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विश्व आदिवासी दिवस: सरकार की पहल के बाद भी नहीं बदली सूरत, केवल वोट बैंक के लिए किया जाता रहा उपयोग

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Published : Aug 9, 2020, 8:41 AM IST

हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. सरकार की तरफ से इनके कल्याण के लिए कई दावे किए जाते हैं लेकिन नतीजा सिफर ही दिखता है. झारखंड राज्य का निर्माण के समय आदिवासी समाज के संपूर्ण विकास की बात कही गई थी लेकिन 20 बरस बीत जाने के बाद उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया. देखिए ये खास रिपोर्ट.

World tribal day
विश्व आदिवासी दिवस

रांची:आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करने के मकसद से दो दशक पहले बने झारखंड में भी इस समुदाय की तस्वीर बहुत नहीं बदली है. हालांकि पिछले 20 वर्षों में इस राज्य ने 11 मुख्यमंत्री देखें जिनमें 10 आदिवासी समुदाय के रहे लेकिन अभी भी इस समुदाय का एक बड़ा वर्ग हाशिये पर है.

देखें स्पेशल स्टोरी

सरकार के आंकड़ों पर नजर डालें तो झारखंड के पांच प्रमंडल में लगभग 32 जनजाति समुदाय हैं जिनमें 8 को विलुप्त प्राय आदिम जनजाति की संज्ञा दी गई है. उनमें असुर, बिरजिया, बिरहोर, पहाड़िया प्रमुख हैं. छोटानागपुर के पठारी इलाके के अंतर्गत पड़ने वाले राजधानी रांची और आस-पास के इलाकों में बिरहोर जनजाति के अलावा आदिवासियों की संख्या बहुतायत है. राजधानी रांची से लगभग 50 किलोमीटर दूर तमाड़ के बीहड़ों में ऐसे ही बिरहोर रहते हैं. जिनका मुख्य व्यवसाय रस्सी बनाना और उन्हें बाजार में बेचकर अपना जीवन यापन करना है.

ईटीवी भारत ने किया ऐसे ही गांव का मुआयना

रांची जिले में पड़नेवाले तमाड़ इलाके में गरुड़पीढ़ी और अमनबुरु कुछ ऐसे गांव हैं. जहां इस समुदाय के लोग निवास करते हैं. वहां रहने वाले लोगों ने साफ तौर पर कहा कि सरकार की योजनाएं उन तक पहुंची हैं लेकिन अभी भी उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. गांव में प्राथमिक स्तर के विद्यालय तो हैं लेकिन चिकित्सा केंद्र का कहीं अता पता नहीं है. अमनबुरु गांव के बिरहोर टोला में रहने वाली चंदना देवी साफ कहती हैं कि एक रस्सी बनाने से उन्हें 15 रुपये की आमदनी होती है. उसमें उनका 5 रुपया मुनाफा शामिल है. हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ मिल रहा है लेकिन गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र का होना जरूरी है.

स्वच्छ भारत अभियान के हो सकते हैं ब्रांड एंबेसडर

दरअसल, गांव में रहने वाले आदिवासी भले कच्चे या मिट्टी के घरों में रहते हों लेकिन इनके घर की सफाई देखकर आम लोग दंग रह जाएंगे. एक तरफ जहां पूरे देश में स्वच्छ भारत मिशन का नारा बुलंद किया जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ इस समुदाय के लोग लंबे अरसे से अपने घर-आंगन की सफाई के लिए जाने जाते हैं. इतना ही नहीं इन कच्चे मकानों में बनी इनकी रसोई पर नजर डालें तो साफ होता है कि सफाई के मामलों में यह किसी तरह का कोई कंप्रोमाइज नहीं करते. गांव की सुनिया देवी साफ तौर पर कहती हैं कि घर और रसोई गोबर से लीपा जाता है और उसके बाद झाड़ू से साफ किया जाता है. उनका दावा है कि ऐसा करने से न केवल साफ सफाई बरकरार रहती है बल्कि एक तरीके से घर और रसोई में संक्रमण भी नहीं फैलता.

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झांकने तक नहीं आते विधायक, अब बदलनी होगी सोच

वहीं उसी इलाके के धनेश्वर लोहरा कहते हैं कि अब तक गांव के लोग अपनी पद्धति से साफ-सफाई मेंटेन करते आ रहे हैं. साथ ही परंपरागत कृषि और अन्य साधन से अपना पेट पालते आ रहे हैं. उन्होंने कहा कि राजनेता आदिवासियों को केवल अपने वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करते हैं. इसी की बानगी है कि तमाड़ विधानसभा के विधायक विकास मुंडा अब तक उनके गांव तक नहीं पहुंचे हैं. उन्होंने साफ तौर पर कहा कि जब विधायक अपने पिता के नाम पर बनाए स्कूल की तरफ झांकने नहीं आते तो आम लोगों की क्या देखरेख करेंगे.

यह है आबादी और अन्य डेटा

जनजातियों की जनसंख्या के आधार पर झारखंड का देश में चौथा स्थान है. वहीं प्रदेश में वास करने वाली अनुसूचित जनजातियां मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में निवास करती हैं. वहीं आदिवासियों की जनसंख्या पर अगर नजर डालें तो 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की आबादी 85 लाख है, जो कुल आबादी का 26.2% है. वहीं राजनीतिक रूप से मजबूती देने के मकसद से झारखंड विधानसभा के 81 सीटों में से 28 आदिवासी जनजाति के लिए रिजर्व की गई है.

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