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Budhi Diwali 2023: यहां आज भी त्योहार के 1 महीने बाद मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली, जानिए क्या है मान्यता

Budhi Diwali 2023: हिमाचल प्रदेश को देवभूमि कहा जाता है. यहां आज भी सदियों पुरानी परंपराओं को मनाया जाता है. इसी तरह इस पहाड़ी राज्य में बूढ़ी दिवाली भी धूमधाम से मनाई जाती है. बूढ़ी दिवाली का संबंध रामायण और महाभारत काल से है. जानिए क्या है बूढ़ी दिवाली की परंपरा और मान्यता.

Budhi Diwali 2023
बूढ़ी दिवाली 2023

By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : Nov 10, 2023, 1:03 PM IST

रामपुर:हिमाचल प्रदेश को देवी-देवताओं की धरती कहा जाता है. यहां की पारंपरिक संस्कृति की अपनी एक अलग पहचान है. हिमाचल के ग्रामीण इलाकों में आज भी त्योहार अपनी पुरानी परंपरा के अनुरूप ही मनाए जाते हैं. एक ऐसा ही त्योहार बूढ़ी दीवाली है, जो कि हर साल पहाड़ी क्षेत्रों में धूमधाम से मनाया जाता है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कई गांवों में आज भी हर साल बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. दिवाली पर्व के ठीक 1 महीने बाद बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. हिमाचल में खासतौर पर सिरमौर, कुल्लू, सराज क्षेत्र, ऊपरी शिमला के इलाके, किन्नौर और उत्तराखंड में कुमाऊं-गढ़वाल के कई पहाड़ी जिलों में आज भी पुरानी परंपरा के अनुसार बूढ़ी दिवाली मनाने सिलसिला जारी है.

क्यों मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली? लेखक व निरमंड के स्थानीय निवासी दीपक शर्मा ने बताया कि बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा रामायण व महाभारत युग से चली आ रही है. पौराणिक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जब भगवान श्री राम रावण वध के बाद माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या आए थे, तो पूरे देश में दिवाली मनाई गई थी, लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में श्री राम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची थी, तब तक पूरा देश दिवाली मना चुका था. मगर पहाड़ी राज्यों के लोगों ने फिर भी इसे उत्सव की तरह मनाया. जिसका नाम फिर 'बूढ़ी दिवाली' पड़ा.

हिमाचल प्रदेश में बूढ़ी दिवाली (फाइल फोटो)

भगवान परशुराम से जुड़ी मान्यता:वहीं, हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू का निरमंड 'पहाड़ी काशी' के नाम से प्रसिद्ध है. बताया जाता है कि यह जगह भगवान परशुराम ने बसाई थी. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार जब वह अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे. उसी दौरान एक दैत्य ने सर्पवेश में भगवान परशुराम और उनके शिष्यों पर आक्रमण कर दिया. जिस पर भगवान परशुराम ने अपने परसे से उस दैत्य को खत्म कर दिया. दैत्य का वध होने पर वहां के लोगों ने जमकर खुशियां मनाई. जिसे आज भी यहां पर बूढ़ी दिवाली वाले दिन मनाया जाता है. इस अवसर पर यहां महाभारत युद्ध के प्रतीक के रूप में युद्ध के दृश्य अभिनीत किए जाते हैं.

लोकगीत और नृत्य कर मनाते हैं जश्न: दीपक शर्मा ने बताया कि इस दौरान लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ हुड़क नृत्य करके जश्न मनाते हैं. कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्योहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है. कई जगहों पर आधी रात को बुड़ियात नृत्य भी किया जाता है. इस दिन लोग एक-दूसरे को सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट बांटकर बधाई देते हैं. वहीं, युवाओं का कहना है कि वह दिवाली के पर्व को भी बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते है और इसके साथ सदियों से चली आ रही बूढ़ी दिवाली को भी परंपरागत तरीके से मनाते हैं. उनका कहना है कि यह परंपरा उनके पूर्वजों के समय से चलती आ रही है.

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