संवैधानिक अधिकारों को चुनौती देती उत्तराखंड विधानसभा की नियुक्तियां, जानिए नियमावली

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Published : Sep 2, 2022, 2:27 PM IST

Updated : Sep 2, 2022, 9:32 PM IST

Uttarakhand Legislative Assembly

उत्तराखंड विधानसभा में भाजपा-कांग्रेस के नेताओं मंत्रियों द्वारा अपने करीबियों और सगे संबंधियों को नियुक्ति देने के मामले में उत्तराखंड में हंगामा मचा हुआ है. कांग्रेस मौजूदा और पिछली भाजपा सरकार में हुई नियुक्तियों को लेकर हर पहलू से घेरने की कोशिश कर रही है तो भाजपा राज्य गठन से लेकर चली आ रही परिपाटी की दुहाई देकर पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रही है. लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि क्या विधानसभा अध्यक्ष को नियुक्तियों का अधिकार है.

देहरादूनः उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि देश भर में आज विधानसभा की नियुक्तियों (appointment to the assembly) को लेकर बहस जारी है. विधानसभा के अध्यक्षों को मिली असीमित शक्ति (Powers of the Speaker of the Assembly) के तहत कई बार इन नियुक्तियों को कुछ लोग सही भी ठहरा रहे हैं. लेकिन इसका दूसरा पहलू, देश के संविधान में समानता या एकरूपता के अधिकार की नजर से देखा जा रहा है. इसके तहत विधानसभा की नियुक्तियां इन अधिकारों को चुनौती देती हुई दिखाई देती हैं.

देहरादून में उत्तराखंड की यह वही विधानसभा है, जहां विधानसभा अध्यक्ष की ताकत (Powers of the Speaker of the Assembly) को हरीश रावत सरकार में पूरे देश ने देखा. 2016 में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने अपने पद की शक्ति की बदौलत हरीश रावत की सरकार को गिरने नहीं दिया. खुद हाईकोर्ट नैनीताल ने भी विधानसभा अध्यक्ष की पावर को अपने फैसले में जाहिर कर दिया. एक बार फिर विधानसभा अध्यक्ष की उन्हीं शक्तियों की चर्चा उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि देशभर में हो रही है. लेकिन इस बार मुद्दा सरकार गिराने या बचाने से जुड़ा नहीं, बल्कि सगे संबंधियों को नियुक्तियां देने से जुड़ा है.

संवैधानिक अधिकारों को चुनौती देती उत्तराखंड विधानसभा की नियुक्तियां.

क्या कहता है आर्टिकल 16ः उत्तराखंड की विधानसभा में सभी 4 निर्वाचित सरकारों में नियुक्तियां की गई. इसमें नेताओं ने अपने रिश्तेदारों और पार्टी के करीबियों को रोजगार देने में कोई कमी नहीं छोड़ी. बस यहीं से यह विवाद शुरू हो गया. विवाद ये कि क्या विधानसभा अध्यक्ष के पास भारत के संविधान में आर्टिकल 16 (What is article 16) को बाईपास करने का भी अधिकार है. आर्टिकल 16 जिसमें राज्य के अधीन किसी पद नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर देने की बात कही गई है. इसी आर्टिकल का जिक्र करके तमाम लोग यहां तक कि राजनीतिक दलों के नेता भी विधानसभा में हुई नियुक्तियों को गलत ठहरा रहे हैं.
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विधानसभा में नियुक्तियों को लेकर हर दिन एक नई सूची सामने आ रही है. लिस्ट में कई बड़े नेताओं के रिश्तेदार के भी विधानसभा में नौकरी पर लगने का खुलासा किया गया है. इतना ही नहीं, विधानसभा में विधानसभा सचिव मुकेश सिंघल के प्रमोशन को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि मुकेश सिंघल को कुछ ही महीनों में दो प्रमोशन दिए गए. यही नहीं, इस दौरान जरूरी सेवाओं के नियमों का भी उल्लंघन किए जाने की बात कही जा रही है. वैसे इस बात का जवाब पहले ही तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष और मौजूदा वित्त मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल दे चुके हैं. उन्होंने कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष को नियमों में शिथिलता का अधिकार है.

उनकी इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता. लेकिन सरकार का एक नियम कहता है कि किसी भी अधिकारी, कर्मचारी को उसके प्रमोशन में शिथिलता का लाभ पूरी सेवाकाल में एक ही बार दिया जा सकता है. बस इसी नियम का जिक्र करके कुछ लोग सचिव के प्रमोशन पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं. वैसे विधानसभा में जो नियुक्ति हुई है, उसको लेकर परंपराओं का भी पाठ पढ़ाया जा रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत उन्हीं में से थे जो कहते हैं कि उत्तराखंड की पहली विधानसभा से ही नियुक्तियों को लेकर जो परंपरा शुरू की गई, अब तक उसी का ही निर्वहन किया जा रहा है. हरीश रावत कहते हैं कि भाजपा सरकार के दौरान कर्मचारियों की संख्या को लेकर विधानसभा अध्यक्ष को अधिकृत किया गया था, जिसके बाद कांग्रेस के पास करने के लिए कुछ नहीं रह गया.
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क्या कहती है नियमावलीः उत्तराखंड विधानसभा में सेवा शर्तों को लेकर उत्तराखंड विधानसभा सचिवालय नियमावली 2011 मौजूद है. नियमावली कहती है कि कर्मचारियों की नियुक्ति सीधी भर्ती, प्रमोशन और प्रतिनियुक्ति 3 तरह से हो सकती है. सीधी भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा कराए जाने का नियमावली में जिक्र है. नियमावली में सचिव से लेकर रक्षक पद तक के लिए जरूरी योग्यता का भी जिक्र किया गया है. विधानसभा में कितने पद होंगे, यह निर्धारित करने का अधिकार अध्यक्ष को होगा. लेकिन नियुक्ति के लिए एक निश्चित समिति गठित किए जाने का भी नियमावली में जिक्र है.

इतना ही नहीं नियुक्ति के लिए वित्त विभाग से मंजूरी जरूरी बताई गई है. वित्त से परामर्श लेकर ही नियुक्ति की बात भी लिखी गई है. विधानसभा में तदर्थ नियुक्ति के लिए भी विधानसभा अध्यक्ष के पास अधिकार तो है लेकिन पूर्ण नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि किसी भी नियुक्ति के लिए वित्त विभाग के जरिए सरकार का सीधा हस्तक्षेप है. जाहिर है कि विधानसभा का बजट भी सरकार ही देती है. यह बजट जनता के टैक्स के पैसे से आता है. लिहाजा समानता के अधिकार की बात कही जा रही है. इस लिहाज से आम बेरोजगार युवा को भी मौका मिलना ही चाहिए.

नियुक्तिों को SC में दी चुनौतीः यूं तो राज्य गठन के बाद विधानसभा में नियुक्तियां होती रही हैं और नेताओं के करीबी और सगे संबंधी भी इसमें रोजगार पाते रहे हैं. लेकिन पहली बार 2016 में नियुक्तियों को हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चुनौती याचिकाकर्ताओं द्वारा गोविंद सिंह कुंजवाल के अध्यक्ष रहते हुए दी थी. हालांकि चर्चा है कि इस दौरान याचिकाकर्ताओं द्वारा पुरजोर तरीके से पैरवी नहीं की जा सकी. लिहाजा, इसके बाद फैसला विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय के पक्ष में ही आया. इस निर्णय को विधानसभा के लिए नजीर मान लिया गया. यही कारण रहा कि भाजपा सरकार आने के बाद तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल ने भी नियुक्तियों का वही पुराना फॉर्मूला अपनाया.
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विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारः विधानसभा अध्यक्ष को संवैधानिक पद के नाते शक्तियां तो दी गई हैं लेकिन संपूर्ण शक्ति नहीं. क्योंकि उन्हें भी इन मामलों में विधि, न्याय और फिर वित्त विभाग की मंजूरी जरूरी है. हालांकि, इस मामले में जिस बात को भुला दिया गया वह नैतिकता थी. जिस नैतिकता को आगे रखते हुए इतने असीमित अधिकार दिए गए, उस पर भाई भतीजावाद होना कई सवाल खड़े करता है. इसके बावजूद क्योंकि इस वक्त निशाना भाजपा सरकार है लिहाजा, भाजपा के नेता नियुक्ति को एक सिस्टम के तहत किए जाने की बात को बार-बार दोहरा रहे हैं और जांच की बात कहकर मामले से पीछा छुड़ा रहे हैं.

वैसे संविधान में यह व्यवस्था दी गई है कि विधानसभा में होने वाली नियुक्तियों के लिए विधानसभा अध्यक्ष नियुक्ति के प्राधिकारी होंगे. इसी बात को समझते हुए हर सरकार में विधानसभा अध्यक्ष द्वारा नियुक्तियां की गईं. विधानसभा में कर्मचारियों की सेवा के लिए 2011 में नियमावली आई जिसे 2016 में संशोधित किया गया. हालांकि, नियमावली में साफ तौर पर सीधी भर्ती के लिए परीक्षा का प्रावधान किया गया. बड़ी बात यह है कि गैरसैंण के नाम पर दोनों ही सरकारों के विधानसभा अध्यक्षों ने नियुक्तियां की. जबकि सोचने की बात यह है कि पिछली भाजपा सरकार के कार्यकाल के खत्म होने से लेकर अब तक गैरसैंण में विधानसभा सत्र किया ही नहीं गया. हालांकि, विधानसभा अध्यक्ष को तत्कालिक व्यवस्था के तौर पर तदर्थ नियुक्ति करने को लेकर नियमावली में जिक्र किया गया है.

Last Updated :Sep 2, 2022, 9:32 PM IST
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