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DMCH में नहीं होता है जले हुए मरीजों का इलाज! सालों से वार्ड में लटका है ताला

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Published : Aug 16, 2019, 10:26 AM IST

डीएमसीएच के सर्जिकल भवन में 1982 से बर्न वार्ड स्वीकृत है. लेकिन विभाग की तरफ से यहां पर विशेषज्ञ डॉक्टर, पारा मेडिकल कर्मी और इलाज से संबंधित कोई उपकरण मुहैया नहीं करवाया गया है. जिसके कारण 10 बेडों के बने बर्न वार्ड में बरसों से ताला लटक रहा है.

बंद पड़ा बर्न वार्ड

दरभंगा: उत्तर बिहार के सबसे बड़े अस्पताल डीएमसीएच में बर्न वार्ड बना तो है, लेकिन वहां मरीजों के इलाज की व्यवस्था नहीं है. यहां इलाज करवाने आये मरीजों को प्राथमिक उपचार के बाद पीएमसीएच रेफर कर दिया जाता है. ऐसे में कुछ मरीज ही पीएमसीएच जा पाते हैं. कुछ तो रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. वहीं, अस्पताल के इस व्यवस्था को लेकर अस्पताल प्रशासन बिल्कुल भी गंभीर नहीं है.

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बर्न वार्ड

वार्ड में नहीं है विशेषज्ञ डॉक्टर
स्वास्थ्य विभाग के गाइडलाइन के अनुसार झुलसे मरीजों के लिए अस्पताल में अलग वार्ड का रहना जरूरी है. लेकिन यहां ऐसे मरीजों का इलाज जेनरल वार्ड के मरीजों के साथ होता है. इसके कारण ऐसे मरीजों के स्वास्थ्य में सुधार होने की बजाय और हालत बिगड़ जाती है. बतातें चलें कि डीएमसीएच के सर्जिकल भवन में 1982 से बर्न वार्ड स्वीकृत है. लेकिन विभाग की तरफ से यहां पर विशेषज्ञ डॉक्टर, पारा मेडिकल कर्मी और इलाज से संबंधित कोई उपकरण मुहैया नहीं करवाया गया है. जिसके कारण 10 बेडों के बने बर्न वार्ड में बरसों से ताला लटक रहा है. इस ओर अस्पताल प्रशासन भी ध्यान नहीं दे रहा है. लेकिन यह यूनिट आज भी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के रिकॉर्ड में चालू है.

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बंद पड़ा डॉक्टर का कार्यालय

वार्ड के दरवाजे पर लटके हैं ताले
मरीज के परिजन ने बताया कि इस अस्पताल में बर्न यूनिट तो बना है. लेकिन वार्ड के दरवाजे पर ताला लटका हुआ है. यहां पर किसी डॉक्टर और नर्स को भी नहीं देखा है. वार्ड में बेड तो नजर आ रहे हैं, लेकिन इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है. अंदर की स्थिति देखने से गोदाम की तरह लग रहा है.

जानकारी देते अस्पताल अधीक्षक

जेनरल वार्ड में होता है इलाज
वहीं, अस्पताल अधीक्षक डॉ. राज रंजन प्रसाद ने कहा कि बर्न यूनिट का स्थापना 1982 ई. में हुआ था और उस समय यह चल रहा था. इधर कुछ वर्षों से वहां कोई बर्न स्पेशलिस्ट नहीं है. साथ ही वर्न मरीजों के इलाज के लिए जो पूरे यूनिट होते हैं, सिस्टर, प्लास्टिक सर्जन या फिर अन्य कर्मचारी, उन सबों के नहीं रहने के कारण अब यहां पर कोई बर्न वार्ड अलग से नहीं है. अभी जो बर्न के मरीज यहां आते हैं. उसका इलाज सर्जरी वार्ड में ही होता है. 30 से 40 प्रतिशत बर्न के मरीज का इलाज सर्जरी वार्ड में होता है. अगर उससे ज्यादा हो तो उन्हें बाहर रेफर किया जाता है.

Intro:उत्तर बिहार का सबसे बड़ा अस्पताल डीएमसीएच में बर्न वार्ड की व्यवस्था नहीं है। नतीजतन यहां झुलस कर पहुंचने वाले मरीजों का सही इलाज नहीं हो पा रहा है। मजबूरी में डॉक्टर 30 से 40% से अधिक झुलसे मरीजों को प्राथमिक उपचार करने के बाद सीधे पीएमसीएच रेफर करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। ऐसे में कुछ मरीज तो पीएमसीएच पहुंच जाते हैं, परंतु कुछ मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। इतना बड़ा अस्पताल परंतु यहां आग से झुलस कर आने वाले मरीजों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। अगर डीएमसीएच में झुलस कर आने वाले मरीजों की समुचित व्यवस्था होती तो, कई मरीजों की जान बचाई जा सकती है। इसको लेकर अस्पताल प्रशासन भी गंभीर नहीं दिख रहा है।




Body:दरअसल गाइडलाइन के अनुसार झुलसे मरीजों का अलग वार्ड का रहना जरूरी है। लेकिन यहां ऐसे मरीजों का इलाज जेनरल वार्ड के मरीजों के साथ होता है। जहां संक्रमण फैलने की पूरी आशंका बनी रहती है। इसके कारण ऐसे मरीजों के स्वास्थ्य में सुधार होने के बजाय और हालत बिगड़ जाती है। जाहिर तौर पर इससे मरीज के परिजनों को परेशानी झेलनी पड़ती है। आलम यह है कि सर्जिकल भवन में 1982 से बर्न वार्ड स्वीकृत है। लेकिन सरकार की ओर से ना तो विशेषज्ञ डॉक्टर, नाही पारा मेडिकल कर्मी और ना ही इससे संबंधित कोई उपकरण मुहैया करवाया गया। जिसके कारण 10 बेडो के बने बर्न वार्ड में बरसों से ताला लटक रहा है। इस ओर ना ही सरकार का ध्यान जा रहा है और ना ही प्रशासन का। लेकिन यह यूनिट आज भी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के रिकॉर्ड में चालू है।




Conclusion:वही अपने परिजन का इलाज करवा रहे प्रशांत ने कहा कि इधर से गुजर रहे थे तो हमारी नजर बर्न यूनिट पर पड़ी। तो हमने सोचा कि देखे की क्या हालात है इस बर्न यूनिट की। जब हम वार्ड के पास पहुंचे तो देखा कि ताला लगा हुआ है और जब अंदर झांक के देखा हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि यह बर्न वार्ड नहीं गोदाम है। बर्न यूनिट में ना तो बेड नजर आ रहा था और ना ही कोई व्यवस्था नजर आ रही है। चारों तरफ से वार्ड खुला हुआ है और बगल से नाला भी बह रहा है और अंदर की स्थिति देखने से गोदाम की तरह लग रहा है।

वहीं अस्पताल अधीक्षक डॉ राज रंजन प्रसाद ने कहा कि बर्न यूनिट का स्थापना 1982 ईस्वी में हुआ था और उस समय यह चल था। इधर कुछ वर्षों से वहां कोई बर्न स्पेशलिस्ट नहीं है, उसके जो पूरे यूनिट होते हैं सिस्टर, प्लास्टिक सर्जन या फिर अन्य कर्मचारी होते हैं। उन सब के नहीं रहने के कारण अब वहां पर कोई बर्न वार्ड अलग से नहीं है। अभी जो बर्न के मरीज यहां आते हैं उनका सर्जरी वार्ड में ही इलाज होता है। 30 से 40% बर्न के मरीज का इलाज सर्जरी वार्ड में होता है और वे ठीक होकर जाते हैं। अगर उससे ज्यादा होता है तो उन्हें बाहर रेफर किया जाता है।

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प्रशांत कुमार, परिजन
डॉ राज रंजन प्रसाद, अस्पताल अधीक्षक
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