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झारखंड में बिरहोर जनजाति से दूर रहा कोरोना, जानें राज

ऐसे समय में जब पूरा झारखंड कोरोना संक्रमण की चपेट में है तब गिरिडीह के बगोदर में रहने वाली आदिम जनजाति बिरहोर तक कोरोना वायरस की आंच तक नहीं पहुंची है. नतीजतन कोरोना की दूसरी लहर खत्म होने को है पर अब भी गांव कोरोना फ्री है, जबकि न तो यहां लोगों की कोरोना जांच कराई गई है और न किसी ने वैक्सीन लगवाई है. इसके पीछे उनकी जीवनशैली और खानपान को वजह बताई जा रही है.

Birhor community away from corona infection
कोरोना संक्रमण से दूर बिरहोर समुदाय

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Published : May 24, 2021, 5:22 PM IST

गिरिडीह:झारखंड के सभी जिले कोरोना संक्रमण से प्रभावित हैं. संक्रमित लोग जहां अस्पतालों का चक्कर लगा रहे हैं, वहीं जिनको संक्रमण नहीं हुआ है वे इस बीमारी से बचने के लिए कई जुगत लगा रहे हैं. लेकिन झारखंड में ही एक ऐसा गांव है. जिस पर कोरोना का अब तक कोई असर नहीं हुआ है. जहां के लोगों ने न तो वैक्सीन लिया है और न ही कोरोना जांच कराई है. इसके बावजूद सभी लोग स्वस्थ हैं.

कोरोना संक्रमण से दूर बिरहोर समुदाय

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कोरोना फ्री बिरहोरटंडा

गिरिडीह के बगोदर प्रखंड के अटका पूर्वी पंचायत के बुढ़ाचांच के बिरहोरटंडा में रहने वाले बिरहोर जनजाति पर कोरोना संक्रमण का असर नहीं पड़ा है. इस समाज में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं हैं जिनको कोरोना संक्रमण हुआ हो. यहां बुजुर्गों से लेकर महिलाएं और बच्चे सभी स्वस्थ हैं. संक्रमण के इस दौर में सभी का स्वस्थ होना जहां सुखद एहसास देता है, वहीं कई लोगों के लिए ये समुदाय प्रेरणास्रोत बना हुआ है.

प्रकृति से है गहरा नाता

बिरहोरटंडा गांव में रहने वाले साहेब राम बिरहोर के मुताबिक इस गांव की आबादी ढाई सौ के करीब है, और यहां के सभी लोगों का रहन-सहन और खान-पान आज भी आदिम है. इस वर्ग के लोग आज भी कंदमूल खाते हैं और जंगली इलाके में रहते हैं. उनके मुताबिक अब तक किसी ने न तो कोरोना वैक्सीन लगवाई है और न ही कोरोना जांच कराई है. फिर भी सभी स्वस्थ हैं यहां के लोगों का मुख्य पेशा कठिन मजदूरी और रस्सी बनाकर गांव गांव में बेचने का है.

जीवनशैली में छिपा है राज

बता दें की शहरों में कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण के लिए कई स्तर पर प्रयास किए जा रहे है. शहर के लोग जहां मास्क, सेनेटाइजर और तमाम तरह ही दवाइयों का उपयोग कोरोना से बचने के लिए कर रहे हैं. वहीं प्रकृति की गोद में बसे और आधुनिकता से दूर इस गांव के लोग अब भी परंपरागत रूप से अपने आप को सुरक्षित रख रहे हैं. ये दवाई नहीं कंदमूल खा रहे हैं. कहा जा सकता है उनका प्रकृति से जुड़ाव ही इस बीमारी के खिलाफ उनका सबसे बड़ा सुरक्षा कवच साबित हो रहा है.

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