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विशेष : जानें कैसे हैं भारत और तुर्की के बीच संबंध

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Published : Aug 27, 2020, 2:26 PM IST

अक्टूबर 2019 में मोदी ने तुर्की की अपनी यात्रा रद्द कर दी. तुर्की और पाकिस्तान के बीच बढ़ते रक्षा संबंधों के मद्देनजर भारत ने तुर्की के रक्षा निर्यात में कटौती की और तुर्की से आयात भी कम कर दिया. आइए जानें कैसे हैं भारत-तुर्की के बीच के संबंध. पढ़ें हमारी यह खास पेशकश...

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जानें कैसे हैं भारत और तुर्की के बीच संबंध

हैदराबाद : तुर्की ने 11 जून 2020 को एक वीडियो जारी किया, जिसमें भारत को जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर टारगेट किया गया था. वहीं तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कश्मीर संघर्ष पर पर्याप्त ध्यान देने में विफल रहा है. जाहिर है कि तुर्की समय-समय पर जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को हवा देने की कोशिश करता रहा है.

तुर्की के भारत विरोधी बयान
जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद तुर्की के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर चिंता जताते हुए कहा था कि भारत सरकार का यह फैसला मौजूदा तनाव को और बढ़ा सकता है.

24 सितंबर, 2019 को तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कश्मीर संघर्ष पर पर्याप्त ध्यान देने में विफल रहा है. यह संघर्ष पिछले 72 वर्षों से समाधान की प्रतीक्षा कर रहा है.

फरवरी 2020 में जब तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन ने पाकिस्तान का दौरा किया तो उन्होंने कश्मीर पर फिर से बात की.

तुर्की द्वारा पाकिस्तान के समर्थन की वजह
कश्मीर पर पाकिस्तान समर्थन देकर तुर्की सऊदी अरब का मुकाबला करने की कोशिश में है. सऊदी अरब और तुर्की मुस्लिम देशों में प्रतिद्वंद्वी हैं.

पाकिस्तान को समर्थन देकर तुर्की को उम्मीद है कि इस्लामाबाद अंकारा के साथ-साथ सऊदी अरब से दूर चला जाएगा.

सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमिरात (यूएई) ने कश्मीर पर भारत की स्थिति का समर्थन किया था, इस कारण तुर्की कश्मीर की आड़ में पाकिस्तान को लुभाने की कोशिश कर रहा है.

तुर्की भी उन कुछ देशों (मलेशिया और चीन) में से एक है जो वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) में पाकिस्तान का समर्थन करते हैं.

भारत की प्रतिक्रियाएं
एर्दोआन ने जब यूएनजीए में कश्मीर का मुद्दा उठाया तब भारत ने भी तुर्की को करारा जवाब दिया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साइप्रस के राष्ट्रपति और आर्मेनिया और ग्रीस के प्रधानमंत्रियों के साथ बैठक कर तुर्की को जवाब दिया. साइप्रस, आर्मेनिया और ग्रीस का तुर्की के साथ विभिन्न विवाद हैं.

अक्टूबर 2019 में मोदी ने तुर्की की अपनी यात्रा रद्द कर दी. तुर्की और पाकिस्तान के बीच बढ़ते रक्षा संबंधों के मद्देनजर भारत ने तुर्की के रक्षा निर्यात में कटौती की और तुर्की से आयात भी कम कर दिया.

भारत ने आर्मेनिया के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाया. भारत ने आर्मेनिया के साथ 40 मिलियन डॉलर का रक्षा सौदा किया. सौदे के अनुसार, भारत चार हथियार खोजने वाला राडार आर्मेनिया को आपूर्ति करेगा.

तुर्कों द्वारा नरसंहार का इतिहास
अर्मेनियाई नरसंहार में ऑटोमन साम्राज्य के तुर्कों द्वारा अर्मेनियाई लोगों की व्यवस्थित हत्या और निर्वासन शामिल था. वर्ष 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की सरकार के नेताओं ने अर्मेनियाई लोगों को निष्कासित करने और नरसंहार करने की योजना तैयार की.

वर्ष 1920 के दशक के प्रारंभ में जब नरसंहार और निर्वासन समाप्त हो गए तब तक छह लाख आर्मेनियाई लोगों की मौत हो चुकी थी और 15 लाख लोगों को देश से निकाल दिया गया था.

कुर्दों के खिलाफ नरसंहार
कुर्द तुर्की में सबसे बड़ा गैर-तुर्की जातीय समूह है. वह तुर्की की आबादी का 20 प्रतिशत तक हैं. पीढ़ियों तक कुर्द को तुर्की अधिकारियों के हाथों कठोर अत्याचार झेलना पड़ा.

वर्ष 1920 और 1930 के दशक में विद्रोह के जवाब में कई कुर्दों को हटा दिया गया था, कुर्द नामों और वेशभूषा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.

कुर्द भाषा का उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया और यहां तक ​​कि कुर्द जाति के अस्तित्व को ही नकार दिया गया था. कुर्द जाति के लोगों को माउंटेन तुर्क से नामित किया गया.

वर्ष 1923 में तुर्की गणराज्य की स्थापना के बाद से नरसंहार समय-समय पर कुर्दों के खिलाफ होते रहे हैं.

जीलान नरसंहार :
वर्ष 1930 में जीलान नरसंहार में लगभग 15 हजार पुरुषों, महिलाओं और शिशुओं को मार डाला गया. लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और उनके शव को नदी में बहा दिया गया.

दर्सीम नरसंहार :
वर्ष 1938 में दर्सीम नरसंहार में पूर्वी तुर्की में तुर्कबंदी कार्यक्रम के तहत 70 हजार लोगों को मार डाला गया.

एलेवियों और कुर्दों का नरसंहार :
वर्ष 1937-38 में तुर्क ने लगभग 10 हजार से 15 हजार एलेवियों और कुर्दों का नरसंहार किया.

वर्ष 1970 के दशक के दौरान अलगाववादी आंदोलन कुर्द-तुर्की संघर्ष में शामिल हो गया. वर्ष 1984 से 1999 तक तुर्की सेना पीकेके के साथ संघर्ष में उलझी हुई थी.

वर्ष 1990 के दशक के मध्य तक तीन हजार से अधिक गांवों को मानचित्र से मिटा दिया गया था और आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 3,78,335 कुर्द ग्रामीणों को विस्थापित कर उन्हें बेघर छोड़ दिया गया.

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