एकतरफा तलाक के सभी रूपों को असंवैधानिक घोषित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका

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Published : May 2, 2022, 7:04 PM IST

Supreme court

देश के सभी नागरिकों के लिए तलाक की एक समान प्रक्रिया हो, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई है. याचिकाकर्ता एक मुस्लिम महिला है. वह तलाक-ए-हसन से पीड़ित हो चुकी है. महिला ने दावा किया कि पुलिस ने उसे बताया कि शरीयत के तहत एकतरफा तलाक-ए-हसन की अनुमति है. लेकिन महिला ने इसका प्रतिवाद किया है.

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें तलाक-ए-हसन और ऐसी ही अन्य सभी तलाक की प्रक्रियाओं को असंवैधानिक घोषित करने का निर्देश देने की मांग की गई है, जो कि मनमाने और तर्कहीन तरीके से की जाती हैं. याचिका में मनमाने तरीके से किए जाने वाले तलाक का विरोध करते हुए कहा गया है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25 का उल्लंघन है.

याचिका में केंद्र को सभी नागरिकों के लिए तलाक के तटस्थ आधार और तलाक की एक समान प्रक्रिया के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की गई है. याचिका एक मुस्लिम महिला द्वारा दायर की गई है, जिसने एकतरफा एक्सट्रा ज्यूडिशियल तलाक-ए-हसन का शिकार होने का दावा किया है. याचिका अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे के माध्यम से दायर की गई है. याचिकाकर्ता ने इस साल फरवरी में दिल्ली महिला आयोग को एक शिकायत दर्ज कराई थी और अप्रैल में एक प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई थी. हालांकि महिला ने दावा किया कि पुलिस ने उसे बताया कि शरीयत के तहत एकतरफा तलाक-ए-हसन की अनुमति है.

याचिका में तलाक- ए-हसन को एकतरफा, मनमाना और समता के अधिकार के खिलाफ बताया गया है. याचिकाकर्ता के मुताबिक ये परंपरा इस्लाम के मौलिक सिद्धांत में शामिल नहीं है. याचिका में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, जो कि शादी से संबंधित मामलों के लिए है, उसे लेकर एक गलत धारणा बनी हुई है और तलाक-ए-हसन और ऐसे अन्य सभी रूपों को मंजूरी देना गलत है. इसमें कहा गया है कि एकतरफा एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल तलाक जैसे प्रक्रिया विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों के लिए बेहद हानिकारक है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के साथ ही नागरिक और मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन करता है.

याचिका में कहा गया है कि संविधान न तो किसी समुदाय के पर्सनल लॉ को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है और न ही पर्सनल लॉ को विधायिका या न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से छूट देता है. दलील में तर्क दिया गया है कि तलाक-ए-हसन और एकतरफा एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल तलाक के अन्य रूपों की प्रथा न तो मानव अधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के अनुरूप है और न ही इस्लामी विश्वास का एक अभिन्न अंग है. याचिका में आगे कहा गया है, कई इस्लामी राष्ट्रों ने इस तरह की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है, जबकि यह सामान्य रूप से भारतीय समाज और विशेष रूप से याचिकाकर्ता की तरह मुस्लिम महिलाओं को परेशान करना जारी रखे हुए है.

याचिका में गुहार लगाते हुए कहा गया है कि यह प्रस्तुत किया जाता है कि यह प्रथा कई महिलाओं और उनके बच्चों के जीवन को भी खराब कर देती है, विशेष रूप से इससे समाज में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को सबसे अधिक परेशानी उठानी पड़ती है. याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि दिसंबर 2020 में मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार उसकी शादी एक व्यक्ति से हुई थी और उसका एक लड़का है. याचिका में कहा गया है कि उसके माता-पिता को दहेज देने के लिए मजबूर किया गया था और बाद में पर्याप्त दहेज नहीं मिलने के कारण उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया. उसने आरोप लगाया कि दहेज देने से इनकार करने पर याचिकाकर्ता के पति ने एक वकील के जरिए उसे एकतरफा एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल तलाक-ए-हसन दे दिया. याचिका में मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25 का उल्लंघन करने के लिए अमान्य और असंवैधानिक घोषित करने का निर्देश देने की भी मांग की गई है.

(IANS)

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