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मोतिहारी: आधुनिकता और सोशल मीडिया के दौर में दम तोड़ रही उर्दू लाइब्रेरी, सरकार का ध्यान नहीं

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Published : Sep 22, 2020, 1:37 PM IST

Updated : Sep 22, 2020, 2:15 PM IST

आजादी के पूर्व 1920 में सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर के रुप में उर्दू कुतूबखाना की स्थापना स्थानीय बुद्धिजीवियों के प्रयास से हुई. उर्दू लाइब्रेरी के नाम से मशहूर इस कुतूबखाना को सहेज कर रख पाने में लोग नाकाम साबित हो रहे हैं.

उर्दू लाइब्रेरी
उर्दू लाइब्रेरी

मोतिहारी: लगभग 100 सालों के स्वर्णिम इतिहास को अपने में समेटे मोतिहारी शहर का उर्दू लाइब्रेरी सोशल मीडिया के युग में अपनी अहमियत खोता जा रहा है. एक समय में उर्दू साहित्य के विद्वानों का जमावड़ा यहां लगा रहता था. लेकिन, इसकी विरानगी आधुनिकता के दौर में किताबों के अध्ययन के प्रति लोगों की खत्म होती जा रही रुचि की गवाही दे रही है. अध्ययन-अध्यापन के लिए लोगों की आवाजाही उर्दू लाइब्रेरी में अब नहीं दिखती है. यह केवल सामाजिक और राजनीतिक आयोजनों का स्थल बनकर रह गया है.

वीरान पड़ा लाइब्रेरी परिसर

वर्ष 1920 में स्थापित लाइब्रेरी की समाप्त हो रही अहमियत को देखते हुए स्थानीय साहित्यकारों के साथ बुद्धिजीवी भी काफी निराश दिखाई दे रहे हैं. उर्दू अखबार के पत्रकार ओजैर अंजूम ने उर्दू लाइब्रेरी की खत्म होती जा रही अहमियत के लिए उर्दू पढ़ने-लिखने वालों को जिम्मेवार बताया है. उन्होंने कहा कि उर्दू पढ़ने वाले, उर्दू लिखने वाले और उर्दू जुबान बोलने वाले जब तक इस लाइब्रेरी में नहीं आयेंगे, तब तक इसकी अहमियत नहीं बढ़ेगी.

देखें रिपोर्ट.

'मोबाइल के कारण किताबों से दूर हुए लोग'
सामाजिक कार्यकर्त्ता साजिद रजा के अनुसार आजकल पढ़ने-पढ़ाने के नए दौर के हिसाब से ई-लाईब्रेरी की व्यवस्था भी यहां की गई है. जिसके लिए युवकों की इसके प्रति लगाव जरूरी है. हाथों में मोबाइल थामें आजकल के युवकों को ई-लाईब्रेरी भी आकर्षित नहीं कर पा रही है क्योंकि युवकों को अपने हाथों के मोबाइल में ही अब सबकुछ मिल जाता है.

लाइब्रेरी का नोटिस बोर्ड

‘व्यवस्था चौपट होने की पड़ताल जरुरी’
वहीं युवा साहित्यकार गुलरेज शहजाद ने उर्दू लाइब्रेरी के प्रति नई पीढ़ी की बेरुखी पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि स्थापना काल में लाइब्रेरी की जब अपनी बिल्डिंग नहीं थी तब यहां साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन होने की बात कही जाती है. लेकिन आज जब इसकी अपनी बिल्डिंग है तो इसकी व्यवस्था चौपट हो गई है. इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है. इसकी पड़ताल जरूरी है.

ई-लाइब्रेरी की सुविधा

1920 में हुई थी लाइब्रेरी की स्थापना
दरअसल, आजादी के पूर्व 1920 में सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर के रूप में उर्दू कुतूबखाना की स्थापना स्थानीय बुद्धिजीवियों के प्रयास से हुआ था. उर्दू लाइब्रेरी के नाम से मशहूर इस कुतूबखाना को सहेज कर रख पाने में स्थानीय लोग नाकाम रहे. कभी इस लाइब्रेरी में अनगिनत किताबें हुआ करती थी. देश-विदेश के लेखकों की पुस्तकों से यह लाइब्रेरी गुलजार रहती थी. किताब पढ़ने के शौकीन हर कौम के लोग यहां पहुंचते थे. लेकिन आजकल हाल यह है कि लाइब्रेरी में किताबें ज्यादा नहीं हैं. पुस्तक पढ़ने के शौकीन तो यहां आते नहीं हैं. जबकि वर्त्तमान समय के हिसाब से यहां ई-लाईब्रेरी की व्यवस्था भी की गई है.

उर्दू लाइब्रेरी परिसर
Last Updated : Sep 22, 2020, 2:15 PM IST

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