पटना: देश के बड़े साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन (Rahul Sankrityayan) भारतीय परिपेक्ष में ह्वेनसांग से कम नहीं हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि राहुल सांकृत्यायन का महत्व न सिर्फ साहित्य के क्षेत्र में बल्कि वो अन्य देशों के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास को समझने का भी नजरिया बने. उन्होंने 1927 से अपने जीवनकाल में कई देशों की यात्राएं की थीं जिसमें श्रीलंका, तिब्बत, जापान, रूस, यूरोप और ईरान जैसे देशों के नाम शामिल हैं. बहुत से देश में घूमने के कारण वो कई भाषाओं को जानते थे. 1929 से 1938 के बीच राहुल जी ने तिब्बत की 4 बार यात्रा की.
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बताया जाता है कि 15 महीने तक तिब्बत में रहने के बाद जब राहुल सांकृत्यायन भारत लौटे तो मौसम और भौगोलिक चुनौतियों का सामना करते हुए 22 खच्चरों पर तमाम हस्त लिखित दस्तावेज और लिपियों के साथ कलाकृतियों को लेकर साथ लौटे. खच्चरों पर तिब्बती रेशमी और सूती कपड़े से लेकर प्राकृतिक रंगों से बने पटचित्र जिन्हें थंका कहा जाता था लदे थे. इन चित्रों के बारे में कहा जाता है कि तिब्बती घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत करते थे, वो एक स्थान पर नहीं टिकते थे. इसलिए उनकी पेंटिंग पत्थर या लकड़ी पर न होकर कपड़े पर होती थी. ताकि इन चित्रों को लपेटकर अगले पड़ाव तक ले जाने में आसानी हो.
'राहुल सांकृत्यायन घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे और ब्राह्मण कुल में पैदा लेने के बावजूद वह श्रीलंका में बौद्ध धर्म के करीब आए. राहुल सांकृत्यायन 15 महीने तक तिब्बत में रहे और अथक प्रयास के बाद ढेरों बौद्ध साहित्य और पुरातात्विक साक्ष्य अपने साथ लेकर बिहार आए जिसे तत्कालीन 'बिहार रिसर्च सोसाइटी' जिसे पटना म्यूजियम के नाम से जानते हैं उसे सौंप दिया '.- डॉ शंकर सुमन, अध्यक्ष, पटना म्यूजियम
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बौद्ध धर्म की तीन शाखाएं हैं जिसमें हीनयान, महायान और वज्रयान है. वज्रयान का आगमन तंत्रविद्या के सामवेश से होता है. 11वीं शताब्दी में वज्रयान से जुड़े जरूरी ग्रंथ और लिपियां नालंदा विश्वविद्यालय के जलने से नष्ट हो गईं. जिसको इकट्ठा करना एक बड़ी चुनौती थी. इसी को एकत्रित करने के उद्देश्य से राहुल सांकृत्यायन ने श्रीलंका की यात्रा की. श्रीलंका में ही राहुल सांकृत्यायन बौद्धधर्म से प्रभावित हुए. फिर उन्होंने चार बार तिब्बत की यात्रा की. 15 महीने तिब्बत में रहने के बाद कई ग्रंथों का अध्ययन किया. ज्यादातर तिब्बती भाषा में लिखी लिपियां लेकर भारत आए थे, जिन्हें आज तक नहीं पढ़ा जा सका है.
राहुल सांकृत्यायन तिब्बती भाषा में हस्तलिखित धर्म ग्रंथ भी अपने साथ लाए थे. धर्म ग्रंथ की रचना सोने और चांदी के स्याही से की गई थी उस की चमक आज भी बरकरार है. बताया जाता है कि तारा देवी की पूजा अर्चना को लेकर विधि-विधान ग्रंथ में वर्णित है. विडंबना ये है कि 90 साल पहले तिब्बत से जो साहित्य और धर्म ग्रंथ लाए गए थे, उसे आज तक पढ़ा नहीं जा सका है. राहुल सांकृत्यायन के द्वारा लाई गई अनमोल कृति आज भी रहस्य बनी हुई है. उस समय केपी जायसवाल के कहने पर उन्होंने तमाम साहित्यकार ऐतिहासिक साक्ष्य पटना संग्रहालय को सौंप दिए. फिलहाल, तिब्बती भाषा में लिखे साहित्य को हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद करवाने का जिम्मा सारनाथ के संस्थान को सौंपा गया है.
क्यूरेटर अनिल कुमार ने कहा कि विक्रमशिला से अध्ययन करने के बाद बौद्ध धर्म से जुड़े कई साधु संत तिब्बत चले गए थे और वो वहीं के होकर रह गए. विक्रमशिला के कई अध्यापक और वज्रयान के प्रकांड विद्वान तिब्बत गए और वहां लोगों को धर्म की शिक्षा देने लगे. बाद में वहां उनकी पूजा भी होने लगी. बौद्ध विद्वान अनीश अंकुर ने बताया कि तिब्बत में राहुल सांकृत्यायन की सबसे बड़ी खोज प्रमानवर्तिक पुस्तक की थी, जिसे हर विद्वान हासिल करना चाहते थे.
'राहुल सांकृत्यायन का सरोकार मध्य एशिया तक था और उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि प्रमानवर्तिक पुस्तक की खोज थी जिसे पूरे विश्व के विद्वान हासिल करना चाहते थे'- अनीश अंकुर, विश्लेषक
बहरहाल, राहुल सांकृत्यायन ने जो कुछ देश और बिहार को दिया उसका लाभ अब तक आम लोगों को नहीं मिल पा रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि जो पुस्तकें और साक्ष्य अपने साथ लेकर लौटे थे वो अबतक समझा नहीं जा सका है. ऐसे में कई रहस्यों से पर्दा नहीं उठ पाया है. उम्मीद है कि अनुवाद की कवायद शुरू होने के बाद रहस्यों से पर्दा उठने लगेगा और 9 दशक बाद राहुल सांकृत्यायन की बड़ी खोज साकार रूप लेगी.