दिल्ली

delhi

सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने में साहित्य का योगदान तभी संभव है जब उसका क्रियान्वयन हो: राम सजीवन प्रसाद 'संजीव'

By ETV Bharat Delhi Team

Published : Mar 12, 2024, 9:08 PM IST

Updated : Mar 12, 2024, 10:36 PM IST

देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कारों में शुमार साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023 ने हिंदी के लिए संजीव की 'मुझे पहचानों' को चुना. मंगलवार को दिल्ली के कमानी सभागार में राम सजीवन प्रसाद 'संजीव' को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023
साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023

साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023

नई दिल्ली:''पहचानिए मुझे, जिसे उसके जन्मदाता पिता ने नहीं पहचाना, जन्मदात्री मां ने नहीं पहचाना, रियासतदारों ने नहीं पहचाना. हां, मैं अलोक मंजरी हूं, राजा राममोहन राय की भाभी, जिसे उनके पति जगनमोहन बनर्जी की मौत पर मार-पीट कर सती बनाया गया था, '' यह अंश हिंदी भाषा के मशहूर साहित्यकार राम सजीवन प्रसाद 'संजीव' के उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के हैं. 2020 में इस पुस्तक को सेतु प्रकाशन ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था.

खास बात है कि देश के बहुमुख साहित्यिक पुरस्कारों में शुमार साहित्य अकादमी पुरस्कार 2023 ने हिंदी के लिए संजीव की 'मुझे पहचानों' को चुना. 12 मार्च को दिल्ली के कमानी सभागार में संजीव को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस दौरान 'ETV भारत' को संजीव से विशेष बातचीत करने का मौका मिला.

सवाल: पुस्तक का शीर्षक 'मुझे पहचानो' क्यों चुना?

जवाब: 'मुझे पहचानो' तत्पर है कि मैं हूं कौन, ये पहचानो. यह एक आदमी की पहचान से जुड़ा मामला है. इस उपन्यास में धर्म की आवेशन अंधविश्वास में लिप्त समाज को दर्शाया गया है. परंपरा के मन प्रताड़ना. वह भी ऐसी जिसका समर्थन केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी ताली बजा कर करती हैं. उस समय उन्हें यह अनुमान भी नहीं था कि वह कितना बड़ा अपराध कर रही हैं? इतना ही नहीं वह अन्य महिलाओं को ऐसा करने के उकसाती भी थी. उपन्यास में जिस महिला को चिता पर जला दिया जाता है वह 5 वर्ष बाद एक रक्षंदा सती बनकर आती है. उसको उसके माता-पिता, भाई-बहन और रिश्तेदार भी पहचाने से मना कर देते हैं. उपन्यास में सबसे बड़ा जोर उसकी पहचान को दिया गया है, इसलिए इसका नाम 'मुझे पहचानो' रखा.

सवाल: 'मुझे पहचानो' जैसे उपन्यास लिखने की भावना कहां से जागृत हुई?

जवाब: रूप कंवर का नाम आपने सुना होगा. यह देश में सती होने की आखिरी घटना की कहानी थी. इसका विरोध पूरे देश में हुआ था. इसी बीच उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में आयोजित सभा में हिस्सा लिया. मैंने सभा में मौजूद लोगों से पूछा कि रूप कंवर को क्यों जलाया जाना चाहिए? इस पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था. उल्टा मुझे यह बोल कर चुप करा दिया गया कि आप यहां केवल साहित्य संबंधी ही बात करें.

बता दें, मार्च 1985 में हरिदेव जोशी राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे. उसी दौरान अशोक गहलोत कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने थे. सत्ता और संगठन में संघर्ष तेज हो गया. साथ ही उस दौरान प्रदेश के सीकर जिले में दीरावली सती कांड हो गया. इस रूप कंवर सती कांड ने देश को हिला कर रख दिया. इस मामले को लेकर विपक्ष हमलावर हो गया. विरोध अधिक बढ़ने पर हरिदेव जोशी ने अपना इस्तीफा राजीव गांधी को सौंप दिया. इसके बाद शिवचरण माथुर को राज्य की कमान सौंप दी गई. 28 मार्च 1995 को पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी का निधन हो गया था.

सवाल: घटना के कई वर्ष बीतने के बाद उपन्यास लिखने की वजह क्या रही?

जवाब: यह एक लंबे अभ्यास के बाद लिखा गया उपन्यास है. जब आप इस उपन्यास को पढ़ेंगी तो मालूम होगा की सती प्रथा एक तमाशा थी. जब भी किसी महिला को सती किया जाता था तो हज़ारों की संख्या में लोग उसको देखने पहुंचते थे. इसमें महिलाएं भी शामिल होती थी. एक मेले जैसा माहौल होता था. उपन्यास में जब महिला को उसका देवर सती होने से रोकता है तो सभी उसका विरोध करने लगते हैं, इसमें महिलाएं भी शामिल थी. महिलाओं को लगता है उनको समाज से वर्जित किया जा रहा है. उपन्यास में दर्शया गया है कि महिलाओं के मन में भाव आता है कि कभी कभी राम इस काम को करने का मौका देते हैं और इन लोगों ने इसका भी खंडन शुरू कर दिया. ऐसे तमाम भावों से भरे इस उपन्यास को लिखने में काफी लंबे समय का अनुभव और मंथन शामिल है.

सवाल: सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने में साहित्य का कितना योगदान है?

जवाब: साहित्य का योगदान तभी संभव है जब तक उसको एक्शन व क्रिया में लाया जाए. इसको तो हमने एक साहित्यकार के तौर पर नापा है. शिक्षा के साथ साथ वैचारिक क्रांति लाना भी जरूरत है. मुख्य रूप से युवाओं को आगे आने की जरूरत है, तभी साइबर क्राइम जैसे उभरती कुरीतियों से उभरा जा सकता है.

सवाल: अंग्रेजी के दौर में हिंदी साहित्य का कैसा स्थान दिखता है?

जवाब:इसको एक गुलामी के पात्र के तौर पर देखा जा सकता है. कुछ अंग्रेजीदार लोगों का मानना है कि अंग्रेजी के बिना उद्धार संभव नहीं है. जब की ऐसा है नहीं. आज भी लाखों लेखक अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में साहित्य लिखते हैं. इसके अलावा अगर विदेशी भाषा में प्रकाशित होने वाले साहित्य की बात की जाए तो उसकी भी संख्या अनगिनत है. यह केवल लोगों की मानसिकता है. वर्तमान में हर भाषा को पढ़ने वाले लोग मौजूद हैं.

संजीव के उपन्यास 'सावधान! नीचे आग है' पर 'काला हीरा' नाम से टेलीफिल्म बनी है. श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म 'वेल डन अब्बा' भी संजीव की कहानी 'फुलवा का पुल' पर आधारित है. संजीव का उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ भारत में प्रचलित सती प्रथा पर आधारित है.

Last Updated : Mar 12, 2024, 10:36 PM IST

ABOUT THE AUTHOR

...view details