक चुनौती की तरह देखना चाहिए, क्योंकि कृषि से होने वाली आय खपत को बढ़ाने में जरूरी है.

(लेखक- एस महेन्द्र देव)

वाइस चांसलर, इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (IGIDR)


Conclusion:
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.