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विशेष लेख : देश में रणनीतिक कृषिकरण की जरूरत

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Published : Dec 13, 2019, 10:43 AM IST

मौसम की पूर्वानुमान और कृषि जोखिम समाधान कंपनी, 'स्काईमेट' आगामी खरीफ फसल के अपने प्रारंभिक मौसम पूर्वानुमान के साथ सामने आई है, जो कि प्याज उपभोक्ता बाजार के लिए बहुत अधिक तनावपूर्ण है. विस्तृत विश्लेषण से पता चला है कि दक्षिण पश्चिम मानसून के दौरान भारी बाढ़ और मूसलाधार बारिश से कई फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. स्काइमेट का अनुमान है कि 12 राज्यों के 137 प्रभावित जिलों में 3.2 करोड़ हेक्टेयर से अधिक खेत हाल ही में ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हुए हैं. उनका आगे का अनुमान है कि बाढ़ और भारी बारिश के कारण चावल, तिलहन और दालों की बिक्री में 12% की गिरावट आने की संभावना है.

editorial on strategic cultivation
प्रतीकात्मक फोटो

दो हफ्ते पहले, केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने एक और भी खतरनाक परिदृश्य व्यक्त किया है, जिसमें कहा गया है कि हाल ही में आई बाढ़ और मूसलाधार बारिश में लगभग 15 राज्यों में 64 लाख हेक्टेयर भूमि अलग थलग पड़ गई है. इसके बावजूद, निवारक उपाय करने के मुद्दे पर सरकार ढुल-मूल रवय्या अपना रही है. फरवरी में, मौसम के अंत मैं, अक्टूबर से, प्रधानमंत्री अन्नादता आय समरक्षण अभियान (पीएम-एएएसए) के तहत सरकार लगभग 37.59 लाख मीट्रिक टन दालों और तिलहन की खरीद करने वाली थी. मगर निर्धारित अवधि से दो महीने अधिक बीत जाने के बावजूद अब तक केवल 10 लाख टन (जो कि वादा की गयी खेप से 3% से कम है) की खरीद की गई है! उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में अभी तक खरीद प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है!

जब किसी भी कृषि उत्पाद की पैदावार में गिरावट होती है - आपूर्ति और मांग के बीच की खाई चौड़ी हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप बाजार की ताकतें उत्पाद की कीमतें बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए सरकार के पास मांग और आपूर्ति को समान स्तर पर रखने के लिए पर्याप्त भंडार होना चाहिए.

वैश्विक दलहन उत्पादन में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी होने के बावजूद भारत में फसल अक्सर घरेलू खपत के लिए पर्याप्त नहीं होती है, जिसके परिणामस्वरूप भारत को अन्य देशों से आयात करने की आवश्यकता पड़ती है. यद्यपि तिलहन की खेती लगभग 12-15% अंतर्देशीय कृषि भूमि पर होती है, लेकिन बाहरी स्रोतों से खाना पकाने के तेल का आयात करना भारत के लिए अपरिहार्य है. इस निर्भरता को खत्म करने के लिए, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने सात साल पहले एक दीर्घकालिक रणनीति का प्रस्ताव रखा था. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन 'संप्रग' की सरकार ने खाना पकाने के तेल को लेकर आत्मनिर्भर होने के लिए राय मांगी थी. दालों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए और समर्थन मूल्य पर गौर करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया है.

पढ़ें-विशेष लेख : धरती मां का दिल खून के आंसू रो रहा है

सितंबर में, पीएम-एएएसए किसानों के लिए सूची में सबसे ऊपर आ गया. योजना की शुरुआत के चार महीने पहले, सरकार 2.5 करोड़ टन से अधिक दाल और तिलहन की खरीद में सक्षम थी, जो कि सरकार द्वारा प्रस्तावित 33.6 लाख टन के खरीद लक्ष्य का लगभग 75% था. नाफेड(भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ), जिसके सुस्त रवैय्ये की बहुत आलोचना हो रही है, मौजूदा हालात में अपनी असंवेदनशीलता की वजह से राष्ट्र को पूरी तरह से आश्चर्यचकित कर रहा है. पीएम-एएएसए को दो साल के लिए कार्यान्वयन लागत के लिए 15,053 करोड़ रुपये का बजट दिया गया था और इस योजना के तहत खरीद एजेंसियों को 1,6,550 करोड़ रुपये की अतिरिक्त ऋण-गारंटी दी गई थी, इसके बावजूद क्षेत्र स्तर पर कोई विकास नहीं हुआ. सरकार को त्वरित सुधारात्मक उपाय करने की आवश्यकता है नहीं तो आम आदमी के लिए तेल और दाल खरीदना मुहाल हो जाएगा.

निकट भविष्य में पर्याप्त भण्डारण के प्रयासों के बिना देश दाल और खाना पकाने के तेल में आत्मनिर्भर नहीं हो सकता. अब भारत के लिए आवश्यक है कि वह बेहतर कृषि कौशल सीखे और खेती की गई फसलों की समग्र उपज को बेहतर बनाने के लिए हरित क्रांतिकारी की रणनीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करे.

चीन दोगुना कपास उपजा रहा है और अमेरिका मकई के आटे की नौ गुना ज्यादा खेती कर रहा है. मूंगफली, सूरजमुखी, तिल, सरसों के उत्पादन में अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में भारत कहीं नहीं है. जबकि अन्य देश विभिन्न अंतर्देशीय फसलों की पैदावार में सुधार करने के प्रयास में जुटे हुए हैं, भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उपज के आश्चर्यजनक रूप से कम आंकड़े दुखद हैं.

अगर किसी फसल की पैदावार में वृद्धि होती भी है, तो भारतीय किसान अपने लाभ का जश्न नहीं मना सकता है और न ही इसका लाभ उठा सकता है क्योंकि बिचौलिए और बाजार के हितधारक विक्रय मूल्य से लाभान्वित होते हैं किसान नहीं. किसान को अपनी उपज बेचनी पड़ेगी क्योंकि वह अपनी फसल के भण्डारण की स्थिति में नहीं होता जिसे वह मांग बढ़ने तक प्रतीक्षा करके बाजार में लाकर मुनाफा कमाने की स्थिति में आ सके.

हम एक ऐसा देश हैं जो किसानों को एक ऐसे संकटग्रस्त चक्र की स्थिति में डाल देते हैं जिससे वह कभी भी तोड़ कर बाहर नहीं निकल सकता है. सरकार को किसानों के लिए उस हद तक अवसर प्रदान करने चाहिए कि वह अधिशेष उपज को अन्य देशों में निर्यात कर सके, जिससे किसान समुदाय बड़े पैमाने पर लाभान्वित हो सके. इसी तरह, जब किसी निश्चित फसल की विफलता के संकेत नजर आने लगे तो संस्थागत तरीके से और पूर्व समझौता करके उसका आयात किया जाना चाहिए ताकि उपभोक्ताओं पर ऊची कीमतों के दबाव कम किया जा सके.

जबतक केंद्र और राज्य सरकारें फसलों पर सभी योजनाओं के साथ सुधारात्मक काम नहीं शुरू करेंगी और उनमें भागीदार के तौर पर खुद नहीं जोड़ेंगी तब तक देश की अर्थव्यवस्था और कृषि समुदाय हरित क्रांति का जश्न मनाने से अछूता रहेगा.

राष्ट्र के भोजन को सुरक्षा प्रदान की जाएगी और किसान जिसे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, बहुतायत में केवल उन्हीं क्रांतिकारी सुधारों और कार्यान्वयन के साथ पनपेगा जो किसान के श्रम को महत्व देंगे.

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रणनीतिक कृषिकरण



मौसम की पूर्वानुमान और कृषि जोखिम समाधान कंपनी, ‘स्काईमेट’ आगामी खरीफ फसल के अपने प्रारंभिक मौसम पूर्वानुमान के साथ सामने आई है, जो कि प्याज उपभोक्ता बाजार के लिए बहुत अधिक तनावपूर्ण है. विस्तृत विश्लेषण से पता चला है कि दक्षिण पश्चिम मानसून के दौरान भारी बाढ़ और मूसलाधार बारिश से कई फसलें बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. स्काइमेट का अनुमान है कि 12 राज्यों के 137 प्रभावित जिलों में 3.2 करोड़ हेक्टेयर से अधिक खेत हाल ही में ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हुए हैं. उनका आगे का अनुमान है कि बाढ़ और भारी बारिश के कारण चावल, तिलहन और दालों की बिक्री में 12% की गिरावट आने की संभावना है. दो हफ्ते पहले, केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने एक और भी खतरनाक परिदृश्य व्यक्त किया है, जिसमें कहा गया है कि हाल ही में आई बाढ़ और मूसलाधार बारिश में लगभग 15 राज्यों में 64 लाख हेक्टेयर भूमि अलग थलग पड़ गई है. इसके बावजूद, सरकार निवारक उपाय करने के मुद्दे पर सरकार ढुल-मूल रवय्या अपना रही है. फरवरी में, मौसम के अंत मैं, अक्टूबर से, प्रधान मंत्री अन्नादता आय समरक्षण अभियान (पीएम-एएएसए) के तहत सरकार लगभग 37.59 लाख मीट्रिक टन दालों और तिलहन की खरीद करने वाली थी. मगर  निर्धारित अवधि से दो महीने अधिक बीत जाने के बावजूद अब तक केवल 10 लाख टन (जो कि वादा की गयी खेप से 3% से कम है) की खरीद की गई है!! उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में अभी तक खरीद प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है!



जब किसी भी कृषि उत्पाद की पैदावार में गिरावट होती है - आपूर्ति और मांग के बीच की खाई चौड़ी हो जाती है ... जिसके परिणामस्वरूप बाजार की ताकतें उत्पाद की कीमतें बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं!!  ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए सरकार के पास मांग और आपूर्ति को समान स्तर पर रखने के लिए पर्याप्त भंडार होना चाहिए!



वैश्विक दलहन उत्पादन में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी होने के बावजूद भारत में फसल अक्सर घरेलू खपत के लिए पर्याप्त नहीं होती है, जिसके परिणामस्वरूप भारत को अन्य देशों से आयात करने की आवश्यकता पड़ती है. यद्यपि तिलहन की खेती लगभग 12-15% अंतर्देशीय कृषि भूमि पर होती है, लेकिन बाहरी स्रोतों से खाना पकाने के तेल का आयात करना भारत के लिए अपरिहार्य है. इस निर्भरता को ख़त्म करने के लिए, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने सात साल पहले एक दीर्घकालिक रणनीति का प्रस्ताव रखा था. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन “संप्रग” की सरकार ने खाना पकाने के तेल को लेकर आत्मनिर्भर होने के लिए राय माँगी थी. दालों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए और समर्थन मूल्य पर गौर करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया है.

सितंबर में, पीएम-एएएसए किसानों के लिए सूची में सबसे ऊपर आ गया.  योजना की शुरुआत के चार महीने पहले, सरकार 2.5 करोड़ टन से अधिक दाल और तिलहन की खरीद में सक्षम थी, जो कि सरकार द्वारा प्रस्तावित 33.6 लाख टन के खरीद लक्ष्य का लगभग 75% था. नाफेड(भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ), जिसके सुस्त रवैय्ये की बहुत आलोचना हो रही है, मौजूदा हालात में अपनी असंवेदनशीलता की वजह से राष्ट्र को पूरी तरह से आश्चर्यचकित कर रहा है. पीएम-एएएसए को दो साल के लिए कार्यान्वयन लागत के लिए 15,053 करोड़ रुपये का बजट दिया गया था और इस योजना के तहत खरीद एजेंसियों को 1,6,550 करोड़ रुपये की अतिरिक्त ऋण-गारंटी दी गई थी, इसके बावजूद क्षेत्र स्तर पर कोई विकास नहीं हुआ. सरकार को त्वरित सुधारात्मक उपाय करने की आवश्यकता है नहीं तो आम आदमी के लिए तेल और दाल खरीदना मुहाल हो जायेगा.

निकट भविष्य में पर्याप्त भण्डारण के प्रयासों के बिना देश दाल और खाना पकाने के तेल में आत्मनिर्भर नहीं हो सकता. अब भारत के लिए आवश्यक है कि वह बेहतर कृषि कौशल सीखे और खेती की गई फसलों की समग्र उपज को बेहतर बनाने के लिए हरित क्रांतिकारी की रणनीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करे.



चीन दोगुना कपास उपजा रहा है और अमेरिका मकई के आटे की नौ गुना ज्यादा खेती कर रहा है. मूंगफली, सूरजमुखी, तिल, सरसों के उत्पादन में अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तुलना में भारत कहीं नहीं है. जबकि अन्य देश विभिन्न अंतर्देशीय फसलों की पैदावार में सुधार करने के प्रयास में जुटे हुए हैं,  भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उपज के आश्चर्यजनक रूप से कम आंकड़े दुखद हैं!!



अगर किसी फसल की पैदावार में वृद्धि होती भी है, तो भारतीय किसान अपने लाभ का जश्न नहीं मना सकता है और न ही इसका लाभ उठा सकता है क्योंकि बिचौलिए और बाजार के हितधारक विक्रय मूल्य से लाभान्वित होते हैं किसान नहीं. किसान को अपनी उपज बेचनी पड़ेगी क्योंकि वह अपनी फसल के भण्डारण की स्थिति में नहीं होता जिसे वह मांग बढ़ने तक प्रतीक्षा करके बाज़ार में लाकर मुनाफा कमाने की स्थिति में आ सके.



हम एक ऐसा देश हैं जो किसानों को एक ऐसे संकटग्रस्त चक्र की स्थिति में डाल देते हैं जिससे वह कभी भी तोड़ कर बाहर नहीं निकल सकता है. सरकार को किसानों के लिए उस हद तक अवसर प्रदान करने चाहिए कि वह अधिशेष उपज को अन्य देशों में निर्यात कर सके, जिससे किसान समुदाय बड़े पैमाने पर लाभान्वित हो सके. इसी तरह, जब किसी निश्चित फसल की विफलता के संकेत नज़र आने लगे तो संस्थागत तरीके से और पूर्व समझौता करके उसका आयात किया जाना चाहिए ताकि  उपभोक्ताओं पर ऊँची कीमतों के दबाव कम किया जा सके.



जबतक केंद्र और राज्य सरकारें फसलों पर सभी योजनाओं के साथ सुधारात्मक काम नहीं शुरू करेंगी और उनमें भागीदार के तौर पर खुद नहीं जोड़ेंगी तब तक देश की अर्थव्यवस्था और कृषि समुदाय हरित क्रांति का जश्न मनाने से अछूता रहेगा!!



राष्ट्र के भोजन को सुरक्षा प्रदान की जाएगी और किसान जिसे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, बहुतायत में केवल उन्हीं क्रांतिकारी सुधारों और कार्यान्वयन के साथ पनपेगा जो किसान के श्रम को महत्व देंगे!


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