झारखंड विधानसभा चुनाव: 'गन से गणतंत्र' तक का सफर, उग्रवादी संगठन में रहते रांची-दिल्ली तक का किया सफर

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Published : Nov 28, 2019, 5:04 PM IST

गन से गणतंत्र तक का सफर

झारखंड में 'गन से गणतंत्र' तक की सफर करने वाले कई नेता रहे हैं, जो हिंसा का रास्ता छोड़ चुनाव लड़कर लोकतंत्र की मुख्यधारा से जुड़े हैं. इस विधानसभा चुनाव में भी कई नक्सली नेता चुनावी मैदान में हैं. पलामू की राजनीति इतिहास में भी कई ऐसे नाम रहे हैं जो उग्रवादी गतिविधियों में शामिल रहने के बावजूद भी संगठन छोड़ राजनीति में किस्मत आजमा चुके हैं.

पलामू: राजनीति में गन से गणतंत्र तक की सफर तय करने वालों में झारखंड का नाम शीर्ष पर आता है. नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़ कई उग्रवादियों ने चुनाव लड़ा और लोकतंत्र के जरिए मुख्यधारा से जुड़े. राज्य में हो रहे विधानसभा चुनाव में भी नक्सली नेता रह चुके कई लोग भाग्य आजमाने को बेताब हैं.

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2009 में हथियार छोड़ संसद पहुंचे थे कामेश्वर बैठा

राजनीति में हिंसा और लोकतंत्र का बहुत करीबी संबंध रहा है. हिंसा की दुनिया छोड़कर लोकतंत्र से लड़ने वाले कई लोग मुख्यधारा में लौटे हैं. 2009 के झारखंड विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में ऐसा ही कुछ नाजारा देखने को मिला था. भारतीय लोकतंत्र का विरोध करने वाले माओवादी नेता कामेश्वर बैठा उस समय पलामू से सांसद चुने गए थे. वहीं, 2009 के विधानसभा चुनाव में कई माओवादी नेताओं ने राजनीति में अपनी किस्मत आजमाई था. हालांकि, उस दौरान किसी को भी सफलता नहीं मिली थी. अब 2019 के विधानसभा चुनाव में पलामू से कोई भी नक्सली नेता चुनाव मैदान में नहीं हैं.

हर चुनाव में राजनीतिक दलों को सहयोग करते रहे हैं नक्सली नेता

कामेश्वर बैठा पहले ऐसे नेता रहे हैं जिन्होंने माओवादियों के हथियारबंद आंदोलन से जुड़े रहने के बावजूद भी चुनाव जीतकर पलामू से संसद भवन तक का सफर तय किया. कामेश्वर बैठा पर 50 से भी अधिक बड़े नक्सली हमले का आरोप था. माओवादियों का चुनाव वहिष्कार आंदोलन करीब 5 दशक पहले से चलते आ रहा है, जो कि इस बार के चुनाव में भी देखने को मिला. कुछ दिन पहले ही लातेहार और पलामू में माओवादिओं ने चुनाव बहिष्कार का नारा लगाते हुए नक्सली घटना को अंजाम दिया था. जिसमें पुलिस सहित कई लोगों की जान चली गई. माओवादियों के हथियार बंद आंदोलन से जुड़े और आजसू के केंद्रीय नेता सतीश कुमार ने ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान बताते हैं कि वह भी माओवादी नेता रहते हुए चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन तब वे दूसरे पार्टी से थे. सतीश ये भी बताते हैं कि माओवादी संसदीय प्रणाली का हमेशा विरोध करते रहे हैं, लेकिन वे चुनाव के समय किसी न किसी पार्टी को सहयोग करते रहे हैं.

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2009 विधानसभा चुनाव में कइयों ने लोकतंत्र में आजमाई किस्मत

साल 2009 के विधानसभा चुनाव के दौरान जेल में बंद जेएलटी कमांडर मसीहचरण पूर्ति को झामुमो ने खूंटी से, पौलुस सुरीन को तोरपा, सतीश कुमार, शोभा पाल, दिनकर यादव और करीम जैसे टॉप माओवादी नेता को डालटनगंज, युगल पाल को विश्रामपुर से लड़ाया था. राजद ने नक्सली संगठन में रहे केश्वर यादव उर्फ रंजन यादव को पांकी से चुनाव मैदान में उतारा था. रंजन 2 बार चतरा से लोकसभा चुनाव भी लड़ चुका है, लेकिन पौलुस सुरीन को छोड़ किसी ने चुनाव नहीं जीता है. आजसू ने 2009 में सिमरिया से पूर्व माओवादी कमांडर कुलदीप गंझू को चुनाव लड़ाया था, वहीं टीपीसी सुप्रीमो ब्रजेश गंझू के भाई गणेश गंझू झाविमो से सिमरिया से लड़े थे. वहीं, सिर्फ पलामू की बात करे तो कामेश्वर बैठा को छोड़कर कोई भी माओवादी नेता चुनाव नहीं जित सका है.

Intro:कभी पलामू में माओवादियों के हथियार बंद आंदोलन से जुड़ा व्यक्ति बना था सांसद, आज एक भी चुनाव मैदान में नही, 2009 और 2014 में बड़ी संख्या में माओवादी नेता लड़े थे चुनाव

नीरज कुमार । पलामू

2009 का विधानसभा और लोकसभा का चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए खास रहा था ।भारतीय लोकतंत्र का विरोध करने वाले माओवादी नेता कामेश्वर बैठा पलामू सांसद चुने गए था। 2009 के ही विधानसभा चुनाव में पलामू में आधा दर्जन से अधिक माओवादी नेताओं ने किस्मत आजमाई थी। हालांकि उस दौरान किसी को भी सफलता नहीं मिली थी ।आज 2019 के विधानसभा चुनाव में कोई भी नक्सली नेता चुनाव मैदान में हीं है कामेश्वर बैठा ऐसे पहले नेता थे जब माओवादियों का हथियारबंद आंदोलन से जुड़े हुए थे और पलामू सांसद चुने गए थे। कामेश्वर बैठा पर 50 से भी अधिक बड़े नक्सल हमले का आरोप थे ।पलामू पलामू माओवादियों के हथियारबंद आंदोलन से करीब पांच दशक से भी अधिक समय से जुड़ा हुआ है ।माओवादी इस बार भी वोट बहिष्कार का नारा देते हुए हमले किए हैं ।


Body:माओवादियों के हथियार बंद आंदोलन से जुड़े और आजसू के केंद्रीय नेता सतीश कुमार बताते है कि विचारधारा से माओवादी नेता चुनाव जीते थे, लेकिन पार्टी दूसरी थी। सतीश कुमार यह भी बताते है कि माओवादी संसदीय प्रणाली का विरोध करते हैं लेकिन वे चुनाव में किसी न किसी पार्टी को सहयोग करते हैं।


पलामू में 2009 के विधानसभा चुनाव में सतीश कुमार, सोभा पाल, दिनकर यादव, करीम जैसे टॉप माओवादी नेताओ ने भाग्य को आजमाया था। 2014 में दिनकर यादव, युगल पाल समेत कई टॉप माओवादियों ने भाग्य को आजमाया था। कामेश्वर बैठा भी लोकसभा का चुनाव लड़े लेकिन 2014 और 2019 में हार गए।


Conclusion:सतीश कुमार बताते हैं कि बड़ी संख्या में लोग उभर कर सामने आए थे कि संसदीय प्रणाली में लोगो की समस्या का समाधान हो। वे बताते है कि जो विचारधारा के साथ आंदोलन शुरू हुआ था, उसी विचारधारा के समस्या का समाधान संसदीय प्रणाली में है। सतीश कुमार बताते है कि विश्व के हर जगह पर वामपंथ विचारधारा कमजोर हुई है।

पलामू में कभी माओवादियों की सामांतर सरकार थी, माओवादी नेताओ का प्रभाव था। बदलते वक्त के साथ कई टॉप माओवादी मुख्यधारा में शामिल हुए। लेकिन कामेश्वर बैठा छोड़ कोई भी चुनाव नही जीत सका।
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