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आंखें नहीं, 'नजर' IAS पर : ब्लाइंड देवेंद्र सिंह चौहान की Success Story...उन्हीं की जुबानी

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Published : Jul 14, 2021, 6:00 PM IST

आरएएस परीक्षा-2018 में ब्लाइंड कैटेगरी में अलवर जिले के बानसूर निवाीस देवेंद्र सिंह चौहान ने छठी रैंक हासिल की है. छठी क्लास में आंखें चली गईं थी. लोग कहते थे कि आंखें गईं तो संसार गया. घर के हालात खराब थे. पढ़ाई के साथ-साथ मजदूरी की, बजरी की ट्रॉलियां भरी. अब तीसरी बार सरकारी सेवा में चयन हुआ है. देवेंद्र दृष्टिहीन हैं, लेकिन उनकी नजर अब IAS परीक्षा पास करने पर है.

देवेंद्र सिंह आरएएस-2018
देवेंद्र सिंह आरएएस-2018

बानसूर (अलवर). आरएएस-2018 में ब्लाइंड कैटेगिरी में 6वीं रैंक हासिल करने वाले देवेंद्र सिंह से मिलना बेहद प्रेरक रहा. उन्हें जहां भर की बधाइयां मिल रही हैं. लेकिन आरएएस में चयन के बाद भी वे यहीं नहीं थमना चाहते. आईएएस बनना चाहते हैं. कहते हैं कि उन्हें अगर एसडीएम की पोस्ट नहीं मिली तो वे आरएएस भी छोड़ देंगे.

दृष्टिहीन होने के बाद भी कंप्यूटर कैसे चला लेते हैं. इस सवाल का जवाब देते हुए देवेन्द्र हमारे सामने ही कंप्यूटर के की-बोर्ड पर उंगलियां चलाने लगते हैं. कहते हैं कि सुनकर भी बहुत कुछ किया जा सकता है. कंप्यूटर में वॉइस ऑप्शन भी होता है. आप जो टाइप कर रहे हैं उसे सुन भी सकते हैं. उन्होंने कंप्यूटर पर अपनी पत्नी अंकिता का नाम टाइप करके दिखाया.

देवेंद्र सिंह की कहानी, उन्हीं की जुबानी

पत्नी अंकिता चौहान ने देवेंद्र का हर कदम पर बखूबी साथ दिया. वे उनकी तैयारी कराती रहीं. देवेंद्र अपनी बचपन को याद करते हुए कहते हैं कि बात 2006 की है, छठी क्लास में था जब कक्षा में बैठे-बैठे ही आंखों की रोशनी चली गई. बहुत इलाज कराया लेकिन फायदा नहीं हुआ. गरीब थे इसलिए कानबेलिया से इलाज कराया, उसने ऐसा सुरमा डाला कि आंखों की बची हुई रोशनी भी चली गई. लोग कहने लगे कि आंखें चली गई तो संसार चला गया. सलाह देने लगे कि देवा को वृंदावन या गोवर्धनजी छोड़ दो, भीख मांगकर खा लेगा, कौन बैठाकर जिंदगीभर खिलाएगा.

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पिता मजदूर थे. एक झोंपड़ी में परिवार रहता था. हालात इतने दयनीय कि नेत्रहीन होने के बावजूद देवेंद्र ने भी मजदूरी की. बजरी की ट्रॉलियां भरीं.

एक दिन रेडियो पर जयपुर के ब्लाइंड स्कूल और ब्रेल लिपी के बारे में सुना. वहां दाखिला लिया. बस, वही जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट था. पता चला कि ब्लाइंड लोग अधिकारी भी बनते हैं. आदेश देते हैं. समाज के काम करते हैं. तभी ठान लिया था कि अधिकारी बनूंगा.

देवेंद्र ने मन लगाकर पढ़ाई की. कंप्यूटर और ब्रेल लिपी को सीखा. उन्होंने जयपुर से ही कंप्यूटर्स में ग्रेजुएशन किया और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगे. 1 जुलाई 2013 में वे पंचायती राज एलडीसी पद पर चयनित हो गए. लेकिन यह उनका लक्ष्य नहीं था. लगन लग चुकी थी. वे जॉब के साथ-साथ लगातार तैयारी करते रहे. 2017 में दूसरी पोस्टिंग सिनियर क्लर्क, मण्डल रेल प्रबंधक कार्यालय रतलाम (पश्चिम रेलवे) के तौर पर हुई. इससे पहले 2016 में उन्हें आरएएस में सर्विस अलॉट हो गई थी. खाद्य एवं नागरीक आपूर्ति में अधिनस्थ सेवा पर वे नौकरी करना नहीं चाहते थे, इसलिए ज्वाइन नहीं किया.

वे कहते हैं IAS बनना मेरा अंतिम लक्ष्य है. इस नौकरी में भी एसडीएम ही बनना चाहता हूं, वरना दोबारा तैयारी करूंगा. पिछली दफा आईएएस के मेन्स में वे 1 नंबर से रह गए थे. पिछले साल कोरोना के कारण तैयारी नहीं कर सके. अब 2021 में आरएएस में चयनित होने के बाद भी उनका टारगेट फिक्स है.

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देवेंद्र कहते हैं कि वे आरएएस में भी SDM बनकर लोगों की सेवा करना चाहते हैं. रेलवे में बतौर सीनियर क्लर्क के पद पर रतलाम में काम करते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखा. दफ्तर से घर आते और 1500 पेज वाली किताब पत्नी अंकिता के सहयोग से पढ़ते.

2019 में देवेंद्र की शादी अंकिता से हो गई. शादी के बाद अंकिता ने देवेंद्र का भरपूर साथ दिया. वे न केवल उनका पूरी तरह ध्यान रखती हैं बल्कि हर कदम पर उनकी तैयारी में साथ भी देती हैं. किताबों की रिकॉर्डिंग करने में अंकिता देवेंद्र का साथ देती हैं. देवेंद्र के गांव बानसूर बलवा का बास ढाणी में खुशी की लहर है. माता-पिता खुद को धन्य मानते हैं. पिता सुभाष चौहान खेती संभालते हैं.

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