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जमीन के खराब होने के कारण देश में खाद्य सुरक्षा को लेकर खतरा

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Published : Jan 6, 2020, 11:02 PM IST

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भारत में खाद्य सुरक्षा

भारत में लगातार जमीन का स्तर गिरने की समस्या बढ़ती जा रही है. देश की कुल जमीन का 30% हिस्सा (क़रीब 96 मिलियन हेक्टेयर) पेड़ों की कटाई, ज्यादा खेती, मिट्टी के कटाव आदि के कारण खराब हो चुका है. जमीन का ऐसे खराब होना, फसलों की उपज पर असर डाल, देश की जीडीपी का 2.5% सालाना नुकसान तो कर ही रहा है बल्कि, देश में पर्यावरण में हो रहे बदलावों में भी तेजी ला रहा है, जो और जमीन को खराब कर रहा है.

पर्यावरण में हो रहे बदलावों को रोकने के लिये जंगल सबसे कारगर हथियार हैं. लेकिन, पिछले 18 सालों में भारत ने अपने जंगलों में से 1.6 मिलियन हेक्टेयर खो दिया है. पिछले पांच सालों में सरकार ने खुद 10 मिलियन पेड़ों के कटने को मंजूरी दी है. जून 2014 से लेकर मई 2018 के बीच, नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने संरक्षित क्षेत्रों और उसके सेंसेटिव क्षेत्रों में, 500 से ज्यादा परियोजनाओं की इजाजत दी है. इसकी तुलना में, यूपीए सरकार ने 2009-2013 के बीच ऐसी 260 परियोजनाओं को मंजूरी दी थी.

अगर ऐसे ही हालात रहे, तो आने वाले समय में भारत के 80% किसान जो गरीब और पिछड़े वर्ग के किसानों में गिने जाते हैं, उनके लिये हालात काफी परेशान करने वाले हो जाएंगे. भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के हिसाब से, भारत जो, दुनिया में दूध, जूट और दालों का सबसे बड़ा उत्पादक है, साथ ही, चावल, गेहूं, गन्ने, मूंगफली, सब्जियों, फलों और सूत का विश्व में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, खाद्य सुरक्षा को लेकर असुरक्षित हो सकता है. मिट्टी के कटाव और पर्यावरण में बदलाव का असर, पशुधन की उत्पाद क्षमता पर भी पड़ेगा. यह कहना था, पर्यावरण में बदलावों का अध्ययन करने के लिये संयुक्त राष्ट्र की इंटर गवर्नमेंटल पैनल का.

द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (टेरी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जंगलों की कटाई और उसके असर के कारण, भारत को सालाना अपनी जीडीपी के 1.4% के बराबर का नुकसान होता है. भारत और उसके जैसे कई देश, पर्यावरण में हो रहे बदलावों का खामियाजा भुगत रहे हैं. इन देशों पर अपनी जमीन खोने की क्षमता खत्म होने के कारण कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता के खत्म होने का खतरा है. इसकी वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने वाली गैसों का सृजन और बढ़ेगा. आवास और जमीन के खत्म होने के कारण पहले से ही करीब 1 मिलियन जीव जंतु विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है.

जंगलों के संरक्षण में आदिवासी और अन्य जन जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका को भारत सरकार ने समझ लिया था. पर्यावरण और जंगल संरक्षण की नीतियां बनाने में इन लोगों की साझेदारी कारगर साबित होगी. इन नीतियों का लक्ष्य मिट्टी की कटाई को रोकना, जंगलों की कटाई को रोकना है, जो पर्यावरण के बदलावों पर भी रोक लगाने में मददगार होंगे. 2006 में पारित, जंगल अधिकार अधिनियम इस दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है.

इस अधिनियम के तहत जंगलों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य लोगों का जंगल की जमीन (जिसपर वो सालों से रह रहे हैं, उस पर खेती कर रहे हैं और जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं) पर मालिकाना हक माना गया है. लेकिन इस अधिनियम को लागू कराने की प्रक्रिया काफी धीमी है.

अप्रैल 30, 2019 तक सरकार, इस अधिनियम के तहत, 12.93 मिलियन हेक्टेयर जमीन के मामलों का ही निपटारा कर सकी है, जबकी अनुमान है कि इस अधिनियम के तहत आने वाली कुल भूमि 40 मिलियन हेक्टेयर है. इसके साथ ही, इस अधिनियम के तहत 2 मिलियन परिवारों की अपील खारिज हो चुकी है और अब उन पर जंगलों से निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है. मौजूदा समय में 21 राज्य सरकारें इन खारिज अर्जियों पर पुनर्विचार कर रही हैं.

टेरी की रिपोर्ट कहती है कि, खारेपन और हवा और पानी की कटाई के कारण खत्म हुई जमीन से देश को 72,000 करोड़ का नुकसान हो चुका है. ये 2018-19 के 58,000 करोड़ के सालाना कृषि बजट से भी ज़्यादा है. भारत के लिहाज से यह समस्या बड़ी है क्योंकि, देश पहले ही अपनी जनसंख्या को भरपेट खाना खिलाने के लक्ष्य को हासिल करने में जूझ रहा है. 2018 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में, 119 देशों में भारत का 103वां स्थान था. यह 2017 में भारत की रैंकिंग से तीन स्थान और नीचे था.

भारत के वेटलैंड करीब 152,600 वर्ग किमी में फैले हैं, जो देश के कुल भू क्षेत्र का 5% है और असम का तीन गुना है. लेकिन, जंगलों की कटाई, पर्यावरण में बदलाव, पानी की बर्बादी, शहरी आबादी के फैलाव के कारण इन वेटलैंड पर संकट मंडराने लगा है. हर साल देश के वेटलैंड में से 2-3% कम होता जा रहा है. पिछले तीन दशकों में, देश के पश्चिमी तट के मैंग्रोव के जंगलों में से 40% की जगह खेतों और व्यवसायिक जमीन ने ले ली है.

पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से वेटलैंड बहुत ज़रूरी होते हैं, क्योंकि इनके पास बड़ी संख्या में कार्बन सोख लेने की क्षमता होती है. भारत ने पिछले दशकों में खोए हुए वेटलैंड को वापस करने की तरफ कुछ खास कदम नहीं उठाए हैं. कोस्टल रेग्यूलेट्री जोन नोटिफिकेशन, 2018, जिसके तहत देश की कमजोर ईकोलोजी को संरक्षण मिलता था, ढिलाई दिये जाने के कारण ज्यादा कारगर नहीं रह गई है. अब यह बड़े पैमाने पर रियल एस्टेट के लिये खुल गया है. अगर कोस्टल रेग्यूलेट्री जोन नोटिफिकेशन, 2018 में अंकित प्रावधानों का कड़ाई से पालन हो तो, देश के तटीय क्षेत्रों के संरक्षण में काफी मदद मिलेगी.

ग्लोबल वॉर्मिंग भारत के लिए एक और बड़ी चुनौती है. देश का 69% हिस्सा पहले से ही सूखा है, इसमें, बंजर, अर्द्ध बंजर, शुष्क इलाके शामिल हैं. इन इलाकों में रहने वाले लोग पानी की किल्लत से परेशान रहने के साथ ही, सूखे के खतरे में भी रहते हैं. यह हालात तब भी रहेंगे, जब 2050 तक विश्व का तापमान 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड तक ही रहेगा. देश की आबादी का क़रीब आधा, 600 मिलियन, पानी की तीव्र किल्लत का सामना कर रहा है. इस कारण से भारत का पानी की किल्लत झेलने वाले देशों में 17वां स्थान है.

दिल्ली घोषणा:
हाल ही में दिल्ली में, कॉन्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज़ (सीओपी-14) टू द यूएन कंन्वेनशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का सम्मेलन हुआ था. इसमें, सभी देशों से, दुनिया के देशों में सद्भाव और भरोसा बढ़ाने के लिये, सीमा क्षेत्रों पर खराब हो चुकी भूमि को दोबारा उपजाऊ बनाने के लिये, पीस फॉरेस्ट डेक्लरेशन अपनाने का आह्वान किया गया था. सदस्य देशों ने, इसके साथ, यूएन के 2030 तक भूमि खोने को शून्य करने के सतत विकास लक्ष्य को भी अपनाने की बात मानी.

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये सभी सदस्य देशों को तकनीकी मदद और साझेदारी के लिए, एक तकनीकी सपोर्ट संस्थान के गठन का प्रस्ताव प्रधानमंत्री मोदी ने रखा. भारत ने यूएनसीसीडी के नेतृत्व से, लैंड डीग्रेडेशन न्यूट्रेलिटी पर आधारित एक ग्लोबल वॉटर एक्शन एजेंडा बनाने की भी अपील की. भारत ने, 2030 तक, देश में लैंड डीग्रेडेशन पर काबू पाने की भी बात कही और इसके साथ ही, 96.4 मिलियन डीग्रेडेड लैंड में से 30 मिलियन हेक्टेयर को वापस उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भी रखा.

(नीरज कुमार)

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जमीन के खराब होने के कारण देश में खाद्य सुरक्षा को लेकर खतरा



भारत में लगातार जमीन का स्तर गिरने की समस्या बढ़ती जा रही है. देश की कुल जमीन का 30% हिस्सा (क़रीब 96 मिलियन हेक्टेयर) पेड़ों की कटाई, ज्यादा खेती, मिट्टी के कटाव आदि के कारण खराब हो चुका है. जमीन का ऐसे खराब होना, फसलों की उपज पर असर डाल, देश की जीडीपी का 2.5% सालाना नुकसान तो कर ही रहा है बल्कि, देश में पर्यावरण में हो रहे बदलावों में भी तेज़ी ला रहा है, जो और जमीन को खराब कर रहा है.  



पर्यावरण में हो रहे बदलावों को रोकने के लिये जंगल सबसे कारगर हथियार हैं. लेकिन,  पिछले 18 सालों में भारत ने अपने जंगलों में से 1.6 मिलियन हेक्टेयर खो दिया है. पिछले पांच सालों में सरकार ने खुद 10 मिलियन पेड़ों के कटने को मंजूरी दी है. जून 2014 से लेकर मई 2018 के बीच, नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड ने संरक्षित क्षेत्रों और उसके सेंसेटिव क्षेत्रों में, 500 से ज्यादा परियोजनाओं की इजाजत दी है. इसकी तुलना में, यूपीए सरकार ने 2009-2013 के बीच ऐसी 260 परियोजनाओं को मंजूरी दी थी.      



अगर ऐसे ही हालात रहे, तो आने वाले समय में भारत के 80% किसान जो गरीब और पिछड़े वर्ग के किसानों में गिने जाते हैं, उनके लिये हालात काफी परेशान करने वाले हो जाएंगे. भारत एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के हिसाब से,  भारत जो, दुनिया में दूध, जूट और दालों का सबसे बड़ा उत्पादक है, साथ ही, चावल, गेहूं, गन्ने, मूंगफली, सब्जियों, फलों और सूत का विश्व में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, खाद्य सुरक्षा को लेकर असुरक्षित हो सकता है. मिट्टी के कटाव और पर्यावरण में बदलाव का असर,  पशुधन की उत्पाद क्षमता पर भी पड़ेगा. यह कहना था, पर्यावरण में बदलावों का अध्ययन करने के लिये संयुक्त राष्ट्र की इंटर गवर्नमेंटल पैनल का. 



द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (टेरी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जंगलों की कटाई और उसके असर के कारण, भारत को सालाना अपनी जीडीपी के 1.4% के बराबर का नुकसान होता है. भारत और उसके जैसे कई देश, पर्यावरण में हो रहे बदलावों का खामियाजा भुगत रहे हैं.  इन देशों पर अपनी जमीन खोने की क्षमता खत्म होने के कारण कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता के खत्म होने का खतरा है. इसकी वजह से ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने वाली गैसों का सृजन और बढ़ेगा. आवास और जमीन के खत्म होने के कारण पहले से ही करीब 1 मिलियन जीव जंतु विलुप्त होने की कगार पर हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा पर भी खतरा मंडरा रहा है.      

जंगलों के संरक्षण में आदिवासी और अन्य जन जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका को भारत सरकार ने समझ लिया था. पर्यावरण और जंगल संरक्षण की नीतियां बनाने में इन लोगों की साझेदारी कारगर साबित होगी. इन नीतियों का लक्ष्य मिट्टी की कटाई को रोकना, जंगलों की कटाई को रोकना है, जो पर्यावरण के बदलावों पर भी रोक लगाने में मददगार होंगे. 2006 में पारित, जंगल अधिकार अधिनियम इस दिशा में बड़ा कदम साबित हो सकता है.

इस अधिनियम के तहत जंगलों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य लोगों का जंगल की जमीन (जिसपर वो सालों से रह रहे हैं, उस पर खेती कर रहे हैं और जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं) पर मालिकाना हक माना गया है. लेकिन इस अधिनियम को लागू कराने की प्रक्रिया काफी धीमी है. 

अप्रैल 30, 2019 तक सरकार, इस अधिनियम के तहत, 12.93 मिलियन हेक्टेयर जमीन के मामलों का ही निपटारा कर सकी है, जबकी अनुमान है कि इस अधिनियम के तहत आने वाली कुल भूमि 40 मिलियन हेक्टेयर है. इसके साथ ही, इस अधिनियम के तहत 2 मिलियन परिवारों की अपील खारिज हो चुकी है और अब उन पर जंगलों से निकाले जाने का खतरा मंडरा रहा है. मौजूदा समय में 21 राज्य सरकारें इन खारिज अर्जियों पर पुनर्विचार कर रही हैं.      

टेरी की रिपोर्ट कहती है कि,  खारेपन और हवा और पानी की कटाई के कारण खत्म हुई जमीन से देश को 72,000 करोड़ का नुकसान हो चुका है. ये 2018-19 के 58,000 करोड़ के सालाना कृषि बजट से भी ज़्यादा है. भारत के लिहाज से यह समस्या बड़ी है क्योंकि, देश पहले ही अपनी जनसंख्या को भरपेट खाना खिलाने के लक्ष्य को हासिल करने में जूझ रहा है.  2018 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में, 119 देशों में भारत का 103वां स्थान था. यह 2017 में भारत की रैंकिंग से तीन स्थान और नीचे था. 



भारत के वेटलैंड करीब 152,600 वर्ग किमी में फैले हैं, जो देश के कुल भू क्षेत्र का 5% है और असम का तीन गुना है. लेकिन, जंगलों की कटाई, पर्यावरण में बदलाव, पानी की बर्बादी, शहरी आबादी के फैलाव के कारण इन वेटलैंड पर संकट मंडराने लगा है. हर साल देश के वेटलैंड में से 2-3% कम होता जा रहा है. पिछले तीन दशकों में, देश के पश्चिमी तट के मैंग्रोव के जंगलों में से 40% की जगह खेतों और व्यवसायिक जमीन ने ले ली है. 

पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से वेटलैंड बहुत ज़रूरी होते हैं, क्योंकि इनके पास बड़ी संख्या में कार्बन सोख लेने की क्षमता होती है. भारत ने पिछले दशकों में खोए हुए वेटलैंड को वापस करने की तरफ कुछ खास कदम नहीं उठाए हैं. कोस्टल रेग्यूलेट्री जोन नोटिफिकेशन, 2018, जिसके तहत देश की कमजोर ईकोलोजी को संरक्षण मिलता था, ढिलाई दिये जाने के कारण ज्यादा कारगर नहीं रह गई है. अब यह बड़े पैमाने पर रियल एस्टेट के लिये खुल गया है. अगर कोस्टल रेग्यूलेट्री जोन नोटिफिकेशन, 2018 में अंकित प्रावधानों का कड़ाई से पालन हो तो, देश के तटीय क्षेत्रों के संरक्षण में काफी मदद मिलेगी.   

ग्लोबल वॉर्मिंग भारत के लिए एक और बड़ी चुनौती है. देश का 69% हिस्सा पहले से ही सूखा है, इसमें, बंजर, अर्द्ध बंजर, शुष्क इलाके शामिल हैं. इन इलाकों में रहने वाले लोग पानी की किल्लत से परेशान रहने के साथ ही, सूखे के खतरे में भी रहते हैं. यह हालात तब भी रहेंगे, जब 2050 तक विश्व का तापमान 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड तक ही रहेगा. देश की आबादी का क़रीब आधा, 600 मिलियन, पानी की तीव्र किल्लत का सामना कर रहा है. इस कारण से भारत का पानी की क़िल्लत झेलने वाले देशों में 17वां स्थान है.  



दिल्ली घोषणा: 

हाल ही में दिल्ली में, कॉन्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज़ (सीओपी-14) टू द यूएन कंन्वेनशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) का सम्मेलन हुआ था. इसमें, सभी देशों से, दुनिया के देशों में सद्भाव और भरोसा बढ़ाने के लिये, सीमा क्षेत्रों पर खराब हो चुकी भूमि को दोबारा उपजाऊ बनाने के लिये, पीस फॉरेस्ट डेक्लरेशन अपनाने का आह्वान किया गया था.  सदस्य देशों ने, इसके साथ, यूएन के 2030 तक भूमि खोने को शून्य करने के सतत विकास लक्ष्य को भी अपनाने की बात मानी. 

इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये सभी सदस्य देशों को तकनीकी मदद और साझेदारी के लिए, एक तकनीकी सपोर्ट संस्थान के गठन का प्रस्ताव प्रधानमंत्री मोदी ने रखा. भारत ने यूएनसीसीडी के नेतृत्व से, लैंड डीग्रेडेशन न्यूट्रेलिटी पर आधारित एक ग्लोबल वॉटर एक्शन एजेंडा बनाने की भी अपील की. भारत ने, 2030 तक, देश में लैंड डीग्रेडेशन पर काबू पाने की भी बात कही और इसके साथ ही, 96.4 मिलियन डीग्रेडेड लैंड में से 30 मिलियन हेक्टेयर को वापस उपजाऊ बनाने का लक्ष्य भी रखा. 

(नीरज कुमार)


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