कोलकाता: बहुत पहले की बात है जब 1970 में संयुक्त मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर पश्चिम बंगाल में सरकार बनाई. यही वह समय था जब नक्सली आंदोलन ने गति पकड़नी शुरू की थी और राजनीतिक हत्याएं बड़े पैमाने पर हुईं. 1971 में उस अवधि के दौरान नाटककार सरोज रॉय ने 'गोरूर गरिर हेडलाइट' नाटक बनाया था. जिसे लोग आज भी पसंद करते हैं.
इसका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं था बल्कि यह उस समय की कठोर वास्तविकताओं से 180 डिग्री मुड़कर शुद्ध हंसी का नाटक है. आज नतासेना का यह निर्माण अपने 50वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है. सरोज रॉय ने 1971 में समूह का गठन किया. नाटक का मंचन 8 मार्च 1972 को ब्रताचारी विद्याश्रम के खुले मंच पर किया गया था. वह शुरुआत थी तबसे 50 साल बीत चुके हैं. हाल ही में अकादमी में 1340वें शो का मंचन किया गया था. समूह के सचिव दुलाल देबनाथ ने कहा कि सरोज रॉय अपने नाटक को बकवास कॉमेडी कहा करते थे. लेकिन यह नाटक व्यंग्य क्यों नहीं है? देबनाथ ने कहा कि चुनने, संवाद करने, अभिनय करने और लागू करने में बकवास से समझ में आने का यह एक मजेदार तरीका है.
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प्रत्येक बीतते दिन के साथ बंगाली रंगमंच ने अपनी कुछ चमक खोता रहा. हालांकि इस नाटक की जन अपील अभी भी बरकरार है. देश में बहुत कम थिएटर मंडलियां हैं जिनका नाटक या प्रोडक्शन 50 साल के मील के पत्थर बन गया हो. इस समूह ने बहुत सारी प्रस्तुतियां की हैं लेकिन गोरूर गरिर हेडलाइट की लोकप्रियता और दर्शकों का प्यार बेजोड़ है. टीम के कार्यवाहक उदयन चक्रवर्ती ने कहा कि नाटक का कोई राजनीतिक विषय नहीं है. कोई सहारा नहीं है. कोई संगीत नहीं है सिर्फ वाद्य यंत्र के एक गीत को छोड़कर लेकिन लोग पसंद करते हैं.