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कभी लालू यादव और आनंद मोहन थे सबसे बड़े दुश्मन, अब बने दोस्त

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Published : Oct 13, 2020, 6:10 AM IST

Updated : Oct 13, 2020, 11:50 AM IST

एक दौर ऐसा था, जब आनंद मोहन का जलवा इतना जबरदस्त था कि उनके क्षेत्र में लालू यादव भी जाने से डरते थे लेकिन सियासत भी अपने तरीके की ही पटकथा लिखती है. 1980 के दशक में लालू यादव को खुली चुनौती देने वाले आनंद मोहन और चुनौतियों को लेकर रणनीति बनाने वाले लालू यादव की नई वाली पीढ़ी एक-दूसरे के लिए सत्ता की सीढ़ी बनाने के काम में जुट गए हैं.

Anand Mohan with wife
पत्नी के साथ आनंद मोहन

पटना : बिहार की राजनीति में धनबल, जातिबल और बाहुबल ने हमेशा सियासी बदलाव को दिशा दी है. चुनावों के दागी और बाहुबली नेता पार्टियों में चोर दरवाजे से अपने हनक के बदौलत उपस्थिति दर्ज कराते हैं और समाज में अपने रसूख के बदौलत जीतकर सदन पहुंचते हैं. 1980 के दशक की बात करें तो, बिहार की राजनीति में साधन संपन्न बाहुबली सियासत में पर्याय बन गए थे, सियासत में उनकी हनक क्षेत्रीय क्षत्रप की थी और वहां उनकी ही तूती बोलती थी. सत्ता की गद्दी पर पटना में चाहे जो बैठे लेकिन इलाके में सत्ता और सरकार दोनों उन्हीं की चलती थी. राजनेताओं को सत्ता की गद्दी पर बैठने के लिए बाहुबली का आशीर्वाद लेना जरूरी था. बिहार की सियासत में एक ऐसा ही नाम 1980 के दशक में आनंद मोहन का रहा है. बिहार के कोसी क्षेत्र में इस बाहुबली की तूती बोलती थी.

1980 की राजनीति में शुरुआत

1980 की राजनीति खासतौर से इमरजेंसी के बाद बदले समाजवाद और नए राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिए नेताओं को संपन्न बाहुबलियों के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया. इनके यहां सियासतदानों की गाड़ियां रुकने लगीं और राजनीति को कैसे साध लिया जाए, इसकी नीति बनने लगी. यह किसी एक दल की बात नहीं थी. अगर बात बिहार की करें तो चाहे लालू हो या नीतीश, रामविलास पासवान हों या दूसरे नेता. सभी क्षेत्रों में जीत की गारंटी बाहुबली ही माने जाते थे.

लालू यादव भी डरते थे

बहुबलियों को सत्ता सुख का एहसास हुआ तो खुद ही राजनीति में किस्मत आजमाना शुरू कर दिए. बूथ कैप्चर कर नेता बनाने वाले खुद ही नेता बनने लगे. 1980 का दौर बिहार की राजनीति में इस तरह के बाहुबलियों के सियासत में आने के रास्ते का साल भी कहा जा सकता है. बिहार की राजनीति में आनंद मोहन एक ऐसा नाम थे, जिनकी राजनीति लालू यादव को उनकी ही भाषा में टक्कर देने का काम करती थी. एक दौर ऐसा था, जब आनंद मोहन का जलवा इतना जबरदस्त था कि उनके क्षेत्र में लालू यादव भी जाने से डरते थे लेकिन सियासत भी अपने तरीके की ही पटकथा लिखती है. राजनीति में वर्चस्व को कायम करने के लिए हमेशा बाहुबल का प्रयोग होता है और यही हुआ आनंद मोहन के साथ.

तेजस्वी के साथ आनंद मोहन की पत्नी

जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार से जुड़े

लालू से अदावत के बदौलत बिहार में उनकी साख तो बनी लेकिन राजनीति में बढ़ती महत्वाकांक्षा ने उनको सियासत के कुचक्र का शिकार बना दिया और पूरी सियासत ही चौपट हो गई. 80 के दशक में आनंद मोहन सहरसा और कोसी के क्षेत्र में मजबूत बाहुबली के नाम पर स्थापित हो चुके थे. 1983 में आनंद मोहन पहली बार 3 महीने के लिए जेल गए और 1990 के विधानसभा चुनाव में मेहसी सीट से 62 हजार से ज्यादा वोटों से जनता दल के टिकट पर जीत दर्ज की. हालांकि, आनंद मोहन बहुत ज्यादा दिनों तक जनता दल में नहीं रहे. 1993 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने पीपुल्स पार्टी बनाई. हालांकि, यह पार्टी बहुत मजबूत नहीं हो पाई और यह राजनीति का तकाजा ही था कि आनंद मोहन को समता पार्टी के साथ हाथ मिलाना पड़ा. इसके कर्ताधर्ता तत्कालीन बड़े नेता जॉर्ज फर्नांडिस थे और उनके साथ नीतीश कुमार चल रहे थे.

जिलाधिकारी डी कृष्णैया की हत्या बनी मुसीबत

बिहार की सियासत में स्थापित हो रहे आनंद मोहन ऐसे तमाम बाहुबलियों के साथ दोस्ती भी बना रहे थे, जो एक खास वर्ग के थे और मंडल कमीशन के बाद बदले राजनीतिक हालात में उन नेताओं को टक्कर देने का भी काम कर रहे थे, जो सवर्ण सियासत को राजनीति से किनारे करना चाहते थे. कोसी से आनंद मोहन और मुजफ्फरपुर क्षेत्र से छोटन शुक्ला-भुटकुन शुक्ला गैंग से आनंद मोहन की नजदीकियों ज्यादा बढ़ीं. हालांकि, बढ़ते वर्चस्व में अंडरवर्ल्ड के बीच एक लड़ाई शुरू हो गई और 1994 में मुजफ्फरपुर में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई. हत्या को लेकर इतना ज्यादा उबाल था कि उनके अंतिम संस्कार के लिए जा रही भीड़ ने गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी डी कृष्णैया की हत्या कर दी. डीएम की हत्या ने भले उस समय आनंद मोहन को चर्चा का विषय बनाया लेकिन यही हत्या आनंद मोहन के सियासी चर्चा के खत्म होने का कारण भी बन गई.

जेल भेजने में लालू यादव की अहम भूमिका रही

आनंद मोहन को जेल भेजने में लालू यादव की अहम भूमिका रही. लालू यादव उत्तर बिहार में अपना दबदबा कायम करने के लिए रणनीति बना रहे थे. ऐसे में आनंद मोहन और छोटन-भुटकुन शुक्ला को रोके बगैर यह संभव नहीं था. लालू यादव आनंद मोहन के पीछे पड़ गए थे और यह बात पूरे बिहार की सियासत में फैल गई. परिणाम यह हुआ कि 1996 में आनंद मोहन जेल से ही चुनाव लड़े और समता पार्टी के टिकट पर शिवहर सीट से 40 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गए. आनंद मोहन ने 1998 में शिवहर से चुनाव लड़ा और इस चुनाव को जीता भी लेकिन उसके बाद के चुनाव में आनंद मोहन हारते चले गए.

2007 में निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई

बदलते राजनीतिक हालात और डीएम के हत्या के मामले में साल 2007 में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. निचली अदालत के फैसले को लेकर पटना हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई और पटना हाईकोर्ट ने आनंद मोहन की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. इसकी अपील सर्वोच्च न्यायालय में हुई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रख दिया और तब से आनंद मोहन जेल में हैं. माना यह जाता है कि इस पूरे षडयंत्र के पीछे लालू यादव का हाथ रहा है.

पत्नी और बेटे के साथ आनंद मोहन

लालू यादव ने आनंद मोहन की हत्या का प्लान बना लिया था

यह सियासत का ताना-बाना है कि राजनीति में न कोई किसी का दोस्त होता है ना कोई दुश्मन. जिस आनंद मोहन को लेकर लालू यादव इतने खौफ में थे कि आनंद मोहन की हत्या तक के लिए प्लान बना लिया था और चंद्रशेखर सिंह के हस्तक्षेप के बाद मामले में बीच बचाव हुआ था. अब उसी लालू यादव की पार्टी को मजबूत करने के लिए आनंद मोहन का परिवार जूट गया है. लालू परिवार उनके लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने का काम कर रहा है. मामला साफ है कि दोनों परिवार राजनीतिक अवसरवाद का इतना मजबूत शिकार हुए हैं कि सत्ता ही नहीं, राजनति में उनकी पकड़ ने भी उनसे किनारा कर लिया.

2020 में राजद का हिस्सा हो गया आनंद मोहन का परिवार

2020 के लिए बिछ रही सत्ता की हुकूमत की जंग के लिए सभी राजनीतिक दल अपनी तैयारी में जुटे हैं. राष्ट्रीय जनता दल भी नए तेवर कलेवर के साथ खुद को मजबूत कर रही है. ऐसे में वे लोग अब राजद का हिस्सा हो रहे हैं, जिनकी अदावत कभी बिहार की सियासत में किस्सा हुआ करती थी. आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद सहरसा से चुनाव लड़ेंगी, जबकि उनके बेटे चेतन आनंद शिवहर विधानसभा सीट से राजद के उम्मीदवार हैं. सियासत में बदलाव अपनी उस जरूरत को लेकर होता है, जिसमें सत्ता हर हाल में सिर्फ उसी का फायदा करे. 1980 के दशक में लालू यादव को खुली चुनौती देने वाले आनंद मोहन और चुनौतियों को लेकर रणनीति बनाने वाले लालू यादव की नई वाली पीढ़ी एक-दूसरे के लिए सत्ता की सीढ़ी बनाने के काम में जुट गए हैं.

नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के विरोध में एक हुए

राष्ट्रीय जनता दल की कमान अब लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के हाथ में है और आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद इस आधार पर किसी के भी साथ हाथ मिलाने को तैयार हैं कि जो उनके पिता को जेल से छुड़वाने का कार्य करेगा, वे उसी पार्टी के साथ खड़े होंगे. जातीय समीकरण की गोलबंदी को जिस तरीके से खड़ा किया जा रहा है और नए राजनीति की परिभाषा नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के बदलाव के विरोध में तैयार हो रही है, उसमें आनंद मोहन के परिवार और लालू यादव के परिवार का जुड़ाव कोसी के क्षेत्र में किस तरह का बदलाव करेगा, यह तो जनता की वोट की चोट से पता चलेगा.

जनता करेगी फैसला

एक बात तो साफ है की धनबल-बाहुबल और जातिबल के आधार पर अपनी सियासत को खड़ा करना और फिर से उस पर कब्जा जमाने को लेकर दोनों सियासी परिवार एकजुट हो गए हैं. 2020 में 10 नवंबर को यह साफ होगा कि जनता ने इसे कितनी जगह दी लेकिन एक चीज तो तय हुई है कि विरोध की जो राजनीति थी, उसे प्रेम की राजनीति के साथ खड़ा कर दिया गया है. ये प्रेम कहां तक टिकता है, ये आने वाले समय में ही पता चलेगा.

Last Updated : Oct 13, 2020, 11:50 AM IST

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