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तिलक ने राजनीतिक लेखन से दी स्वतंत्रता आंदोलन को नई चेतना

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Published : Aug 1, 2020, 10:59 AM IST

बाल गंगाधर तिलक एक ऐसा नाम जिसने अपने लेखन से अंग्रेजों को हिला कर रख दिया. उनके लेखन से अंग्रेजों में इतना खौफ था कि उन्हें जेल भेज दिया गया. वह एक राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतंत्रता सेनानी थे. अपने राजनीतिक लेखन के कारण वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे.

बाल गंगाधर तिलक.
बाल गंगाधर तिलक.

हैदराबाद : बाल गंगाधर तिलक एक ऐसा नाम जिसने अपने लेखन से अंग्रेजों को हिला कर रख दिया. उनके लेखन से अंग्रेजों में इतना खौफ था कि उन्हें जेल भेज दिया. वह एक राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतंत्रता सेनानी थे. अपने राजनीतिक लेखन के कारण वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे. आज बाल गंगाधर तिलक की 100वीं पुण्यतिथि है. उनका निधन एक अगस्त 1920 को मुंबई में हुआ था.

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें भारतीय अशान्ति के पिता कहते थे. उनका मराठी भाषा में दिया गया नारा 'स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच' (स्वराज ही मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा) बहुत प्रसिद्ध हुआ.

तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले ऐसे नेता थे, जो अपने राजनीतिक लेखन के लिए जेल गए. वह तिलक ही थे जिनके लेखन से प्रभावित होकर ब्रिटिश पत्रकार वैलेंटाइन चिरोल ने तत्कालीन शासकों की तिलक को भारतीय अशान्ति के पिता कहने पर आलोचना की थी.

  • तिलक 1890 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य बने. हालांकि, वह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से लड़ने के लिए पार्टी के उदारवादी दृष्टिकोण के कट्टर आलोचक थे.
  • इसके बाद वह 1916 में फिर से कांग्रेस में शामिल हुए. उन्होंने ब्रिटिश अधिकार कार्यकर्ता, शिक्षाविद और परोपकारी एनी बेसेंट के साथ मिलकर काम किया.
  • बेसेंट का साथ मिलने से उन्हें अखिल भारतीय होम रूल लीग के स्वराज के लिए अभियान चलाने में मदद मिली. इस दौरान उन्होंने किसानों को जुटाने के लिए गांवों की यात्रा की.
  • इसी वर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने एलान किया कि स्वराज भारतीयों का जन्म सिद्ध अधिकार है.
  • उन्होंने लिखा कि अब स्वराज की मांग करने का समय आ गया है. उन्होंने कहा कि वर्तमान प्रशासन की प्रणाली देश के लिए विनाशकारी है, इसे अवश्य समाप्त करना चाहिए.
  • इसके बाद तिलक का कद राष्ट्रीय नेता के रूप में बढ़ता गया. उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके द्वारा चलाए गए होम रूल आंदोलन ने 1917 में अंग्रेजों को मोंटागु घोषणा का मसौदा तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया.

तिलक का योगदान
तिलक द्वारा देशभर में अंग्रेजों का बहिष्कार, स्वदेशी व राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध का यह फोरफोल्ड कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया था.

कार्यक्रम मुख्य रूप से एक आर्थिक हथियार के रूप में शुरू हुआ, लेकिन जल्दी से इसका राजनीतिक महत्व दिखाई पड़ने लगा. कार्यक्रम के पीछे की प्रेरणा शुरू में बंगाल के ब्रिटिश विभाजन की प्रतिक्रिया थी, लेकिन यह जल्द ही एक अखिल भारतीय आंदोलन में बदल गई.

विभाजन और एकता
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक उदारवादी के रूप में शामिल हुए. इतना ही नहीं तिलक ने गोपाल कृष्ण गोखले के उदारवादी विचारों का विरोध किया और बंगाल में साथी भारतीय राष्ट्रवादियों बिपिन चंद्र पाल और पंजाब में लाला लाजपत राय का समर्थन किया. उन्हें लाल-बाल-पाल विजय के रूप में जाना जाता था.

1907 में कांग्रेस पार्टी का वार्षिक अधिवेशन गुजरात के सूरत में आयोजित किया गया था, जहां पार्टी के उदारवादी और उग्र नेताओं के बीच कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चयन को लेकर तनातनी शुरू हो गई. जहां पार्टी दो हिस्सों (उग्र और उदारवादी) नेताओं के बीच बंट गई. अरबिंदो घोष, वी ओ चिदंबरम पिल्लई जैसे राष्ट्रवादी नेता तिलक के समर्थन में थे.

गोखले की मृत्यु के बाद 1916 में तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए, इस दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा. जेल से रिहा होने के बाद तिलक ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

मुहम्मद अली जिन्ना के अनुसार, तिलक ने देश में तुर्क सेवाओं का प्रतिपादन किया और हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप लखनऊ संधि 1916 हुई.

महामारी और गिरफ्तारी
1896 के अंत में, एक ब्यूबोनिक प्लेग महामारी बॉम्बे से पुणे तक फैल गई और जनवरी 1897 तक जारी रही.

इस दौरान ब्रिटिश सैनिकों ने आपातकालीन और कठोर उपायों को लागू कर दिया, इसमें घरों में जबरन प्रवेश करना, रहने वालों की परीक्षा, अस्पतालों और अलगाव शिविरों को खाली करना, व्यक्तिगत संपत्ति को हटाना और नष्ट करना और रोगियों को शहर में प्रवेश करने या छोड़ने से रोकना शामिल थे. इसके माध्यम से ब्रिटिश अधिकारियों ने लोगों पर अत्याचार किया.

तिलक ने अपने पत्र केसरी (केसरी मराठी में लिखा गया था ओर मराठा अंग्रेजी में) में हिंदू ग्रंथ, भगवद गीता के हवाले से लेख प्रकाशित करके इस मुद्दे को उठाया और लिखा कि यह कहना गलत होगा कि बिना किसी बात के कर देने वाले आम नागरिक की हत्या करने वाला दोषी नहीं है. इसके बाद, 22 जून 1897 को, रैंड और एक अन्य ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की चापेकर भाइयों और उनके अन्य सहयोगियों ने गोली मारकर हत्या कर दी. इसी मामले में तिलक को भी गिरफ्तार किया गया था.

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