लखनऊःवरुण गांधी का टिकट काटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीलीभीत में पहली बार चुनावी सभा से कई सियासी मायने निकल रहे हैं. पीलीभीत सीट पर मेनका गांधी और वरुण गांधी का वर्चस्व रहा है. लेकिन इस बार वरुण गांधी को केंद्र सरकार के खिलाफ जाने पर भाजपा ने जितिन प्रसाद को उम्मीदवार बनाया है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं क्या इस सीट पर बिना वरुण गांधी के कमल खिलाने के लिए पीएम मोदी को मोर्चा संभलना पड़ा है.
मां-बेटे का पीलीभीत में वर्चस्वः बता दें कि पीलीभीत सीट से 1989 में मेनका गांधी जनता दल से चुनाव लड़कर पहली बार सांसद बनीं थी. हालांकि इसके बाद 1991 में हुए चुनाव में हार गईं और भाजपा के संतोष गंगवार जीत गए. 1996 में फिर पीलीभीत संसदीय सीट से जनता दल के प्रत्याशी के रूप कामयाब हुईं। 1998, 1999, में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मेनका गांधी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पीलीभीत संसदीय सीट से जीतने में सफल रहीं. 2004 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गयीं और 2009 और 2004 में पीलीभीत से जीतती रहीं. मेनका गांधी के इस सीट पर जीतने में वरुण गांधी अहम भूमिका निभाते रहे। इसके बाद 2009 वरुण गांधी भी भाजपा के टिकट पर पीलीभीत से सांसद चुने गए, जबकि मेनका गांधी सुलतानपुर से जीतीं. 2014 लोकसभा चुनाव में मां-बेटे की सीट बदल दी. वरुण को सुलतानपुर तो मेनका गांधी को फिर से पीलीभीत से उम्मीदवार बनाया और दोनों ने जीत की. 2019 में फिर भाजपा ने वरुण गांधी पर भरोसा जताया तो वह फिर जीत गए. लेकिन इस पूरे कार्यकाल में अपने ही सरकार के खिलाफ बगावत करते नजर आए.
वरुण की लोकप्रियता जितिन प्रसाद के लिए चुनौतीःवरुण गांधी ने 1999 में मां के लिए पीलीभीत में प्रचार की कमान संभाली थी. इसके बाद से वरुण यहां सक्रिय हैं. वरुण किसानों और स्थानीय मुद्दे को लगातार उठाते हैं और उनका समाधान भी करवाते हैं. इतना ही नहीं वरुण गांधी जनता से सीधा संवाद करते हैं, जिसकी वजह से इनकी यहां पकड़ मजबूत है. वरुण ने जनता की समस्याओं की समाधन के लिए एक टीम का गठन किया है, जिसकी वजह से वह यहां के लोकप्रिय नेता हैं. अब ऐसे में वरुण गांधी की जगह जितिन प्रसाद को चुनाव जीतन बड़ी चुनौती बन सकती है, इसलिए पीएम मोदी ने जनता सभा कर एक संदेश दिया है.