चमोली आपदा के बाद से हिमालय में हो रही हलचल तबाही का संकेत तो नहीं?

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Published : Jul 31, 2021, 6:23 PM IST

Updated : Jul 31, 2021, 7:55 PM IST

movement in the Himalayas

हिमालय सबसे नया पर्वत होने के साथ ही सबसे कमजोर पर्वत भी है. चमोली आपदा के बाद से ही हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में हलचल हो रही है, जिसने वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ा दी हैं. पढ़ें ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट...

देहरादून: उत्तराखंड के चमोली में बीते 7 फरवरी को ग्लेशियर टूट जाने के कारण काफी तबाही हुई थी. देशभर को इस घटना ने झकझोर कर रख दिया था. हर किसी के सामने एक बार फिर 2013 का वो मंजर आ गया था, जिसमें ग्लेशियर टूटने से प्लांट, बांध, पुलों को नुकसान पहुंचा था और सैकड़ों लोग बह गए थे. इसके मलबे ने नीचे भारी तबाही मचाई. 200 से ज्यादा लोग मारे या लापता हो गए. हजारों करोड़ की लागत से बने हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बर्बाद हो गए.

7 फरवरी 2021 को चमोली आपदा की शुरुआत उत्तराखंड के चमोली जिले के 6 किलोमीटर ऊंचे शिखर रौंथी पीक से हुई थी. 180 मीटर मोटी और 500 मीटर चौड़ी ग्लेशियर के बर्फ की एक चादर अचानक टूट कर गिर गई थी. इस हादसे का कारण जानने में जुटी शोध टीम की गणना के मुताबिक करीब 2.7 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी और मलबा एक मिनट तक तेजी के साथ नीचे आया, जो हादसे का मुख्य कारण बना.

वैज्ञानिकों की बढ़ी चिंता: इस हादसे के बाद प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में कुछ ऐसा हो रहा है, जिसने वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ा दी हैं. हिमालयी क्षेत्रों में हो रही हलचल की एक मुख्य वजह ग्लोबल वॉर्मिंग को माना जा रहा है. लेकिन वैज्ञानिक अभी ग्लोबल वॉर्मिंग और पहाड़ों की हलचल के कनेक्शन को लेकर पुख्ता नहीं हैं. उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते प्रदेश में आपदा जैसे हालात बनते रहते हैं. लेकिन, मॉनसून सीजन के दौरान प्रदेश में आपदा जैसे हालात, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाएं बढ़ जाती हैं.

हिमालय में हो रही हलचल से वैज्ञानिक परेशान.

साल 2013 में केदारघाटी में भीषण आपदा, साल 2017 में गंगोत्री में आपदा और फिर साल 2021 में ऋषिगंगा-धौलीगंगा की आपदा को प्रदेश ने झेला. एक दशक में आई इन तीनों आपदा का लिंक ग्लेशियर से ही जुड़ा हुआ है. क्योंकि साल 2013 में ग्लेशियर में बनी झील की वजह से ही केदारघाटी में आपदा आई थी. वहीं, साल 2017 में गंगोत्री और साल 2021 में ऋषिगंगा में आपदा की वजह ग्लेशियर टूटना था.

Chamoli disaster
चमोली त्रासदी की पूरी कहानी.

हाल ही में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) की HI-MAP रिपोर्ट ने भी इसी ओर इशारा किया है. रिपोर्ट में पाया गया है कि हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में तापमान बढ़ रहा है और वैश्विक तापमान बढ़ने का असर ऊंचाई की वजह से हिमालय पर ज्यादा है. इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) की हिंदुकुश हिमालय असेसमेंट रिपोर्ट में आशंका जताई गई थी कि साल 2100 तक अगर वैश्विक उत्सर्जन में कमी नहीं आई तो हिमालय के ग्लेशियर्स का दो-तिहाई हिस्सा पिघल जाएगा.

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उत्तराखंड के पहाड़ों पर रहने वाले लोगों का जीवन मुश्किल भरा है. यहां आए दिन आने वाली आपदाओं से लोग परेशान हैं. कभी जंगल में आग तो कभी पानी की समस्या से उन्हें दिक्कत का सामना करना पड़ता है. इसके साथ ही प्रदेश में भारी बारिश, बादल का फटना, बेमौसम बाढ़ की घटनाएं बढ़ गईं हैं, जिसके चलते वैज्ञानिक काफी चिंतित नजर आ रहे हैं. वह इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वर्तमान में हिमालय में जो घटनाएं घट रही हैं वह प्रतिकूल नहीं हैं.

Chamoli disaster
टाइमलाइन में पूरी कहानी.

उत्तराखंड में कितने ग्लेशियर: प्रदेश के हिमालयी क्षेत्रों में 1,573 ग्लेशियर मौजूद हैं, जो करीब 2,258 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं. धौलीगंगा बेसिन का अलकनंदा के संगम तक करीब 3,030 स्क्वायर किमी का क्षेत्र है, जिसमें 436 वर्ग किमी के कुल ग्लेशियर क्षेत्र के साथ 245 ग्लेशियर शामिल हैं. जबकि, ऋषिगंगा कैचमेंट का कुल क्षेत्रफल 691 वर्ग किमी है, जो रैणी गांव के पास धौलीगंगा के संगम तक है. इसमें कुल 70 ग्लेशियर हैं और जो 175 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हैं. इसी तरह, रौंथी उप-बेसिन का कुल क्षेत्रफल 95 वर्ग किमी है और इसमें 12 ग्लेशियर हैं जिनका कुल ग्लेशियर क्षेत्र 16 वर्ग किमी है.

रौंथी ग्लेशियर इस घाटी का प्रमुख ग्लेशियर है और करीब 4,250 मीटर की ऊंचाई से रौंथी धारा निकलती है. बर्फ और ग्लेशियर पिघलने की उपलब्धता के कारण ऋषिगंगा-धौलीगंगा जलग्रहण क्षेत्रों में जल विद्युत उत्पादन की उच्च क्षमता है. यही वजह है कि कई जलविद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं, जिनमें से कुछ चालू हो चुकी हैं. जबकि अन्य निर्माण के विभिन्न स्तरों पर हैं. जिसमें ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों के ऊपर रैणी और तपोवन में एचईपी काम पूरा होने वाला था.

चमोली हादसे की वजह: वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (WIHG) के वैज्ञानिकों ने जांच के बाद पाया कि करीब 5,600 मीटर की ऊंचाई से रौंथी पीक (Raunthi Peak) के नीचे रौंथी ग्लेशियर कैचमेंट में रॉक मास के साथ एक लटकता हुआ ग्लेशियर टूट गया था. बर्फ और चट्टान का यह टुकड़ा करीब 3 किलोमीटर का नीचे की ओर सफर तय कर करीब 3,600 मीटर की ऊंचाई पर रौंथी धारा तक पहुंच गया था, जो रौंथी ग्लेशियर के मुंह से करीब 1.6 किलोमीटर नीचे की ओर मौजूद है.

वैज्ञानिकों के अनुसार रौंथी कैचमेंट में साल 2015-2017 के बीच हिमस्खलन और मलबे के प्रवाह की घटना देखी गई. इन घटनाओं ने डाउनस्ट्रीम में कोई बड़ी आपदा नहीं की. लेकिन कैचमेंट में हुए बड़े बदलाव की वजह से रौंथी धारा के हिमनद क्षेत्र में ढीले मोरेनिक मलबे और तलछट के संचय का कारण बना. लिहाजा 7 फरवरी को बर्फ, ग्लेशियर, चट्टान के टुकड़े, मोरेनिक मलबे आदि चीजें एक साथ मिक्स हो गए, जो करीब 8.5 किमी रौंथी धारा की ओर नीचे आ गया और करीब 2,300 मीटर की ऊंचाई पर ऋषिगंगा नदी को अवरुद्ध कर दिया. जिससे एक पानी के झील का निर्माण हुआ.

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ऋषिगंगा नदी से आई आपदा: रौंथी कैचमेंट से आए इस मलबे ने ऋषिगंगा नदी पर स्थित 13.2 मेगावाट क्षमता वाले हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट को तबाह कर दिया. इसके साथ ही रैणी गांव के पास ऋषिगंगा नदी पर नदी तल से करीब 70 मीटर ऊंचाई पर बना एक बड़ा पुल भी बह गया था, जिससे नदी के ऊपर के गांवों और सीमावर्ती क्षेत्रों में आपूर्ति बाधित हो गई और फिर यह मलबा आगे बढ़ते हुए तपोवन परियोजना को भी क्षतिग्रस्त कर गया.

तपोवन हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट धौलीगंगा नदी पर 520 मेगावाट क्षमता की परियोजना थी. चमोली आपदा के दौरान तपोवन एचईपी में करीब 20 मीटर और बैराज गेट्स के पास 12 मीटर ऊंचाई तक मलबा और बड़े-बड़े बोल्डर जमा हो गए थे. जिससे इस प्रोजेक्ट को भी काफी नुकसान पहुंचा था. इस आपदा ने न सिर्फ 204 लोगों की जान ले ली, बल्कि अपने रास्ते में आने वाले सभी बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया. इस आपदा में करीब 204 लोगों की मौत हो गई थी. जिसमें पावर प्रोजेक्ट में काम करने वाले 192 कर्मचारी और 12 स्थानीय लोग भी शामिल थे. साथ ही करीब 1,625 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था.

रौंथी ग्लेशियर में दरार की आशंका: ऋषिगंगा-धौलीगंगा में आपदा के बाद वैज्ञानिकों ने इलाके का हवाई सर्वेक्षण करते हुए सैटेलाइट इमेज का गहन अध्ययन किया था. जिसमें ग्लेशियर के टूटने की पुष्टि हुई थी. लेकिन अब चर्चाएं इस बात की हैं कि अभी भी रौंथी ग्लेशियर में कुछ जगहों पर दरारें मौजूद हैं. हालांकि, वैज्ञानिक अभी फिलहाल ग्लेशियर में दरार होने की पुष्टि नहीं कर रहे हैं. लेकिन जल्द ही वैज्ञानिकों का दल मौके पर जाकर ग्लेशियर का निरीक्षण करेगा. जिससे स्थिति साफ हो पाएगी.

हिमालय की प्रवृत्ति में बदलाव: पिछले कुछ सालों से हिमालय के प्रवृत्ति में बदलाव देखा जा रहा है. हिमालय में हो रहा बदलाव इस बात का इशारा है यह क्षेत्र भविष्य के लिए सुरक्षित या प्रतिकूल नहीं है. वाडिया के वैज्ञानिक डॉ. समीर के तिवारी के मुताबिक हिमालय में ट्रीलाइन ऊपर की ओर बढ़ रही हैं. ग्लेशियर ना सिर्फ पिघल रहे, बल्कि ऊपर की ओर शिफ्ट होते जा रहे हैं. लिहाजा हिमालय में हो रहे यह बदलाव ग्लोबल वॉर्मिंग की ओर ही इशारा कर रहे हैं.

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यह है ट्री लाइन: उच्च हिमालयी क्षेत्र में भौगोलिक स्थिति के अनुसार एक निश्चित ऊंचाई के बाद वनस्पतियां नहीं होती हैं. इस ऊंचाई पर आकर पेड़-पौधे एक सीमा रेखा की तरह नजर आते हैं. इसे ही ट्री लाइन या वृक्ष रेखा कहा जाता है. इसके बाद शुरू होता है स्नो कवर या स्नो लाइन का हिस्सा और सबसे ऊपर ग्लेशियर होते हैं.

शोधकर्ताओं ने 1993 से 2018 तक ट्री-लाइन और स्नो-लाइन के बीच वनस्पति के विस्तार को मापने के लिए उपग्रह डेटा का उपयोग किया. ग्लोबल वॉर्मिंग से तापमान बढ़ने पर उच्च हिमालयी पेड़ पौधों और वनस्पतियों पर काफी प्रभाव पड़ा है.

उच्च हिमालय में ट्री लाइन ऊपर की ओर खिसक रही है. यहां कई पेड़ पौधे एवं वनस्पतियां ज्यादा ठंडे वातावरण की तलाश में 4,000 मीटर तक पहुंच गए हैं. इस तरह के कई तथ्य सामने आए हैं. बुरांश और सिल्वर फर भी उच्च हिमालयी क्षेत्र (अल्पाइन) की ओर बढ़ रहे हैं. जिससे ये संकेत मिले हैं कि आने वाले समय में अल्पाइन और बुग्यालों में पेड़-पौधे मिलने लगेंगे.

इस शोध का मुख्य विषय था सबनाइवल इलाके यानी उपनाइवल मेखला में उगने वाले पेड़-पौधों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना. उपनाइवल मेखला ट्री-लाइन और स्नोलाइन के बीच के इलाके को कहते हैं, यानी बर्फ से ढकी जगह और पेड़-पौधे उग सकने वाली जगह के बीच की जगह. इस जगह पर अधिकतर छोटे पौधे और घास ही उगती है.

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रैणी आपदा के कई कारण: रैणी गांव में आयी आपदा पर रिसर्च कर रही वरिष्ठ पत्रकार कविता उपाध्याय ने बताया कि अभी तक उनकी रिसर्च में जो बातें निकल कर सामने आयी हैं उसके अनुसार हिमालय में हो रहे बदलाव के लिए सिर्फ ग्लोबल वॉर्मिंग को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, इसके कई और भी कारण हैं. मुख्य रूप से रैणी गांव में आई आपदा में हुए जान के नुकसान को बचाया जा सकता था. इसके लिए उस क्षेत्र में अर्ली वॉर्निंग सिस्टम मौजूद होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं था. कविता बताती हैं कि उनकी रिसर्च में यह बात निकलकर सामने आई है कि साल 2016 में रौंथी ग्लेशियर में दरार पायी गयी थी. जिसके बाद 7 फरवरी 2021 की सुबह 10:21 बजे ग्लेशियर टूट गया और चमोली में बड़ी आपदा आई.

कुछ परिवारों का विस्थापन जरूरी: कविता बताती हैं कि रैणी गांव में आई भीषण आपदा के बाद स्थानीय लोगों में काफी डर का माहौल है. रैणी गांव में करीब 150 परिवार रहते हैं. जिसमें से कई परिवार संवेदनशील स्थानों पर हैं, जिनका विस्थापन किया जाना जरूरी है. बीते 24 जुलाई को सेलांग गांव के पास तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग के कुछ हिस्से सहित कई उपकरण भूस्खलन में क्षतिग्रस्त हो गए. यही नहीं, ऋषिगंगा-धौली गंगा का क्षेत्र काफी प्रभावित हुआ है. जिससे उभरने में काफी समय लग सकता है. साथ ही उस क्षेत्र में दोबारा से हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट लगाने की संभावना भी काफी कम है.

हाईकोर्ट से याचिका खारिज: आपदा के 6 महीने बाद रैणी गांव के तीन और जोशीमठ के दो लोगों ने उत्तराखंड हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और याचिका दायर कर परियोजनाओं की वन और पर्यावरण मंजूरी को रद्द करने के साथ ही दो जलविद्युत परियोजनाओं को रद्द करने की मांग की. हालांकि, जनहित याचिका में याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि परियोजना निर्माण के दौरान विस्फोटकों के उपयोग ने पहले से ही नाजुक पहाड़ियों को कमजोर कर दिया है, जिससे क्षेत्र में भूस्खलन की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ गई थी.

मौजूदा हालात ऐसे हैं कि सुरक्षा के लिए रैणी के ग्रामीण कभी-कभी पास के जंगलों में शरण ले लेते हैं. जिसके बाद 14 जुलाई को सुनवाई के पहले दिन मुख्य न्यायाधीश राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने याचिका को निरस्त कर दिया. याचिका का उद्देश्य चमोली त्रासदी की जवाबदेही तय करना, पीड़ितों को मुआवजा दिलाना और भविष्य में ऐसी घटनाओं को फिर से होने से रोकना था.

रैणी गांव में अर्ली वार्निंग सिस्टम लगा: उत्तराखंड एसडीआरएफ ने 31 जुलाई को रैणी गांव में फिर से अर्ली वॉर्निंग सिस्टम को एक्टिवेट कर दिया है. ऐसे में नदी का जलस्तर यदि बढ़ता है तो वॉर्निंग सिस्टम के जरिए आस-पास के गांवों को अलर्ट कर देंगे और 5 से 7 मिनट के भीतर पूरे इलाके को खाली कराया जा सकता है.

Last Updated :Jul 31, 2021, 7:55 PM IST
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