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विशेष : 2015 की आर्थिक नाकेबंदी के कारण नेपाल गया चीन के करीब

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Published : Jun 30, 2020, 11:00 PM IST

Updated : Jun 30, 2020, 11:35 PM IST

India nepal relations
प्रतीकात्मक फोटो

भारत और नेपाल के बीच पनपे सीमा विवाद का असर देखने को मिल रहा है. हालांकि, इसकी शुरुआत सितंबर 2015 में हुई थी. उस समय भारत ने मधेशी लोगों के हितों की रक्षा के लिए नेपाल पर पांच महीने लंबे अनौपचारिक नाकेबंदी कर दी थी. इस घटना ने ही नेपाल को चीन की ढकेल दिया था. पढ़ें ईटीवी भारत के वरिष्ठ संवाददाता कृष्णानंद त्रिपाठी की यह रिपोर्ट.

हैदराबाद : सितंबर 2015 में जब देश ने अपना नया संविधान अपनाया था तब मधेशी लोगों के हितों की रक्षा के लिए नेपाल पर पांच महीने लंबे अनौपचारिक नाकेबंदी का समर्थन करने का भारत का फैसला मुख्य कारक था, जिसने नेपाल को चीन की ओर ढकेल दिया था, विदेश नीति के दो विशेषज्ञों ने ईटीवी भारत को यह कहते हुए बताया कि भारतीय अधिकारी बाद में नेपाल के नेतृत्व और उसके लोगों के साथ मिलकर भारत के विरोध में बढ़ती भावनाओं की समस्या को संबोधित करने में विफल रहे, जिसने इस दिक्कत को और बढ़ा दिया.

प्रोफेसर एसडी मुनि, पूर्व राजनयिक और भारत-नेपाल संबंधों के विशेषज्ञ कहते हैं कि '2014 की शुरुआत में, जब प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल की यात्रा की और वहां संसद को संबोधित किया तो नेपाली बहुत अभिभूत थे, लेकिन 2015 में जब नेपाली अपने संविधान के मसौदे को तैयार कर रहे थे, तो उन्होंने पाया कि भारत अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप कर रहा है.'

प्रोफेसर एसडी मुनि, जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगभग चार दशकों तक कूटनीति और विदेशी मामलों को पढ़ाया और लाओ पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में भारत के राजदूत भी थे, कहते हैं कि भारत नेपाल के तराई क्षेत्र में लोगों की चिंता को दूर करने के लिए नेपाली अधिकारियों की सक्रिय भूमिका चाहता था.

नेपाल का तराई क्षेत्र देश के क्षेत्रफल के एक चौथाई से भी कम हिस्से में हैं, लेकिन यह देश की 28 लाख से अधिक लोगों की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है. इन लोगों की एक बड़ी संख्या, जिन्हें मधेशियों के रूप में भी जाना जाता है, ज्यादातर भारतीय वंश के हैं और 18वीं शताब्दी से यहीं इस देश में बस गए हैं.

प्रोफेसर मुनि ईटीवी भारत को बताया कि 'भारत ने उन्हें यह बताने के लिए दूत तक भेजा कि उनके पास एक नया संविधान नहीं होना चाहिए और यह भी कि नए संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द नहीं होना चाहिए, यह तब किया गया जब उन्होंने अपने संविधान सभा में नए संविधान का मसौदा तैयार कर लिया था और पारित भी कर चुके थे.'

'जब नेपाल ने इस हस्तक्षेप को मानने से इनकार कर दिया. उसके बाद भारत ने उसपर पांच महीनों के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे.'

हालांकि नेपाल सरकार ने भारत को उनके देश पर अनौपचारिक नाकाबंदी लागू करने के लिए दोषी ठहराया, वहीं भारत सरकार ने आपूर्ति को बाधित करने के लिए स्थानीय मधेशी प्रदर्शनकारियों को दोषी ठहराया.

प्रोफेसर एसडी मुनि ने कहते हैं कि 'पेट्रोलियम उत्पादों आदि जैसी कई आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति वहां तक नहीं पहुंची जिसके कारण नेपाली लोगों को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. इस फैसले ने नेपाली जनता के बीच भारत के प्रति बहुत कड़वाहट पैदा कर दी और नेपाली राष्ट्रवाद का नया स्वरुप भारतीय विरोधी भावना में तब्दील हो गया.'

नई दिल्ली स्थित विदेश नीति के थिंक-टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के एक वरिष्ठ साथी के. योहोम कहते हैं कि नेपाली नेतृत्व को पहले से ही लग रहा था कि भारत उन्हें एक समान संप्रभु राष्ट्र नहीं मान रहा है और 2015 में नेपाल की नाकाबंदी ने इस धारणा को और मजबूती दे दी.

के योहोम ने कहा कि 'उनकी धारणा है कि नेपाल वासियों की नजर में भारत का रवैय्या जबरन हक जताने वाला या अनावश्यक दखल देने वाला है.'

उन्होंने ईटीवी भारत को बताया कि 'उनका यह मनना है कि भारत उनके साथ समान व्यवहार नहीं कर रहा है. जब नाकाबंदी हुई, तो उनकी यह धारणा यकीन में बदल गई.'

चीन के प्रति नेपाल का झुकाव 2015 के बाद से बढ़ गया.

प्रोफेसर एसडी मुनि कहते हैं कि भारत के साथ नेपाल के संबंध तनावपूर्ण होने के कारण हिमालयी देश ने अपने पूर्वी पड़ोसी चीन की ओर देखना शुरू कर दिया था, जिसने 1962 में क्षेत्रीय विवाद को लेकर भारत के साथ हिंसक युद्ध लड़ा था.

एसडी मुनि ने कहा कि 'उन्होंने चीन की तरफ अधिक गति से बढ़ना शुरू कर दिया. 2015 के बाद चीन के साथ बड़ी संख्या में समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए. भारत के साथ संबंध तनावपूर्ण होते चले गए हैं.'

इन घटनाक्रमों ने भारत को घेरने के लिए विशाल साम्यवादी चीन को एक अवसर प्रदान किया, क्योंकि वह पहले से ही भारत के पड़ोस में सैन्य और दोहरे उपयोग के ठिकानों का निर्माण करके देश के रणनीतिक घेराव की दिशा में काम कर रहा था.

मोतियों की लड़ी की अपनी नीति के तहत, चीन पहले ही पाकिस्तान और श्रीलंका सहित भारत के पड़ोस में कई देशों में अपनी सैन्य और वाणिज्यिक सुविधाओं और बंदरगाहों की स्थापना कर चुका है.

भारतीय अधिकारियों ने उस स्थिति में गंभीरता का एहसास किया जब नेपाल की कैबिनेट ने पिछले महीने देश के एक नए राजनीतिक मानचित्र को मंजूरी दी जिसमें लिपुलेख दर्रा, कालापानी और लिम्पियाधुरा क्षेत्रों को अपने क्षेत्र के रूप में दिखाया गया था.

भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हाथापाई की खबर सार्वजनिक होने के बाद नेपाल के मंत्रिमंडल ने 18 मई को नए राजनीतिक मानचित्र को मंजूरी दे दी. नेपाल की संसद के दोनों सदनों ने इस महीने नया नक्शा पारित किया जब भारतीय सेना 1975 से चीनी पीएलए के साथ अपने सबसे हिंसक टकराव में उलझी हुई थी.

मुसीबत का पहला संकेत पिछले महीने आया जब भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को उत्तराखंड राज्य में 80 किलोमीटर लंबी एक नई सड़क का उद्घाटन किया था, जो भारत, नेपाल और चीन के त्रिकोणीय जंक्शन पर स्थित लिपुलेख दर्रे से जुड़ी थी.

नई सड़क खोलने पर नेपाल के विरोध पर भारतीय सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवाने के खा कि नेपल द्वारा दी जा रही इस प्रतिक्रिया के पीछे एक बाहरी प्रभाव या उकसावा शामिल है.

भारत के विदेश मंत्रालय ने भी इस महीने नेपाल के नए राजनीतिक मानचित्र को नामंजूर करते हुए कहा कि यह 'क्षेत्रीय दावों का कृत्रिम विस्तार है'.

भारत नेपाल संबंध - आगे का रास्ता

प्रोफेसर एसडी मुनि कहते हैं कि हालांकि दोनों देशों के नेतृत्व द्वारा द्विपक्षीय बैठकें हुई हैं, लेकिन नेपाली अधिकारियों को इस बात का अहसास है कि भारत नेपाल के अनुरोध के बावजूद पहले से अनसुलझे मुद्दों को हल करने के लिए तैयार नहीं है.

उनका कहना है कि दोनों देशों के प्रतिष्ठित लोगों का एक समूह बनाया गया था, जिन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की थी, लेकिन इसे आधिकारिक रूप से प्रस्तुत नहीं किया गया है और भारत ने रिपोर्ट पर कोई आधिकारिक पक्ष नहीं लिया है.

प्रोफेसर एसडी मुनि ने बताया कि 'मोदी ने कई मुद्दों को सुलझाने की कोशिश की है. पहले पेट्रोल और डीजल की आपूर्ति ट्रकों के माध्यम से नेपाल को की जाती थी लेकिन अब भारत ने एक पाइपलाइन बिछाई है, लेकिन जो रिश्ता 2015 में खराब हो गया था, उसकी पूरी तरह से पटरी पर नहीं लाया जा सका है.'

उन्होंने कहा कि 'नेपाल से संबंधों को बनाए रखने के लिए अब पुराने तरीके काम नहीं करेंगे. यह एक नया नेपाल है और यह एक नया भारत भी है. जब तक हम उनके राष्ट्रवाद और उनके आदर्शों के प्रति संवेदनशील नहीं बन जाते हैं, तब तक समाधान खोजना मुश्किल होगा.'

प्रोफेसर मुनि कहते हैं कि भारत के पास कालापानी क्षेत्र पर नेपाली दावों को खारिज करने के अपने तथ्य हैं, क्योंकि नेपाल ने 1954 में भारत और चीन के बीच संयुक्त समझौते में लिपुलेख दर्रे को शामिल किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं जताई थी, जिसमें लिपुलेख को भारत के दर्रों में से एक में शामिल कर सूचीबद्ध किया गया था जो भारत-चीन व्यापार के लिए अधिकृत थे.

ईटीवी भारत को बताते हुए उन्होंने कहा कि 'दोनों देशों को अपने तथ्य एक दूसरे को दिखाने चाहिए और एक दूसरे को समझाना चाहिए, यदि वह आश्वस्त नहीं हो सकते हैं तो एक राजनीतिक समाधान खोजना होगा. बहुत सारे संभावित समाधान हैं, लेकिन उन्हें एक-दूसरे के साथ जुड़ना चाहिए.'

Last Updated :Jun 30, 2020, 11:35 PM IST
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