MP में हर साल खेला जाता है यह 'खूनी खेल', अब तक कई लोग गवां चुके है जान, आखिर क्यों प्रशासन रोकने में है नाकाम?

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Published : Sep 6, 2021, 7:55 PM IST

MP में हर साल खेला जाता है यह 'खूनी खेल'

छिंदवाड़ा के पांढुर्ना (Pandhurna) में मंगलवार यानी 7 सितंबर को गोटमार (Gotmar) का आयोजन होना है. सदियों से चली आ रही परंपरा को इतने सालों से प्रशासन बंद नहीं करवा पाया है. इसमें अबतक 13 लोग अपनी जान खो चुके हैं. उन लोगों के परिजन चाहते हैं कि यह खूनी खेल बंद होना चाहिए.

छिंदवाड़ा। हर साल की तरह इस साल भी छिंदवाड़ा के पांढुर्ना (Pandhurna) में अनोखा और खतरनाक खेल खेलने की तैयार हो चुकी है. इस खेल का नाम है गोटमार (Gotmar). पोला पर्व (Pola Festival) के अगले दिन खेला जाने वाला यह खेल इतना खतरनाक है कि आज तक कई लोग इस खेल में अपनी जान गंवा चुके हैं. इस खेल में नदी के किनारे बसे दो गांवों के लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं. इस बार यह खेल मंगलवार यानी 7 सितंबर को खेला जाएगा.

छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से करीब 104 किलोमीटर दूर पांढुर्णा (Pandhurna) में हर साल गोटमार (Gotmar) खेल खेला जाता है. ये खेल पांढुर्णा की जाम नदी (Jam River) के किनारे खेला जाता है, जहां पलाश के लंबे पेड़ को नदी के बीच में एक झंडे के साथ खड़ा किया जाता है. जाम नदी के किनारे दो गांव, पांढुर्णा और सावरगांव के लोग एक-दूसरे पर पथराव करते हैं. पथराव उन लोगों के ऊपर किया जाता है, जो बीच नदी में खड़े झंडे को हटाने की कोशिश करते हैं. जिस गांव का व्यक्ति उस झंडे को वहां से हटाने में सफल हो जाता है, वह गांव विजयी माना जाता है. इस खेल के दौरान लगातार होती रहती है. पथराव तब तक नहीं रुकता जब तक झंडा नदी के बीच से हटा न लिया जाए.

बंद हो गोटमार की परंपरा

चंडिका देवी को दिया जाता है लहू

हर साल जाटबा (Jatba) राजा की याद में पोला त्योहार के दूसरे दिन यह खूनी खेल खेला जाता है. हजारों की संख्या में लोग मां चंडिका देवी को लहू और पलाश के झंडे को चढ़ाकर सदियों पुरानी इस खूनी परंपरा को निभा रहे हैं. पांढुर्णा (Pandhurna) के बुजुर्ग बताते हैं कि सदियों पहले जाम नदी के किनारे जाटबा राजा का विशालकाय किला था. इस किले में आदिवासियों की ताकतवर सेनाओं का साम्राज्य था. आज भी इस किले की दीवार के अवशेष नजर आते हैं.यहां जाटबा राजा की समाधि भी मौजूद है, जो जर्जर अवस्था में पड़ी हैं, जिसकी सुध न तो नगर पालिका ने ली और न ही जनप्रतिनिधियों ने ली.

गोटमार खेल की हैं दो कहानियां

कहानी नंबर- 1

स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि पांढुर्णा की जाम नदी किनारे 16वीं सदी में विशालकय किला था, जिसके राजा जाटबा थे. जाटबा नरेश का प्रभुत्व मोहखेड़े के देवगढ़ किले तक था. इस किले के पास ही मां चंडी माता का मंदिर हैं. जानकारों के मुताबिक राजा जाटबा चंडी माता के परम भक्त थे. एक बार नागपुर के राजा भोसले और उनकी सेना ने जाटबा नरेश के किले पर हमला कर दिया. उस समय जाटबा नरेश की सेनाओं के पास हथियार नहीं थे. ऐसे हालात में जाटबा नरेश और उनकी सेना ने किले से पत्थरों की बौछार करना शुरू कर दिया. भोसले राजा की सेना पत्थरों का मार सहन नहीं कर सकी और उन्हें परास्त होकर वापस नागपुर लौटना पड़ा. तब से लेकर आज तक जाटबा नरेश की याद में पोला त्योहार के दूसरे दिन पांढुर्णा की जाम नदी के किनारे बसे दोनों गांव के लोग एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार कर सदियों से चली आ रही इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं.

गोटमार के दौरान की तस्वीर
गोटमार के दौरान की तस्वीर

कहानी नंबर- 2

सदियों पुरानी गोटमार खेल की परंपरा की दूसरी कहानी में एक प्रेम प्रसंग का समावेश माना जाता है. इस खेल के बारे में दूसरी किवदंती यह है कि यहां सदियों पहले पांढुर्णा का एक युवक सावरगांव की युवती पर मोहित हो गया था. दोनों पक्ष युवक-युवती के विवाह के लिए राजी नहीं थे. ऐसे में दोनों भादौ की अमावस्या के दूसरे दिन अल सुबह विवाह बंधन में बंधने के लिए भागने लगे. इस दौरान नदी के दोनों तरफ बसे सावरगांव और पांढुर्ना के लोगों ने पथराव शुरू कर दिया, जिसमें नदी के बीच में फंसे युवक और युवती की मौत हो गई. उन दोनों की याद में भादौ अमावस्या के दूसरे दिन गोटमार खेल खेला जाता है.

गोटमार के बाद इस तरह पत्थरों से पट जाती है सड़कें
गोटमार के बाद इस तरह पत्थरों से पट जाती है सड़कें

जीर्णोद्धार का इंतजार कर रही जाटबा नरेश की समाधि

पांढुर्णा में सदियों से जारी गोटमार के जनक राजा जाटबा नरेश की समाधि जर्जर अवस्था में है. इन राजा के नाम से पांढुर्णा नगर पालिका में एक वार्ड बना हुआ है, लेकिन यहां के जनप्रतिनिधियों ने आज तक राजा की समाधि को देखने और उसकी मरम्मत कराने की कोई कोशिश नहीं की.

कावले परिवार की 8वीं पीढ़ी निभा रही झंडे की परंपरा

गोटमार मेले की परंपरा सदियों से जारी हैं, इस दौरान पलाश रूपी झंडे की परंपरा को सावरगांव का कावले परिवार निभा रहा है. हर साल पोला त्योहार के दिन जंगल से पलाश के पेड़ को काटकर कावले परिवार घर लाकर उस झंडे की पूजा-अर्चना कर, दूसरे दिन की अल सुबह करीब चार बजे झंडे को जाम नदी के बीचों बीच स्थापित कर गोटमार मेले का आगाज करते हैं. वर्तमान में सुरेश कावले की 8वीं पीढ़ी झंडे की परंपरा निभा रही है.

गोटमार में देवानंद वघाले की हो चुकी है मौत
गोटमार में देवानंद वघाले की हो चुकी है मौत

अपनो को खोने वाले चाहते हैं कि बंद हो परंपरा

इस खूनी खेल में अब तक करीब 13 लोगों की जान जा चुकी है. गोटमार की परंपरा के नाम पर पांढुर्ना के रहने वाले देवानंद वघाले की भी मौत हो चुकी है. उनके भाई का कहना है कि परंपरा बंद होनी चाहिए और उसकी जगह कोई अच्छा मेला लगे, ताकि खून बहना बंद हो. शासन ने इस परंपरा को कई बार बंद करने की कोशिश की लेकिन आस्था के आगे किसी की नहीं चली और परंपरा लगातार चली आ रही है.

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प्रशासन ने पांढुर्ना में लगाई धारा 144

इस मेले को देखते हुए प्रशासन ने धारा 144 लागू कर दी है, लेकिन माना जा रहा है कि फिर भी लोग ये खूनी खेल खेलेंगे. मेले को लेकर चंडी माता का दरबार को सजाया गया है. गोटमार मेले के दिन मंदिर में हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं. मंगलवार को होने वाले गोटमार मेले को देखते हुए घायलों की मरहम पट्टी, दवाई, एंबुलेंस जैसी व्यवस्था की गई है.

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