Okhali Tradition in Uttarakhand: उत्तराखंड में सदियों पुरानी है ओखली कूटने की पंरपरा, जानिये महत्व
Updated on: Jan 19, 2023, 5:56 PM IST

Okhali Tradition in Uttarakhand: उत्तराखंड में सदियों पुरानी है ओखली कूटने की पंरपरा, जानिये महत्व
Updated on: Jan 19, 2023, 5:56 PM IST
उत्तराखंड में ओखली कूटने (Tradition of okhali in Uttarakhand) की बहुत पुरानी परम्परा है. ये परम्परा सदियों से चली आ रही है. ग्रामीण अंचलों में किसी भी शुभ कार्य से पहले ओखली कूटने की परंपरा है. पहाड़ों में इसे बेहद शुभ माना जाता है.
देहरादून: उत्तराखंड के पहाड़ों में लोक संस्कृति और सभ्यता का आज भी उसी तरह से पालन किया जाता है जिस तरह से सालों पहले किया जाता था. गढ़वाल और कुमाऊं की सभ्यता इतनी विशाल और रंग बिरंगी है कि इसके लिए शब्द भी कम पड़ जाएं. पहाड़ों के लोग और उनके बच्चे भले ही आज जिस मुकाम पर या मेट्रो शहरों में रह लें, लेकिन वो सभी आज भी अपनी जड़ों और त्योहारों से जुड़े हैं. उत्तराखंड में किसी भी शुभ काम को करने से पहले एक परम्परा होती है. जिसका नाम ओखल है. ये परंपरा आज भी उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ों में कई जगहों पर देखी जाती है.
पहाड़ो में जब भी कोई विवाह हो या अन्य शुभ कार्य ग्रामीण क्षेत्रों में होते हैं तो आज भी ओखली में धान कूटकर चावल तैयार किये जाते हैं. ये ना केवल परम्परा है बल्कि एक तरह से इसे आप सामूहिकता का नाम दे सकते हैं. इस परम्परा में गांव की सभी महिलाएं इकठ्ठा होकर सामूहिक रूप से इस कार्य को करती हैं.
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ओखली कूटने की परंपरा सदियों पुरानी है. इस परंपरा के तहत ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अपने घरों में कोई भी शुभ कार्य होने से पहले अपने खेतों में उगाए गए धान को अपने घरों के बाहर बनी ओखली में कूटकर उससे चावल निकालते हैं. इस कार्य को महिलाएं करती हैं. धान को कूटने के लिए बांज की लकड़ी से बनाए गए मूसल को प्रयोग किया जाता है. जिसकी लंबाई दो से ढाई मीटर होती है. मूसल के नीचे लोहे का एक छल्ला लगाकर उसे रंगोली से सजाया भी जाता है.
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ओखली में धान कूटकर निकाले गए चावल को ही नौ ग्रहों की पूजा और पुरोहित को आबदेब दिए जाने के लिए प्रयोग किया जाता है. परंपरा के अनुसार पूर्व में जिन क्षेत्रों में धान नहीं होते थे, वहां के लोग ग्रामीण क्षेत्रों से ओखली में कूटकर इन चावलों को मंगाते थे. तब शुभ कार्यों में इन्हीं का प्रयोग भी करते थे. इस चावल में लक्ष्मी का वास माना जाता है. समय के साथ परंपराएं बदली और जगह जगह मशीनें लगी तो खासकर नगरीय क्षेत्रों के लोग इस परंपरा से विमुख होते चले गए. लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों ने आज भी इस परंपरा को सामूहिक रूप से जीवंत बनाए रखा है. वह आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं.
