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भारत में तटीय क्षेत्रों का नियमन किस तरह होता है, विस्तार से समझें

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Published : Oct 22, 2019, 1:13 PM IST

भारत के तटीय जिलों में करीब 17.1 करोड़ लोग रहते हैं. दूसरी ओर पिछले दो दशकों में भारत का 45 प्रतिशत क्षेत्र तट कटाव के कारण नष्ट हो चुका है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि हमारे तट की सुरक्षा किस तरीके से की जानी चाहिए, किस तरह की आर्थिक गतिविधियों पर जोर देना चाहिए, जिससे कि ना तो पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचे और ना ही लोगों के रोजगार पर कोई असर पड़े. इस पर विस्तार से चर्चा की है हमारे विशेषज्ञ डॉ महेन्द्र बाबू कुरुवा. पढ़ें विस्तार से यह खबर.

प्रतिकात्मक चित्र

तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरज़ेड) पर बहस एक बार फिर से मीडिया में गरमाई हुई है. सितंबर 2019 में, केरल की तट रेखा पर अवैध निर्माणों के गिराए जाने के बाद यह फिर से सुर्खियों में है. और अब महाराष्ट्र चुनाव ने फिर से इस मुद्दे को हवा दी है. 14 अक्टूबर 2019 को, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, देवेंद्र फड़णवीस ने कई परियोजनाओं की घोषणा की.

इन सभी घोषणाओं के बीच सबसे विवादास्पद और बहस का मुद्दा बनी योजना थी - मुम्बई के पर्यावरण संवेदी लावन कुंड को प्रधान मंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) के तहत कम लागत वाले आवास के विकास के लिए खोलने की उनकी घोषणा. अगर इस प्रस्ताव को अमल में लाया जाता है, तो यह उम्मीद की जाती है कि मुंबई की लंबाई और चौड़ाई के कुल 5,300 एकड़ में से 1,781 एकड़ में फैले नमक के कुण्डों को इसके विकास के लिए खोल दिया जाएगा.

हालांकि, उनकी राजनीतिक सहयोगी 'शिव सेना पार्टी' इस प्रस्ताव के खिलाफ है और यहां तक ​​कि पर्यावरणविद् भी चिंतित हैं कि नमक के कुण्डों को खोलने से न सिर्फ़ उस क्षेत्र के विशेष पर्यावरण को नुकसान हो सकता है, साथ ही, यह प्रस्ताव तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरजेड) के प्रावधानों का उल्लंघन भी करता है. इस प्रस्ताव के राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्य और उनके निहितार्थ बहस के अधीन हैं और यह पूरी तरह से एक अलग मुद्दा है.

अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह घोषणा, सबसे प्रासंगिक मगर चर्चा से गायब तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरजेड) मुद्दे को एक बार फिर चर्चा की मुख्य धारा में ले आई है. यह और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सीआरज़ेड से जुड़ी परियोजनाओं पर विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति की 226वीं बैठक 23 अक्टूबर, 2019 को आयोजित होने जा रही है. इस पृष्ठभूमि में, तटीय विनियमन ज़ोन (सीआरज़ेड) और इससे जुड़े मुद्दों और चिंताओं को समझने की आवश्यकता है.

(सीआरज़ेड) पर एक नज़र:
भारत के तटीय जिलों में लगभग 17.1 करोड़ लोग रहते हैं, जो देश की आबादी के 14 प्रतिशत के बराबर है. दूसरी ओर, पिछले दो दशकों में, भारत का 45 प्रतिशत क्षेत्र तट कटाव के कारण नष्ट हो चुका है, और तट पर आई प्राकृतिक आपदाओं पर देश 8000 करोड़ रुपये का खर्च कर चुका है. भारत की तट रेखा पर रहने वाली जनसंख्या के पैमाने और आज हमारे पास मौजूद समस्या की भयावहता को देखते हुए, यह हमारी तट रेखाओं पर आर्थिक और पारिस्थितिक गतिविधि को विनियमित करने के लिए तटिये नियमन क्षेत्र आवश्यक हैं.

सीआरज़ेड नियम समुद्र के समीप के नाजुक पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा करने के लिए तट के करीब मानवीय और औद्योगिक गतिविधि को संचालित करते हैं. वे मूल रूप से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत अनिवार्य हैं, पहली बार 1991 में प्रारूप दिया गया था और समुद्र तट से एक निश्चित दूरी के भीतर नए उद्योगों, बड़े निर्माण, खनन, भंडारण या खतरनाक सामग्री के निपटान की गतिविधियों को प्रतिबंधित करने की मांग की गई थी.

इन नियमों के अनुसार, विनियमन क्षेत्र को उच्च-ज्वार रेखा से 500 मीटर तक के क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है. क्षेत्र की आबादी, तट से दूरी, पारिस्थितिक संवेदनशीलता और अगर वह क्षेत्र किसी प्राकृतिक पार्क या वन्यजीव क्षेत्र के रूप में नामित किया गया है, तो विभिन्न मानदंडों के आधार पर प्रतिबंध लागू किए जाएंगे.

केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 18 जनवरी, 2019 को 2019 के तटीय विनियमन क्षेत्र (सीआरजेड) मानदंडों को अधिसूचित किया, जो 2011 के मौजूदा सीआरजेड मानदंडों को प्रतिस्थापित कर दिया है. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 3 के तहत जारी किए गए नए सीआरजेड मानदंडों का उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री स्तर में वृद्धि जैसे प्राकृतिक खतरों को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर सतत विकास को बढ़ावा देना है.

मानदंड तटीय क्षेत्र में मछुआरा समुदायों और अन्य स्थानीय समुदायों को आजीविका को सुरक्षा प्रदान करते हुए इन क्षेत्रों और समुद्री क्षेत्रों के पर्यावरण के सुरक्षा और संरक्षण का प्रावधान भी सुनिश्चित करना चाहते हैं.

मुद्दे और चिंताएँ:

जबकि नए सीआरजेड नियम पुराने मानदंडों में बदलाव कर रहे हैं, यहाँ कुछ चिंता के क्षेत्र हैं, जिन्हें नीति निर्माताओं द्वारा इन मानदंडों के कार्यान्वयन को अधिक समावेशी बनाने और उन्हें अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ध्यान में रखने की आवश्यकता है. नवीनतम नियमों में, सीआरजेड -III (ग्रामीण) क्षेत्रों की श्रेणी को दो अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया है, सीआरजेड-III ए और सीआरजेड-III बी. सीआरजेड -III की श्रेणी सीआरजेड III ए क्षेत्रों के साथ घनी आबादी वाले वो ग्रामीण क्षेत्र हैं जिनकी जनसंख्या घनत्व 2011 की जनगणना के अनुसार 2161 प्रति वर्ग किलोमीटर है.

ऐसे क्षेत्रों में उच्च ज्वार रेखा (एचटीएल) से 50 मीटर का नो डेवलपमेंट ज़ोन (एनडीज़ेड) है, जबकि सीआरजेड अधिसूचना, 2011 में निर्धारित उच्च ज्वार रेखा से 200 मीटर की दूरी पर है. दूसरी ओर, सीआरजेड-III ग्रामीण क्षेत्रों की सीआरजेड-III बी श्रेणी में 2011 की जनगणना के अनुसार जनसंख्या घनत्व 2161 प्रति वर्ग किलोमीटर से कम है.

ऐसे क्षेत्रों में एचटीएल से 200 मीटर तक नो डेवलपमेंट ज़ोन है. इस संदर्भ में, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि निवासियों को तट रेखा से 50 मीटर की दूरी पर रहने की अनुमति देना संभवत: उन्हें प्राकृतिक आपदाओं के खतरों की ओर धकेल सकता है. इस प्रकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रयासों की आवश्यकता है और यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि सुरक्षा मानकों का कड़ाई से पालन किया जाए.

दूसरा मुद्दा सीआरजेड -IV से संबंधित है. इसमें 12 समुद्री मील तक फैले तटीय पानी की उथला क्षेत्र शामिल है. यह छोटे मछुआरों के लिए एक महत्वपूर्ण मछली पकड़ने का क्षेत्र है. नवीनतम सीआरजेड बंदरगाह, बंदरगाहों और सड़कों की स्थापना, उपचारित अपशिष्टों के निर्वहन के लिए सुविधाओं, खतरनाक पदार्थों के हस्तांतरण और स्मारिका या स्मारकों के निर्माण के लिए भूमि पुनर्ग्रहण की अनुमति देता है, जो मछली पकड़ने की गतिविधि को प्रभावित कर सकता है.

इस संदर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत में लगभग 1.2 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए मछली पकड़ने पर निर्भर हैं. इन विनियमों से प्रभावित होने वाली जनसंख्या के विशाल पैमाने को देखते हुए, स्थानीय समुदायों के जीवन और आजीविका पर नए नियमों के प्रभाव पर विचार करने की आवश्यकता है और इन नियमों के कार्यान्वयन के कारण इनके जीवन व्यापन के खोये साधनों की भरपाई के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी.

इसके अलावा, बढ़ती हुई अपतटीय गतिविधियों के कारण प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए एक सख्त सतर्क और पर्यवेक्षण तंत्र की आवश्यकता होगी, क्योंकि सीआरजेड -IV श्रेणी के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र बड़े पैमाने पर मानव और औद्योगिक गतिविधि से प्रभावित होगा.

तीसरा मुद्दा यह है कि नए सीआरजेड नियम पर्यावरण पर्यटन गतिविधियों जैसे मैंग्रोव में सैर, पेड़ों ने झोपड़ियों का निर्माण, प्रकृतिक पगडण्डी का निर्माण आदि को उन पर्यावरण संवेदी क्षेत्रों में किये जाने की अनुमति देता है, जिन्हें सीआरजेड-आईए के रूप में सीमांकित किया गया है. हालांकि, यह रोजगार के अवसरों और राजस्व को बढ़ावा देता है, यहां यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा कि इन गतिविधियों पर निगरानी करने के लिए, उन्हें ​​क्रमबद्ध करने के लिए और सुव्यवस्थित करने के लिए एक संस्थागत तंत्र हो जो भारत की तट रेखाओं के साथ प्रवाल शैल श्रेणियों, मैंग्रोव और रेत के टीले की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके.

अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण, केंद्र और राज्यों के बीच सहकारी संघीय भावना की आवश्यकता है. यह इस तथ्य के कारण है कि, सीआरजेड नियम केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा बनाए गए हैं. हालांकि, उनका कार्यान्वयन राज्य सरकारों द्वारा उनके तटीय क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरणों के माध्यम से किया जाना है. इसलिए, राज्यों को केंद्रीय नियमों के अनुसार अपने स्वयं के तटीय क्षेत्र प्रबंधन योजनाओं को तैयार करना होगा. यहां राजनीतिक बयानबाजी और हितों को दरकिनार कर केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय और सहयोग की अधिक आवश्यकता है.

उन्हें भारत के लिए एक सुरक्षित, स्वच्छ और समृद्ध तट रेखा को प्राप्त करने के बड़े उद्देश्य को अर्जित करने के लिए मिलकर काम करने की आवश्यकता है. ऐसे में, यह याद रखना आवश्यक है कि आर्थिक विकास के लिए हमेशा एक मूल्य चुकाना पड़ता है. यहां इस सवाल का जवाब देना मायने रखता है कि, आर्थिक भलाई हासिल करने के लिए हम किस हद तक पारिस्थितिक संतुलन का त्याग कर सकते हैं. यह जितना संतुलित होगा, उतना ही सतत विकास होगा.

(लेखक - डॉ. महेंद्र बाबू कुरुवा, एचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड में सहायक प्रोफेसर हैं)

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