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'बिना इजाजत वन भूमि पर चिड़ियाघर नहीं खोल सकती सरकार', जानें सुप्रीम कोर्ट ने क्यों जारी किया ऐसा आदेश

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Feb 20, 2024, 2:21 PM IST

Supreme court on Forest Conservation Act : जंगल की जमीन पर सरकार न तो चिड़िया घर खोल सकती है और न ही सफारी की इजाजत दी जा सकती है. अगर सरकार इस तरह के किसी भी प्रस्ताव को लाना चाहती है, तो उसे सुप्रीम कोर्ट से इजाजत लेनी होगी. यह आदेश खुद सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया है. दरअसल, कोर्ट ने केंद्र सरकार के उस कानून पर ही सवाल उठा दिए हैं, जिसे मोदी सरकार ने कुछ महीने पहले ही पारित किया था. सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले को पर्यावरण से संबंधित ऐतिहासिक गोदावर्मन केस से जोड़ दिया है. क्या है पूरा विवाद, जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर.

Supreme court on Forest Conservation Act 1980
प्रतिकात्मक तस्वीर.

हैदराबाद: सुप्रीम कोर्ट वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवायी कर रहा है. इस मामले में सुनवाई के दौरान कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित करते हुए कहा कि बिना मंजूरी के किसी नए चिड़ियाघर, सफारी की शुरुआत नहीं की जा सकती. इस याचिका में याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि संशोधित कानून में 'वन' की व्यापक परिभाषा को धारा 1ए के तहत संकुचित कर दिया गया है. संशोधित कानून के अनुसार,'वन' के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए भूमि को या तो जंगल के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए या सरकारी रिकॉर्ड में विशेष रूप से जंगल के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए.

Supreme court on Forest Conservation Act 1980
प्रतिकात्मक तस्वीर.

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने 2023 के वन संरक्षण कानून में संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाली वन भूमि का विवरण केंद्र को इस वर्ष 31 मार्च तक मुहैया कराने का निर्देश दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में कहा कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) को 1996 में जारी ऐतिहासिक टीएन गोदावर्मन थिरुमलपाद बनाम भारत संघ के फैसले में निर्धारित 'वन' की परिभाषा के अनुसार काम करना चाहिए.

शीर्ष अदालत ने इस अभ्यावेदन पर गौर किया कि संरक्षण संबंधी 2023 के संशोधित कानून के तहत वन की परिभाषा में लगभग 1.99 लाख वर्ग किलोमीटर वन भूमि को 'जंगल' के दायरे से बाहर रखा गया है और इसका उपयोग अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. अदालत ने यह बात नोट की कि सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज भूमि की पहचान करने की प्रक्रिया संशोधित कानून के अनुसार जारी है.

Supreme court on Forest Conservation Act 1980
प्रतिकात्मक तस्वीर.

सोमवार को कोर्ट ने क्या आदेश दिये

  1. वन भूमि पर चिड़ियाघर खोलने या 'सफारी' शुरू करने के किसी भी नए प्रस्ताव के लिए अब न्यायालय की मंजूरी की आवश्यकता होगी.
  2. राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को उनके अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाली वन भूमि का विवरण केंद्र को इस वर्ष 31 मार्च तक मुहैया कराने का निर्देश दिया.
  3. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की ओर से प्रदान किए जाने वाले 'वन' जैसे क्षेत्र, अवर्गीकृत वन भूमि और सामुदायिक वन भूमि' संबंधी विवरण को 15 अप्रैल तक अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराएगा.
  4. पीठ ने अपने अंतरिम आदेश में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से टी एन गोदावर्मन तिरुमुलपाद बनाम भारत संघ मामले में 1996 के फैसले में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित 'वन' की परिभाषा के अनुसार काम करने को कहा.

क्या है वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 की मुख्य बातें

Supreme court on Forest Conservation Act 1980
प्रतिकात्मक तस्वीर.
  1. सरकार के मुताबिक, विधेयक का प्राथमिक उद्देश्य गोदावर्मन मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संबंधित किसी भी अनिश्चितता को खत्म करना है. इसका उद्देश्य 'वन' की परिभाषा पर स्पष्टता प्रदान करना और कुछ प्रकार की वन भूमि को छूट देना है.
  2. इस विधेयक में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं या नियंत्रण रेखा (एलओसी) के साथ 100 किमी की दूरी के भीतर 10 हेक्टेयर तक राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित रणनीतिक रैखिक परियोजनाओं के निर्माण के लिए उपयोग करने का प्रस्ताव है.
  3. रेलवे लाइन या सरकार की ओर से प्रबंधित सार्वजनिक सड़क के किनारे स्थित 0.10 हेक्टेयर तक के वन; निजी भूमि पर वृक्षारोपण जो पूर्व वन मंजूरी प्राप्त करने की आवश्यकता से वन के रूप में वर्गीकृत नहीं है.

क्यों मामला कोर्ट में पहुंचा

  1. पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर चिंता है कि यह संभावित रूप से हिमालय, ट्रांस-हिमालयी और उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण वनों को पूर्व वन मंजूरी प्राप्त करने से बाहर कर देगा. इससे ये क्षेत्र जो विभिन्न प्रकार की स्थानिक प्रजातियों के घर हैं, उन प्रजातियों के लिए सुरक्षित नहीं रह जायेंगे. साथ ही इससे जैव विविधता के लिए भी खतरा उत्पन्न होगा.
  2. अधिकांश वन क्षेत्र पहले से ही अस्थिर बुनियादी ढांचे के विकास और चरम मौसम की घटनाओं के प्रति संवेदनशील है, और उन्हें वन मंजूरी आवश्यकताओं से छूट देने से केवल उनकी भेद्यता बढ़ेगी.
  3. वन अधिकार समूहों का तर्क है कि सरकार जो छूट प्रदान करना चाहती है वह 2006 के वन अधिकार अधिनियम के खिलाफ है.

टी एन गोदावर्मन तिरुमुलपाद बनाम भारत संघ एवं अन्य केस, 1996

  1. टी एन गोदावर्मन तिरुमुलपाद बनाम भारत संघ एवं अन्य. यह भारत में एक ऐतिहासिक पर्यावरणीय मामला है. जिसकी सुनवाई पहली बार 1996 में सुप्रीम कोर्ट में हुई थी. इस मामले को आमतौर पर 'गोदावर्मन केस' के रूप में जाना जाता है.
  2. यह मामला टी.एन. गोदावर्मन की ओर से दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) के रूप में शुरू हुआ. गोदावर्मन थिरुमुल्कपाद एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी थे. उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में उचित पर्यावरणीय मंजूरी के बिना किए जा रहे खनन, उत्खनन और निर्माण जैसी विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों के कारण वन भूमि के क्षरण के बारे में चिंता जताई थी.
  3. केस में मुख्य जिरह इस मुद्दे पर केंद्रीत थी कि क्या हमारे देश में में जंगलों को गैर-वन उद्देश्यों के लिए मोड़ा जा सकता है. यदि हां, तो किन परिस्थितियों में. अदालत ने माना कि जंगलों को गैर-वन उद्देश्यों के लिए मोड़ा जा सकता है, लेकिन केवल कुछ शर्तों के तहत और आवश्यक पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त करने के बाद. यह मामला भारत के पर्यावरण न्यायशास्त्र को आकार देने में महत्वपूर्ण माना जाता है.

गोदावर्मन केस के फैसले की मुख्य बातें

  1. गोदावर्मन मामले में मुख्य मुद्दा केंद्र सरकार से आवश्यक अनुमोदन प्राप्त किए बिना गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का डायवर्जन था. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एफसीए को वनों के संरक्षण और वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किया गया था, और गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का कोई भी परिवर्तन सख्ती से कानून के अनुसार और उचित परिश्रम के बाद किया जाना चाहिए.
  2. अदालत ने यह भी माना कि एफसीए के तहत केंद्र सरकार की शक्ति घोषित 'आरक्षित वन' या 'संरक्षित वन' तक सीमित नहीं थी. फिर भी, यह भारत के सभी जंगलों तक फैला हुआ है, चाहे वह सार्वजनिक या निजी भूमि पर हो.
  3. न्यायालय ने वन संरक्षण में सतत विकास के महत्व पर जोर दिया और वनवासियों और आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला. न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि वनों की सुरक्षा और संरक्षण किया जाए, केंद्र और राज्य सरकारों को कई निर्देश जारी किए.

वन संरक्षण कानूनों को सुदृढ़ बनाने वाला फैसला :

  1. गोदावर्मन मामले ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 और वन (संरक्षण) नियम, 1981 की सख्त व्याख्या और कार्यान्वयन को जन्म दिया है, जो भारत में वनों के संरक्षण और वन्यजीवों की सुरक्षा प्रदान करते हैं.
  2. इस मामले ने वनों की रक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है और वनवासियों और आदिवासी समुदायों के अधिकारों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है.

पर्यावरण प्रशासन में न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका

  1. इसने पर्यावरण प्रशासन में एक प्रहरी के रूप में न्यायपालिका की भूमिका स्थापित की.
  2. इस मामले ने पर्यावरण की रक्षा में न्यायपालिका के महत्व पर प्रकाश डाला है और पर्यावरणीय निर्णयों की अधिक सार्वजनिक जांच की है.

पर्यावरण पर अन्य ऐतिहासिक निर्णय

Supreme court on Forest Conservation Act 1980
प्रतिकात्मक तस्वीर.
  1. एमसी मेहता बनाम भारत संघ: यह मामला गंगा नदी के प्रदूषण से संबंधित है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नदी को साफ करने और आगे प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कई निर्देश जारी किए. मामले ने 'प्रदूषक भुगतान करेगा' सिद्धांत स्थापित किया, जो मानता है कि प्रदूषणकर्ता को निवारण की लागत वहन करनी होगी.
  2. वेल्लोर नागरिक कल्याण मंच बनाम भारत संघ: यह मामला वेल्लोर नदी के प्रदूषण से संबंधित है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने क्षेत्र में औद्योगिक प्रदूषण को रोकने और नियंत्रित करने के लिए सरकार को कई निर्देश जारी किए थे.
  3. स्टरलाइट इंडस्ट्रीज (इंडिया) लिमिटेड बनाम भारत संघ: यह मामला तमिलनाडु में तांबा गलाने वाले संयंत्र के संचालन से संबंधित है जो पर्यावरण प्रदूषण का कारण बन रहा था. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण संबंधी चिंताओं का हवाला देते हुए संयंत्र को बंद करने का आदेश दिया.

फैसले की आलोचना : वन संरक्षण कानूनों की सख्त व्याख्या के लिए फैसले की आलोचना की गई है. तर्क दिया गया कि इससे आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न हुई है और समुदायों का विस्थापन हुआ है. कहा गया कि पर्यावरण प्रशासन में न्यायपालिका की भूमिका के बढ़ने के कारण, यह तर्क देते हुए कि इससे निर्णय लेने और परियोजना कार्यान्वयन में देरी हुई है.

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