आज की प्रेरणा
जैसे नदियां सागर को विचलित किये बिना उसमें समा जाती है, वैसे ही स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की बुद्धि भी विषयों में विचरण करते हुए भी उनसे अनासक्त रहता है. जो मनुष्य जितेन्द्रिय है और अनासक्त रहता हुआ कर्मयोग में रत रहता है, शास्त्र विदित कर्तव्य करता है, वही श्रेष्ठ है. ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए की वह स्वयं शास्त्र विदित कार्य करे, उदाहरण प्रस्तुत करे और अज्ञानी जनों को भी शास्त्र सम्मत कार्य करने को प्रेरित करे. जिस प्रकार धुएं से अग्नि, धूल से दर्पण ढका रहता है उसी प्रकार काम और क्रोध से ज्ञानी जनों का ज्ञान भी ढक जाता है. इन्द्रियां, मन व बुद्धि, काम और क्रोध का निवास स्थान है. मनुष्य को काम क्रोध को अपना सबसे बड़ा शत्रु मान लेना चाहिए और इन्द्रियों को वश में कर सर्वप्रथम बलपूर्वक इसका अंत कर देना चाहिए. अकर्म का अर्थ होता है कुछ करके भी न करना अर्थात कर्म तथा कर्म के फल दोनों को, श्री भगवान के चरणों में समर्पित कर देना ही अकर्म कहलाता है. अकर्म करने वाले व्यक्ति से भगवान विकर्म करवाते हैं, विकर्म का अर्थ है विशेष कर्म.