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हिंदी दिवस: हिंदी और अंग्रेजी को दुश्मन की तरह पेश करना उचित नहीं: प्रो. मुरली मनोहर सिंह

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Published : Sep 14, 2020, 2:28 AM IST

Updated : Sep 14, 2020, 7:29 AM IST

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हिंदी दिवस विशेष

आज हिंदी दिवस है. आजादी के सालों बाद आज हम हिंदी को कहां देखते हैं और हिंदी भाषा आज कहां खड़ी है. इन सभी विषयों पर गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भाषाविद् प्रो. मुरली मनोहर सिंह से खास बातचीत.

बिलासपुर: आज हिंदी दिवस है. आज ही के दिन साल 1949 में हिंदी भाषा को भारत की संविधान सभा ने राजभाषा का दर्जा दिया था. आज इस विशेष अवसर पर हमारी हिंदी भाषा अब तक कहां पहुंची है और हम बदलते आधुनिक परिवेश में हिंदी को किन-किन परिस्थितियों में देख रहे हैं, इस विषय पर ETV भारत ने गुरुघासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुरली मनोहर सिंह से खास चर्चा की.

हिंदी दिवस विशेष

प्रो. मुरली मनोहर सिंह ने कहा कि साहित्य के रूप में हिंदी की स्वीकार्यता ज्यादा है. हिंदी में आज भी प्रकाशन कार्य हो रहे हैं और मात्रात्मक रूप में हिंदी साहित्य आज भी समृद्ध है. फिल्म उद्योग में भी हिंदी फिल्में ज्यादा बन रहीं हैं और हिंदी साहित्य का अपना वर्चस्व बना हुआ है .

'बाजारवादी संस्कृति से हिंदी को खतरा'

मनोरंजन जगत में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते दखल के सवाल पर जवाब देते हुए प्रो. मुरली मनोहर सिंह ने कहा कि अंग्रेजी शब्दों के समावेश से हिंदी में कहीं कोई खतरा नहीं है. हिंदी को खतरा बाजार से है. भाषा को खतरा किसी अन्य भाषा से कभी नहीं होता. भाषा बाजारवादी संस्कृति से जरूर प्रभावित होती है. उन्होंने कहा कि हिंदी और अंग्रेजी को एक दूसरे के दुश्मन की तरह पेश करना उचित नहीं है.

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कई दौर से गुजरी हिंदी भाषा

प्रो. ने कहा कि संत कबीर ने भाषा को बहते नीर की तरह माना है. सदियों से हिंदी भाषा भी कई दौर से गुजरी है. उसमें बहाव है, इसलिए वो जीवंत है. हिंदी दर्जनों बोलियों में, कई प्रदेशों में और आधा दर्जन से ज्यादा देशों में बोली जाती है. हिंदी निरंतरता और वैविध्यता को लिए हुए है, इसलिए यह भाषा आज भी कायम है. सिने जगत में अंग्रेजी शब्दों का चलन लोगों की अभिरुचि के अनुरूप है. इससे हिंदी भाषा को कोई खतरा नहीं है.

नीतिगत बदलाव की जरुरत: प्रो. सिंह

प्रोफेसर ने बताया कि अकादमिक स्तर पर कई चुनौतियां हैं. अकादमिक स्तर पर हिंदी चिकित्सा और न्याय की भाषा क्यों नहीं बन सकती, यह एक बड़ा सवाल है. जब हम इसे अपनी ही भाषा में समझेंगे, बोलेंगे और आम आदमी तक इन शब्दों की पहुंच बढ़ेगी तो यह हमारी जीत होगी. इसके लिए नीतिगत बदलाव की भी जरूरत है. बदलाव की बातें कर सिर्फ हम औपचारिकता का निर्वहन न करें. बल्कि हमें सीखने और सिखाने की पद्धति में मनोयोग और तत्परता दिखानी होगी. आज अकादमिक स्तर पर हिंदी में शिथिलता आ गई है. उर्दू के संदर्भ में उन्होंने कहा कि हिंदी और उर्दू एक जैसी भाषा है. फर्क सिर्फ लिपि में है. हमें भाषा विवाद में नहीं पड़ना चाहिए.

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हिंदी को जनभाषा में उतारने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए: प्रो. सिंह

अकादमिक स्तर पर शाब्दिक क्लिष्टता के सवाल पर जवाब देते हुए प्रो. मुरली मनोहर सिंह ने कहा कि अगर चिकित्सा या न्यायिक भाषा की ही बात करें तो ऐसा कोई शब्द नहीं है जो अंग्रेजी के समानांतर हिंदी में मौजूद नहीं है. लोक शब्दों का उत्पादक होता है. इसे खोजने की जरूरत है और जनभाषा में इसे उतारने की प्रतिबद्धता भी होनी चाहिए.

पंडित नेहरू की पुस्तक का दिया उदाहण

पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक "भारत एक खोज" का उदाहरण देते हुए प्रोफेसर मुरली मनोहर सिंह ने कहा कि इस पुस्तक के पहले खंड में ही नेहरू पूछते हैं कि भारत माता कौन है. जवाब है कि भारत माता देश में अंतिम व्यक्ति में बसनेवाली चेतना है. हम जब इसी चेतना के लिए जीते हैं तो यही सबसे बड़ी देश सेवा है. भाषा के जरिए भी यह चेतना जागृत की जा सकती है.
हिंदुस्तान की यह ताकत है कि हिंदुस्तान विश्व में सर्वाधिक भाषायी वैविध्यता को धारण करने वाला देश है. भाषा, भाषा की दुश्मन कभी नहीं हो सकती. किसी एक भाषा की तरफदारी वहीं वर्चस्ववादी रुख है जो अंग्रेजी के संदर्भ में कही जाती रही है.

Last Updated :Sep 14, 2020, 7:29 AM IST
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