जानिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्यों अहम हैं कुर्मी मतदाता

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Published : Aug 27, 2021, 10:55 AM IST

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उत्तर प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में सभी पार्टियां जी-जान से जुटी हुई हैं. वोट बैंक को साधने के लिए पार्टियों द्वारा तमाम तरह के सम्मेलन आयोजित कराए जा रहे हैं. ब्राह्मण मतदाताओं को साधने के लिए सभी पार्टियों में जंग छिड़ी हुई है. वहीं कुर्मी मतदाताओं पर भी सबकी नजर है. पढ़ें ईटीवी भारत की यह खास रिपोर्ट....

लखनऊ: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही सभी राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है. विभिन्न जातियों को लुभाने के लिए कई दल सम्मेलन कर रहे हैं, तो कुछ पार्टियां यात्राएं निकाल रही हैं. इसी कड़ी में प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी ने बहुतसंख्यक पिछड़े मतदाताओं को साधने के लिए सात चरणों में 'किसान, नौजवान पटेल यात्रा' निकालने का निर्णय किया है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल, जो खुद पिछड़े वर्ग से आते हैं, के नेतृत्व में यह यात्रा निकाली जाएगी. प्रदेश के लगभग 45 फीसद पिछड़ी जातियों के मतदाताओं में दस फीसद यादव हैं और ऐसा माना जाता है कि यादव बिरादरी का वोट काफी हद तक समाजवादी पार्टी को ही जाता है. यदि शेष लगभग पैंतीस फीसद ओबीसी वोटों में सेंध लगाने में समाजवादी पार्टी कामयाब हुई, तो उसके लिए निर्णायक स्थिति होगी.

कुर्मी मतदाताओं पर है सबकी नजर
समाजवादी पार्टी के वर्चस्व वाले दस फीसद यादव मतदाताओं को छोड़कर शेष लगभग 35 फीसद मतदाताओं पर सभी दलों की नजर है. इन जातियों को लुभाने के लिए हर पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है. समाजवादी पार्टी में पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे बेनी प्रसाद वर्मा के निधन के बाद पार्टी में कोई बड़ा कुर्मी नेता नहीं रहा है. यही कारण है पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष बनाकर नरेश उत्तम पटेल पर दांव लगाया है. पार्टी को उम्मीद है कि वह कुर्मियों का भाजपा में जाने वाला वोट सपा की ओर लाने में कामयाब होंगे. गौरतलब है कि ओबीसी में यादवों के बाद सबसे बड़ी तादाद कुर्मी अथवा पटेल वोटरों की है. कुर्मियों में गंगवार, सचान, ननिरंजन, कटियार आदि भी शामिल हैं. यह पैंतीस फीसद मतदाता ही निर्णायक भूमिका अदा करता है.

कुर्मी मतदाताओं पर सबकी रहेगी नजर.

भाजपा के सहयोगी अपना दल की है कुर्मी वोट बैंक पर पकड़
अपना दल अध्यक्ष रहे सोनेलाल पटेल इस बिरादरी के बड़े और सर्वमान्य नेता थे. अब अपना दल एस की मुखिया और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल इसकी नेता हैं और उनकी अपनी बिरादरी में अच्छी पकड़ मानी जाती है. अनुप्रिया की छोटी बहन पल्लवी पटेल ने भी अपना दल (कृष्णा) के नाम से अपनी पार्टी बनाई थी. हालांकि उन्हें उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी. अनुप्रिया पटेल के अपना दल एस का प्रभाव प्रयागराज मंडल के आसपास के जिलों में ही ज्यादा देखा गया है. विश्लेषक मानते हैं कि वह सहयोगी होने के नाते अन्य क्षेत्रों में भी भाजपा को फायदा दिला करती हैं.

35 विधानसभा सीटों पर है कुर्मी मतदाताओं का विशेष प्रभाव
प्रदेश में 30 से 35 सीटों पर कुर्मी वोटरों का खासा प्रभाव माना जाता है. वहीं सात-आठ लोक सभा की सीटें भी इस वोट बैंक के प्रभाव क्षेत्र में आती हैं. यही कारण है कि समाजवादी पार्टी की पटेल यात्रा में ऐसी सीटों को विशेष रूप से फोकस किया गया है, जहां कुर्मी मतदाता ज्यादा तादाद में हैं. समाजवादी पार्टी में जहां कुर्मी नेता के तौर पर नरेश उत्तम पटेल अपनी पहचान बना रहे हैं, वहीं भाजपा के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह कुर्मियों के बड़े नेता माने जाते हैं. इससे पहले ओम प्रकाश सिंह और विनय कटियार भी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. यह दोनों भी कुर्मी बड़े नेता हैं. सपा से बेनी प्रसाद वर्मा भी कुर्मियों के बड़े नेता थे. बहराइच की कैसरगंज विधान सभा सीट से चुनकर आए योगी सरकार में मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा भी कुर्मी समुदाय से हैं और इस जाति का नेता माना जाता है.

सभी प्रमुख दलों में पिछड़ी जाति के हैं प्रदेश अध्यक्ष
उप्र में पिछड़ी जाति के वोटों के लिए बड़ी लड़ाई है. 2017 में भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जाति से आने वाले उप मुख्यमंत्री केशव मौर्या के नेतृत्व में विधान सभा का चुनाव लड़ा और बहुमत के साथ जीता भी. इसी तरह इस चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जाति से ही आने वाले कुर्मी नेता स्वतंत्रदेव सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं है. उसमें नरेश उत्तम पटेल को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. पटेल भी कुर्मी जाति से हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी पिछड़ों के नेता हैं और ओबीसी से ही ताल्लुक रखते हैं. वहीं बहुतजन समाज पार्टी भी इससे अछूती नहीं है. इस पार्टी में रामअचल राजभर पिछड़ों के नेता के रूप में जाने जाते रहे. हालांकि उन्हें कुछ दिन पहले पार्टी ने उन्हें निकालकर भीम राजभर को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है.

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक
राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि 2017 से पहले करीब डेढ़ दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति सपा और बसपा के बीच में सिमटी हुई थी. मतदाता एक से नाराज हुए तो दूसरे को समर्थन देकर सरकार बनाते थे. इसी आधार पर पहले मायावती और फिर अखिलेश यादव को पूरे बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला. 2017 के बाद स्थिति बदल चुकी है. भाजपा सरकार चला रही है. अब मतदाता के सामने स्थिति स्पष्ट है. वह अब आकलन करेगा कि किसे चुनना है. जहां तक बात यात्राओं की है, सबको अपना अधिकार है यात्राएं निकालने का और वह कर भी रहे हैं. मैं समझता हूं कि केवल जाति के आधार पर मतदाता फैसला करेगा ऐसा होने वाला नहीं है. क्योंकि कार्यों का भी आकलन होगा. सपा ने पटेल यात्रा निकालने का निर्णय किया है, लेकिन इस वोट बैंक पर भाजपा की भी दावेदारी है. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष उसी बिरादगी से आते हैं. बिहार में बड़ी पार्टी होते हुए भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार चला रही है. गुजरात में पटेल जी के नाम पर मूर्ति बनाई है. ऐसे में मतदाताओं के सामने भ्रम की स्थिति नहीं है. तीनों ने अपनी सरकार में कितना काम किया इस आधार पर उन्हें चुनाव में जाना होगा और इसी आधार पर मतदाता निर्णय करेंगे.

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