भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा देख अंग्रेज भी रह गए थे चकित
पुरी की विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों जैसे ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण और कपिला संहिता में भी मिलता है. भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की मूर्तियों को मंदिर से बाहर लाकर रथों में स्थापित करने की रस्म को पहंडी कहा जाता है. रथ यात्रा के दौरान 'पुरी के राजा' सोने की झाड़ू से रथों की सफाई करते हैं. इस अनुष्ठान को 'छेरा पहंरा' कहा जाता है. राजा द्वारा भगवान की सेवा करने के बाद ही रथ चलता है. भगवान की सेवा समाज के एक विशेष वर्ग द्वारा की जाती है, जिसे दाहुका कहा जाता है. वे प्रभु की सेवा में तुकबंदी वाली कविताएं गाते हैं. ये कविताएं प्रजनन क्षमता और जीवन के चक्र पर चर्चा करती हैं. कुछ ऐसे शब्द हैं, जिनका उपयोग सार्वजनिक रूप से आमतौर पर नहीं किया जाता है. 1995 में इस परंपरा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन बाद में इसका अभ्यास फिर से शुरू हो गया. यह परंपरा काफी दुर्लभ हो गई है. देवताओं का जुलूस मंदिर से शुरू होकर गुंडिचा मंदिर तक जाता है, जिसे राजा इंद्रद्युम्न की रानी की याद में बनाया गया था. पांचवें दिन, भगवान जगन्नाथ की पत्नी देवी लक्ष्मी अपने पति से मिलने के लिए गुंडिचा मंदिर जाती हैं. रथों में इस्तेमाल होने वाली लकड़ियों का इस्तेमाल बाद में रसोई में खाना बनाने के लिए किया जाता है. यहां एक बार में 1 लाख लोगों के लिए खाना बनाया जा सकता है. यह दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है. ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने जब विशाल रथों को देखा तो वे चकित रह गए और जगन्नाथ को जगरनॉट का नाम दिया. अंग्रेजी शब्दावली के अनुसार इसका अर्थ कुछ बहुत बड़ा या विशाल है.