जोधपुर की स्वतंत्रता के नायक थे दुर्गादास राठौड़, त्याग, सेवा और वीरता से भरा है उनका जीवन

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Published : Aug 13, 2022, 12:27 AM IST

Veer Durgadas Rathore Jayanti 2022

जोधपुर पर वैसे तो मुगल अपना आधिपत्य नहीं जमा पाए, लेकिन औरंगजेब ने कुटिल नीतियां अपनाकर जोधपुर पर कब्जा कर लिया और इसका नाम मोहम्मदाबाद करने की घोषणा कर दी. इसके करीब 30 साल तक यहां कठपूतली शासक बनते रहे. जोधपुर को मुगलों से वापस लेने के लम्बे संघर्ष में दुर्गादास राठौड़ ने अहम भूमिका निभाई. अगर वे ना होते, तो जोधपुर मोहम्मदाबाद ही रह जाता. 13 अगस्त को दुर्गादास राठौड़ की 485वीं जयंति पर पढ़िए उनके पराक्रम, त्याग, सेवा, वीरता और संघर्ष की कहानी....

जोधपुर. मुगल कभी मारवाड़ पर अपना आधिपत्य नहीं जमा पाए थे. शाहजहां ने राजपूतों से संबंध बनाकर रखे थे. उसकी मृत्यु के बाद बादशाह बने औरंगजेब ने अपनी कुटिल नीतियों के बूते जोधपुर को हथिया लिया था. इसका नाम मोहम्मदाबाद करने की घोषणा कर दी गई. जोधपुर रियासत को खालसा घोषित कर दिया. 30 साल तक यहां कठपूतली शासक बने रहे. इस दौरान एक ही व्यक्ति था जिसने जोधपुर के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था. वे थे वीर दुर्गादास राठौड़. जिसने 30 साल तक जोधपुर के उत्तराधिकारी अजीतसिंह को औरंगजेब से बचाकर रखा और अंतत वापस राज गद्दी पर बैठाकर राजा जसवंतसिंह को दिया वचन निभाया था. इस दौरान दुर्गादास ने अपनी कूटनीति और शौर्य के बल पर औरंगजेब को मात दी थी.

औरंगजेब की लालसा थी जोधपुर पर कब्जा: सन 1658 में औरंगजेब दिल्ली के तख्त पर बैठ गया. उसने जोधपुर के राजा जसवंतसिंह को अपने पिता की तरह ही सेनापति बनाए रखा. उन्हें काबुल में लड़ने के लिए भेज दिया. पीछे से उनके बेटे पृथ्वीसिंह को मरवा कर जोधपुर को हथिया लिया. काबुल में यह समाचार मिलते ही गंभीर घायल जसवंतसिंह की मृत्यु हो गई. इससे पहले उन्होंने दुर्गादास राठौड़ से वचन लिया कि दूसरी रानी के गर्भ में पल रहे उनके वंश की रक्षा करेंगे और जोधपुर को मुगलों से वापस लेंगे.

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दुर्गादास रानियों को लेकर जोधपुर नहीं गए. कुछ समय बाद दो कुमारों का जन्म हुआ. जिसकी जानकारी मिलते ही औरंगजेब ने यह कहकर दिल्ली बुलाया कि उनकी परवरिश खुद करेगा. दुर्गादास भांप चुके थे. दुर्भाग्य से दिल्ली जाते समय एक कुमार की मृत्यु हो गई. जबकि अजीतसिंह सकशुल थे. दिल्ली में औरंगजेब ने दुर्गादास को मनसबदारी का लालच देकर कुमार को वहीं छोड़ने का कहा. लेकिन दुर्गादास नहीं माने. बमुश्किल औरंगजेब से बचाकर अजीतसिंह को ले गए और युवावस्था तक छिपाए रखा.

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मारवाड़ को किया एकजुट: औरंगजेब के मन में एक ही बात थी कि दुर्गादास कभी भी अजीतसिंह के हक के लिए हमला कर सकता है. इसलिए दुर्गादास को सूबेदार बनाकर दक्षिण में भेज दिया. लेकिन अजीतसिंह औरंगजेब को नहीं मिले. वापस आकर दुर्गादास ने मारवाड़ के राजाओं को एक करना शुरू किया. इसकी भनक लगते ही औरंगजेब ने अपने सिपाहसालार भेज दिए. जिनसे दुर्गादास का कई जगह पर युद्ध हुआ. कहा जाता है कि वो ऐसा दौर था जिसमें दुर्गादास घोड़े पर बैठ कर ही नींद लेते थे. आटे की बाटी भी घोड़े पर बैठे-बैठे भाले की नोंक पर रखकर सेककर खाते थे. बरसों तक यह सिलसिला चलता रहा. दूसरी और औरंगजेब की सेना ने जमकर रक्तपात मचाया. मंदिरों को तोड़ा. दुर्गादास की तलाश में सेना लगा दी गई. सूबेदार शमशेर खां ने दुर्गादास की मां की हत्या तक कर दी.

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बरसों तक संघर्ष कर सेना बनाकर दी औरंगजेब को मात: मारवाड़ पर आए संकट से मुक्ती पाने के लिए दुर्गादास ने अपना पूरा जीवन लगा दिया. सन 1679 में राव जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद से सन 1706 तक अजीतसिंह के गद्दी पर बैठने तक दुर्गादास ने लगातार मुगलों से संघर्ष किया. इस दौरान औरंगजेब के एक बेटे को भी अपने पक्ष में ले लिया और उसे बादशाह बनने के लिए सहयोग किया. जोधपुर की गद्दी पर अजीतसिंह को बैठाने और मुगलों का आधिपत्य खत्म करने के लिए दुर्गादास ने कई लड़ाइयां (Durgadas Rathore battles against Mughals) लड़ी. सन 1701 के बाद यह संघर्ष बढ़ने लगा.

औरंगजेब का साम्राज्य कमजोर होने लगा. उसके बेटे उसकी खिलाफत करने लगे, तो दुर्गादास ने दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया. दिल्ली से आने वाले रास्तों के गांवों में लोगों को तैयार किया. मेवाड़ के शासक से मदद मांगी. करीब पचास हजार राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर पर हमला किया. औरंगजेब के सेनापति दिलवार खां जिसे जोधपुर की सत्ता दी गई थी, उसने हथियार डालते हुए तीन दिन में संधि करने की बात कही. लेकिन दुर्गादास को अंदेशा था कि इस दौरान मुगल सेना आ जाएंगी.

ऐसा ही हुआ, लेकिन दुर्गादास ने जोधपुर आने वाले रास्तों पर अपनी सेना तैनात कर उन्हें वापस लौटने पर मजबूर कर दिया. इसके साथ ही दिलवार खां पर फिर से आक्रमण कर शिकस्त दी. इसके बाद औरंगजेब ने ढाई लाख सैनिकों के साथ जोधपुर पर चढ़ाई का एलान किया. इसकी सूचना मिलते ही मारवाड़ व मेवाड़ के राजाओं ने एकजुटता दिखाई और एक बार फिर भीषण युद्ध हुआ, जिसके बाद औरंगजेब को पीछे हटना पड़ा.

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शिप्रा नदी के किनारे गुजारे अंतिम दिन: जोधपुर के निकट सालवा कलां में 13 अगस्त को आसकरण राठौड़ के घर जन्मे वीर दुर्गादास ने अजीतसिंह को राजा बनाने के बाद भी कई दिनों तक सेवा की. लेकिन 70 वर्ष से अधिक की उम्र में मारवाड़ छोड़ने का निर्णय लिया. मेवाड़ के शासक ने उन्हें एक जागीर देने को कहा, लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया. स्वेच्छा से मारवाड़ छोड़कर उज्जैन चले गए. शिप्रा नदी के किनारे उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे. 22 नवम्बर सन 1718 को उनका निधन हो गया. उनकी स्मृति में जोधपुर राज परिवार ने एक छतरी का निर्माण भी करवाया है. हर साल उनकी जयंति (Veer Durgadas Rathore Jayanti 2022) पर मसूरिया स्थित पहाड़ी पर खुद राजपरिवार के प्रमुख पूजा करते हैं.

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