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खुमार बाराबंकवी : कलम की रूह न मरे इसलिए छोड़ दिया फिल्मों में गाना लिखना

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Published : Sep 15, 2021, 9:44 AM IST

खुमार बाराबंकवी : कलम की रूह न मरे इसलिए छोड़ दिया फिल्मों में गाना लिखना

वैसे तो खुमार हर छोटी बड़ी नशिस्त में अपनी गजलें पढ़ते थे लेकिन साल 1938 में उन्होंने जो बरेली में मुशायरा पड़ा कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. दो साल में खुमार ने अपनी गजलों से धूम मचा दी. यह दौर जिगर मुरादाबादी का था लेकिन खुमार के तरन्नुम से ग़ज़ल पढ़ने के अंदाज ने उन्हें जिगर मुरादाबादी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया.

जन्मदिन विशेष

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बाराबंकी.अपनी गजलों और एक से एक बेहतरीन गीतों से बाराबंकी का नाम देश दुनिया में रोशन करने वाले खुमार बाराबंकवी का आज जन्मदिन है. ईटीवी भारत आज उनके इस मुकाम तक पहुंचने के कुछ अनछुए पहलुओं पर भी प्रकाश डालेगा.

शेरो शायरी गीत-संगीत और साहित्य में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई हो जिसने खुमार बाराबंकवी का नाम को न सुना हो. 15 सितंबर 1919 को शहर के सट्टी बाजार इलाके में डॉक्टर गुलाम मोहम्मद के घर पैदा हुए खुमार को लोग प्यार से दुल्लन पुकारते थे. इनका असली नाम मोहम्मद हैदर खान था.

खुमार बाराबंकवी : कलम की रूह न मरे इसलिए छोड़ दिया फिल्मों में गाना लिखना

शेरो शायरी इन्हें विरासत में मिली थी. वालिद बहार बाराबंकी और चचा करार बाराबंकवी के तखल्लुस (उपनाम) से शायरी किया करते थे. घर के करीब सिटी इंटर कॉलेज से आठवीं क्लास पास करने के बाद खुमार ने शहर के जीआईसी में अपना दाखिला लिया. जीआईसी में एक मुशायरे में पहली बार खुमार ने अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो आयोजक मंडल की आंखें फटी की फटी रह गईं. बस यहीं से उनका तखल्लुस खुमार हो गया. मन तो शेरो शायरी में लगा था, लिहाजा उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और शायरी करने लगे.

अपने तरन्नुम के लिए मशहूर

वैसे तो खुमार हर छोटी बड़ी नशिस्त में अपनी गजलें पढ़ते थे लेकिन साल 1938 में उन्होंने जो बरेली में मुशायरा पड़ा कि फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. दो साल में खुमार ने अपनी गजलों से धूम मचा दी. यह दौर जिगर मुरादाबादी का था लेकिन खुमार के तरन्नुम से ग़ज़ल पढ़ने के अंदाज ने उन्हें जिगर मुरादाबादी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया.

रास न आई फिल्मी दुनिया

खुमार मकबूल हुए तो 40 के दशक में वह मुंबई चले गए. वहां उनकी मुलाकात मशहूर फिल्म मेकर एआर कारदार से हुई. उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का काम मिल गया. उन्होंने फिल्म शहंशाह, रुखसाना, बारादरी जैसी तमाम फिल्मों में गीत लिखे लेकिन अपने आजाद खयालों के चलते जल्द ही वे फिल्मी दुनिया से ऊब गए. उससे किनारा कर लिया. हालांकि इस दौरान वो अपने जूनियर शायरों के लिए फिल्मी गीत लिखते रहे. उन्हें जब लगा कि इससे उनके कलाम की रूह खत्म हो जाएगी तो वे मुंबई से वापस आ गए.

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आखिर समय तक मुशायरों में करते रहे शिरकत

खुमार जब तक जिंदा रहे, मुशायरों में शामिल होते रहे. एक वक्त ऐसा भी आया कि वे मुशायरे की जान माने जाने लगे. उनके बगैर कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता था. उनकी मौजूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती थी.

इनका तरन्नुम और हर मिसरे के बाद आदाब कहने की जो अदा थी वो इनको सबसे अलग करती थी. लोग इनका कलाम सुनने के लिए रातभर बैठे रहते थे. इनका कलाम सुनते ही मुशायरे का मजमा उखड़ जाता था. यही वजह थी कि उस वक्त के एक से एक मशहूर शायर भी इनसे पहले अपना कलाम सुना देने के लिए उतावले रहते थे.

खुमार बाराबंकवी : कलम की रूह न मरे इसलिए छोड़ दिया फिल्मों में गाना लिखना

बाराबंकवी ने सबको छोड़ा पीछे

यूं तो बाराबंकी ने मौलाना माजिद दरियाबादी, राजनेता रफी अहमद किदवई, समाजवादी नेता रामसेवक यादव, ममशहूर हाकी खिलाड़ी केडी सिंह बाबू जैसे एक से एक नायाब हीरे दिए हैं. लेकिन जो मकबूलियत और शोहरत खुमार को मिली, वह एक मिसाल है. उनके करीबी बताते हैं कि उनके नाम के साथ बाराबंकी का जुड़ा होना इसकी एक बड़ी वजह रही.

सादगी की मिसाल रहे खुमार

खुमार साहब इतने सादगी पसंद थे कि उनके अंदर कभी किसी चीज की ख्वाहिश नहीं रही. यही वजह है कि उन्होंने अपना मकान तक नहीं बनवाया. खुमार ने रहने के लिए कोई अच्छा मकान भले ही न बनवाया हो लेकिन लोगों के दिलों में रहने की जगह जरूर बना ली.

यही सादगी आज भी उनके परिवार में कायम है.उनके परिवार के लोगों के सीने उस वक्त चौड़े हो जाते हैं जब किसी महफ़िल में खुमार साहब के घर वाले कहकर इनका परिचय कराया जाता है. परिवार वालों को फख्र है कि खुमार के नाम से बाराबंकी की पहचान है.

खुमार बाराबंकवी : कलम की रूह न मरे इसलिए छोड़ दिया फिल्मों में गाना लिखना
मशहूर गीततस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नही बनती...(बारादरी)भुला नही देना जी भुला नही देना,जमाना खराब है...( बारादरी)ऐ दिले बेकरार...( शाहजहां)मोहब्बत की बस इतनी दास्तां है..( बारादरी)खुमार बाराबंकवी ने शाहजहां, बारादरी, हलचल, लव एंड गॉड, साज और आवाज जैसी करीब दो दर्जन फिल्मों में नगमे लिखें. यही नहीं, उनकी गजलों के हदीसे दीगरा, रक्स-ए-मय, आतिश-ए-तर और शब-ए-ताब जैसे 4 कलेक्शन भी प्रकाशित हुए जिनको सुनकर या पढ़कर बिना गुनगुनाए नहीं रहा जा सकता. इनकी लिखी गजलों के कलेक्शन को कई यूनिवर्सिटी में पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है.

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