रांची: कहने के लिए तो झारखडं में लालू यादव की पार्टी आरजेडी सत्ताधारी दल है, लेकिन राज्य में पार्टी के पास न कोई अध्यक्ष है, ना कोई सचिव और ना ही कोई उपाध्यक्ष है, यूं कहें तो पार्टी पदाधिकारी विहीन है. क्योंकि लगभग दो महीने पहले आरजेडी के आलाकमान ने झारखंड में सभी पदों को भंग कर दिया था.
साल 2022 झारखंड में आरजेडी के चुनौतियों से भरा रहने वाला है. क्योंकि इस साल यहां पंचायत चुनाव होने वाला है. कहा जाता है कि अगर किसी पार्टी के जनाधार को मजबूत करना है तो पार्टी पंचायत स्तर पर मजबूत होना होगा. ऐसे में जब राज्य में पंचायत चुनाव है तो राज्य में पार्टी नेतृत्व वीहिन है. जब राज्य में कोई नेतृत्वकर्ता ही नहीं है तो जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के उत्साह और जोश कौन भरेगा, पार्टी मजबूत कैसे होगी?
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लालू यादव वाली राष्ट्रीय जनता दल अब 2 राजद बन गई है. बिहार के लिए एक राजद और दूसरे राज्यों के लिए दूसरा राजद. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के लिए एक नीति और दूसरे राज्यों के लिए राष्ट्रीय जनता दल की अलग नीति और इसी राजनीति के ताने-बाने के बीच झारखंड राजद अपने लिए निगहबानी की राह देख रही है. झारखंड में राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति कर रहे लोगों को अब इस बात का डर सताने लगा है कि बिहार के लिए जो राजनीति राजद बनाती है वह झारखंड के लिए इतनी मजबूती से लागू नहीं कर पा रही है और यही वजह है कि झारखंड में सभी पदों के भंग होने के बाद अब महीनों बीत चुके हैं लेकिन राष्ट्रीय जनता दल की तरफ से इस पर कोई बड़ा निर्णय होता नहीं दिख रहा है. लालू बीमार हैं, तेजस्वी की शादी हो गई है, तेज प्रताप नाराज चल रहे हैं यह सब कुछ बिहार में हो रहा है लेकिन झारखंड में बस इंतजार.
2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव के समय में इस बात को लेकर के सबसे ज्यादा रस्साकशी शुरू हुई थी कि हेमंत सोरेन के नेतृत्व में जिस चुनाव को बीजेपी के विरोध में लड़ा जाना है उसमें कौन-कौन लोग साथ होंगे. हेमंत सोरेन का सबसे ज्यादा मजबूत आधार था इसलिए मुख्यमंत्री का चेहरा वही होंगे. जिस महागठबंधन को झारखंड में बनाया गया उसके नेता भी हेमंत सोरेन चुन लिए गए. कांग्रेस 1989 के बाद बिहार झारखंड में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के पीछे की ही राजनीति कर रही है. ऐसे में कांग्रेस मुखर होकर के भी हेमंत सोरेन के आगे नहीं जा पाई. सीट बंटवारे को लेकर के राजद और हेमंत के बीच जिच जरूर कायम हुई. हेमंत सोरेन और राष्ट्रीय जनता दल के बीच समझौते की भी बात चली और पूरे राष्ट्रीय जनता दल की कमान संभाल रहे तेजस्वी यादव का कई बार झारखंड का दौरा भी हुआ. यह अलग बात है कि 2019 में राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव चारा घोटाले मामले में रांची के जेल में ही थे इसलिए बहुत सारी नीतियां वहां से भी बन गई. हालांकि सरकारी विरोध और विभेद भी इस तरीके का भी रहा कि वहां पर कई नेता रात में जाकर लालू से मिलते हैं, लेकिन दिन के उजाले के लिए होने वाली राजनीति में एक समझौता हो गया राष्ट्रीय जनता दल और हेमंत सोरेन ने साथ मिलकर चुनाव लड़ लिया और जब सरकार बनी तो उसमें राष्ट्रीय जनता दल की हिस्सेदारी भी एक मंत्री के तौर पर हो गई.
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2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा की तरफ से इस बात की तैयारी जरूर थी कि संभवत: बिहार और झारखंड की सीमा क्षेत्र के जो जिले आते हैं वहां पर झारखंड मुक्ति मोर्चा चुनाव में उतरे लेकिन गठबंधन में ऐसा हो नहीं पाया. बिहार की राजनीति में बने महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वाम दल ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ लिया. झारखंड की कोई भी राजनीति को 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जगह नहीं मिली तो झारखंड में भी बिहार की पार्टियों को बहुत ज्यादा तरजीह मिलना बंद हो गया. लालू यादव जेल में बंद थे तो ऐसा माना जाता था कि राष्ट्रीय जनता दल की सरकार में हिस्सेदारी है तो लालू को कई सारी सुविधाएं मिल जाएंगी. लेकिन यह हो नहीं पाया और यहीं से राष्ट्रीय जनता दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच एक बार फिर राजनीतिक दूरी जगह बनाने लगी.
झारखंड में राष्ट्रीय जनता दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा के बीच समझौते की सियासत चल रही है. वह राजनीतिक उत्तराधिकारी का नया राजनीतिक सफर है. शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत को हेमंत सोरेन ने संभाला है तो लालू यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर तेजस्वी यादव राष्ट्रीय जनता दल में रफ्तार भर रहे हैं. ऐसे में दोनों उत्तराधिकारियों के बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षा का इस रूप में होना भी जरूरी है कि कौन किस पर कितना भारी पड़ता है. इस आधार पर तो कतई नहीं कि झारखंड में चल रही सरकार हेमंत सोरेन की है और हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री हैं तो मुख्यमंत्री बनने के नाते राजनीतिक उत्तराधिकारी का एक बड़ा उत्तर उन्होंने अपने पिता को दे दिया, जबकि तेजस्वी को यह देना बाकी है. राजनीति को दूसरे नजरिए से देखा जाए तो बिहार में सबसे बड़ी राजनीतिक दल को विधानसभा में सीट के आधार पर बैठा देने का काम तेजस्वी यादव ने अपने बूते किया यह उनके राजनीतिक पकड़ को दर्शाता है. लेकिन झारखंड की राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल जो कभी संयुक्त बिहार के शासनकाल में लालू यादव को जनाधार और इतनी मजबूत जमीन दी और मुख्यमंत्री के तौर पर लालू यादव को खूब सराहा. वह अब सियासत में दूसरे राजद की तरह क्यों देख रहा है, यह राष्ट्रीय जनता दल के लिए बड़ा सवाल है?
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इस बात में कोई विभेद नहीं है कि लालू यादव की झारखंड में मजबूत दावेदारी रही है. ऐसे में राष्ट्रीय जनता दल के लिए बड़ी चुनौती यह भी है कि अगर उसे राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनना है तो झारखंड में उसकी हिस्सेदारी वाली राजनीतिक जमीन जो लालू ने तैयार की थी उसे तेजस्वी को बचाना होगा. लेकिन पटना की राजनीति में झारखंड की उपेक्षा साफ तौर पर दिखती है. जिसमें राष्ट्रीय जनता दल की नीतियां बहुत हद तक सिमटती नजर आ रही है और यही वजह है कि झारखंड वाले राजद के लिए बिहार वाले राजद से कोई बड़ी नीति नहीं जा पा रही है.
झारखंड की राजनीति पर बिहार से मजबूत पकड़ को लेकर नहीं पहुंचने का एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है कि सरकार में राष्ट्रीय जनता दल के एक मंत्री तो हैं लेकिन भूमिका और भागीदारी में हेमंत सोरेन ही आगे हैं. जो वोट बैंक राष्ट्रीय जनता दल की है वह बची हुई है इस पर अब बिहार वाली राजद को शक होने लगा है. उस वोट बैंक पर जो पकड़ बढ़ रही है वह संभवतह हेमंत सोरेन की है. यह राष्ट्रीय जनता दल को खटक रही है. जब तक राष्ट्रीय जनता दल, हेमंत सोरेन के साथ सरकार रहेगी इस वोट बैंक पर पकड़ बना पाना मुश्किल है. अगर वोट बैंक पर पकड़ बनाने के लिए तेजस्वी मजबूत राजनीतिक रणनीति के साथ उतरते हैं तो सरकार का साथ उनके हाथ से छूट जाएगा. जो मौजूदा राजनीति के लिए उन्हें ठीक नहीं लग रहा है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो कार्यकर्ता और जिन लोगों ने पार्टी को जनाधार दिया था उनका मनोबल भी लगातार टूट रहा है. अब 2021 की विदाई और 2022 का आगाज यह दोनों चीजें राष्ट्रीय जनता दल के बदलाव और झारखंड में मजबूत राजनीति के कौन से आयाम को खड़ा करता है यह देखने वाली बात होगी. लेकिन एक बात तो साफ है कि राष्ट्रीय जनता दल में दो राजद बन गई है एक बिहार वाली राजद एक झारखंड वाली राजद. क्योंकि बिहार वाली की राजनीति अलग है और झारखंड के लिए राजनीति अभी बनानी है.