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भारत को नेपाल के प्रति अपनी कूटनीति पर दोबारा मंथन की जरूरत

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Published : Jul 4, 2020, 5:55 PM IST

Updated : Jul 5, 2020, 6:24 PM IST

नेपाल का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या गुल खिलाएगा, इस बाबत पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. फिलहाल भारत के साथ नेपाल के रिश्तों में जो कड़वाहट दिखाई दे रही है, यह कोई एक दिन की कहानी नहीं है. इसमें कोई शक नहीं कि नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली सत्तारूढ़ नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर अकेला पड़ जाने की कमी को विपक्षी नेताओं से अच्छे रिश्ते बना कर, चीन की सहायता मांग कर और भारत विरोधी राष्ट्रीयता को भड़का कर पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि भारत ने भी पिछले कई वर्षों से दिखाई देने वाला विकास का कोई ऐसा काम नेपाल में नहीं किया है, जो वहां की युवा पीढ़ी को आकर्षित कर सके. हालिया वर्षों में भारत की कुछ कूटनीतिक गलतियों ने नेपाल की आम जनता को भारत से विमुख कर दिया है. इस क्रम में भारत से नेपाल के अलगाव का चीन ने भी पूरा लाभ उठाया है. भारत व नेपाल के बीच मौजूदा रिश्तों को लेकर जानें, पूर्व राजदूत एस.डी. मुनी के विचार...

भारत-नेपाल संबंध
भारत-नेपाल संबंध

नेपाल स्पष्ट रूप से भारत से दूर होता जा रहा है. नेपाली प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने भारत पर आरोप लगाया है कि वह उन्हें हटाने की कोशिश कर रहा है क्योंकि उन्होंने नेपाल का नया नक्शा जारी किया है, जिसे संवैधानिक संशोधन के जरिए मंजूर कर लिया गया है. इस संशोधित नक्शे में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की 400 वर्ग किलोमीटर जमीन को नेपाल में दिखाया गया है. प्रधानमंत्री ओली को उन्ही के वरिष्ठ सहयोगियों- पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’, माधव कुमार नेपाल और झाल नाथ खनाल ने आड़े हाथों लिया है. ये तीनों ही पूर्व में नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और सत्तारूढ़ दल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थायी समिति के सदस्य हैं. इन तीनों नेताओं ने ओली को भारत के खिलाफ अपने आरोप के पुख्ता सबूत पेश करने को कहा है और ऐसा न करने की स्थिति में प्रधानमंत्री और पार्टी के सह अध्यक्ष के पदों से इस्तीफा देने को कहा है. यह इस बात को इंगित करता है कि सत्तारूढ़ दल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर सत्ता के लिए संघर्ष और नेपाल का भारत समेत अन्य देशों के साथ सम्बन्ध के बीच सीधा रिश्ता है.

ओली की समस्या के मूल में अपने वरिष्ठ साहयोगियों से अधिकारों को अपने हाथ में लेना है. पार्टी के सह अध्यक्ष प्रचंड का ओली पर आरोप है कि वह महत्वपूर्ण निर्णयों के बारे में उन्हें विश्वास में नहीं लेते. पिछले महीने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ नेपाल की पार्टी के बीच जो संवाद किया गया, उसमे माधव नेपाल को विश्वास में नहीं लिया गया जब कि पार्टी के विदेशी संबंधों के बारे में जिम्मेदारी उनकी है. ओली परंपरा के खिलाफ दो पदों पर कायम हैं और सीधे स्वयं या परोक्ष रूप से उन्होंने अपने विश्वस्त लोगों के माध्यम से प्रशासनिक और वित्तीय सत्ता को केंद्रित कर रखा है.

नेपाली पीएम शासन चलाने में भी विफल रहे हैं, चाहे वह कोविड-19 संकट से निबटने का मामला हो, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात हो या विकास के वादों को पूरा करने का मामला हो. इस कारण सरकार और पार्टी की जनता के बीच बदनामी हो रही है और भविष में पार्टी के जन समर्थन में कमी आने का खतरा भी बढ़ गया है. अमेरिका द्वारा नेपाल को एम.सी.सी. कार्यक्रम के तहत 500 मिलियन डॉलर सहायता का समर्थन करने के कारण भी ओली का विरोध किया जा रहा है.

पार्टी के भीतर अकेला पड़ जाने की कमी को ओली विपक्षी नेताओं से अच्छे रिश्ते बना कर, चीन की सहायता मांग कर और भारत विरोधी राष्ट्रीयता को भड़का कर पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने ऐसा 2015 में नए संविधान का मसविदा बनाते समय, 2017 में संसद के चुनाव के समय और अब मानचित्र के मुद्दे पर किया. ऐसी खबर है कि उन्हें विपक्षी नेपाली कांग्रेस अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा का छुपा समर्थन प्राप्त है. मानचित्र का मामला और भारतीय इलाके पर दावा उठाकर उन्होंने नेपाली राष्ट्रवाद को उछाला ताकि वह राष्ट्रवादी नायक के रूप में स्वयं को प्रचारित कर सकें और देश के भीतर और बाहर के अपने आलोचकों को चुप करा सकें.

नेपाली राष्ट्रवाद को अपने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग करने में ओली का तीन परिबलों ने साथ दिया. पहली बात यह स्वीकार करना होगा कि आज एक नया नेपाल है, जिसमें युवा वर्ग, आकांक्षी, आत्मविश्वास से भरपूर और अपनी पहचान के प्रति सजग है. नेपाल की नई पीढ़ी, जो जनसंख्या की 65 प्रतिशत हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्था की वजह से सशक्त है. इंटरनेट और बाहर नौकरी करने की वजह से बाहरी विस्तृत दुनिया के बारे में सजग है. पढ़ी लिखी, कर्मशील और आत्मविश्वास से पूर्ण है. उसे भारत के साथ सांस्कृतिक और सभ्यता के नाम से या रोटी-बेटी को लेकर विशेष सम्बन्ध की बात से प्रभावित नहीं किया जा सकता. यदि वे भारत की ओर देखते भी हैं तो इसलिए कि विकास और आरामदेह जीवन जीने में उनको सहायता मिल सके. लेकिन इस मामले में भी भारत उनकी नजर में गिर चुका है.

और अब दूसरी बात. पिछले कई वर्षों से भारत ने दिखाई देने वाला विकास का कोई ऐसा काम नेपाल में नहीं किया है, जो वहां की युवा पीढ़ी को आकर्षित कर सके. भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता है, जो नेपाल के अंदरूनी मामलों का सूक्ष्म प्रबंधन जटिल, उदासीन, अभिमानी और जबर्दस्त कूटनीति के माध्यम से करता है. सितंबर 2015 में नेपाल की संवैधानिक प्रक्रिया में भारत के भौंडे़ हस्तक्षेप को हालिया उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है, जिसके कारण पांच महीने के लिए आर्थिक नाकाबंदी हुई और जिसने नेपाल में सामान्य जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया था. भारत की ऐसी कूटनीतिक गलतियों ने नेपाल की आम जनता को भारत से विमुख कर दिया. भारत ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी और प्रधानमंत्री ओली को भी 2015 से पसंद नहीं किया. नेपाल से सख्त प्रतिक्रिया मिलने पर भारत ने नेपाल की सरकार के प्रति नर्म रुख अपनाने की कोशिश की. उसने रोड और रेलवे कनेक्शन, तेल पाइप लाइन समेत कई विलंबित योजनाओं में तेजी लाने के प्रयास किए, लेकिन इससे सरकार पर या भारत विरोधी नेपाली राष्ट्रवाद पर कोई खास असर नहीं पड़ा.

भारत से नेपाल के अलगाव का चीन ने पूरा लाभ उठाया है. उसने चीनी बदरगाह के जरिए नेपाल को वैकल्पिक व्यापार मार्ग उपलब्ध कराया है और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव योजना के जरिए नेपाल की भौतिक संरचना योजनाओं में कई बिलियन डॉलर का निवेश किया है. अपने धन-बल पर चीन ने नेपाल में राजनीतिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा दिया है. सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी को ध्यान में रख कर नेपाल की समस्त राजनीतिक परिधि में प्रभावशाली व्यक्तियों को प्रलोभन देकर उसने भ्रष्टाचार बढाने में मदद की है. नेपाली मीडिया ने नेपाल में चीन के राजदूत को हालिया महीनों में कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनके आपसी मतभेदों को दूर करने और ओली सरकार की स्थिरता निश्चित करने का प्रयास करते देखा है. चीन हालांकि नेपाल के कालापानी पर दावे और नए मानचित्र के मुद्दे पर खुला समर्थन इसलिए नहीं दे सकता कि उसने 1954 और 2015 में लिपुलेख को भारत और चीन के बीच व्यापारी और सांस्कृतिक व्यवहार के लिए संपर्क बिंदु मान लिया था. लेकिन नेपाल का दावा चीन के हितों के लिए लाभदायक है और भारत-नेपाल के बीच मतभेद चीन को नेपाल में आर्थिक और सामरिक पकड़ बनाने में सहायक है.

नेपाल के साथ भारत के मजबूत सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक संबंध हैं. इसके बावजूद भारत के लिए नेपाल पर चीन का प्रभाव रोक पाना बहुत मुश्किल होगा. भारत को नेपाल के लिए अपने दृष्टिकोण को पूरा बदलना होगा और इस 'हिमालयी पड़ोसी' के उभरते राजनीतिक नखरे के प्रति अधिक संवेदनशील बनना होगा. नेपाल से जुड़े दृष्टिकोण को और व्यवस्थित बनाने के लिए भारत को अपनी कूटनीति पर दोबारा मंथन करना भी होगा. इतिहास साक्षी रहा है कि हिमालयी पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध को लेकर 'आक्रामक चीन' ने हमेशा एक चुनौती पेश की है.

(एस.डी. मुनी - पूर्व राजदूत और जेएनयू के प्रोफेसर एमेरिटस, आईडीएसए की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य)

Last Updated : Jul 5, 2020, 6:24 PM IST
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