मुंबई की झोपड़पट्टी से वाया जेएनयू अब अमेरिका तक का सफ़र...

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Published : May 12, 2022, 9:48 AM IST

सरिता माली की सफलता की कहानी

"जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह-रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है. मैं भी उसी टिमटिमाती हुई शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी. मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहां भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था. हमें कीड़े-मकोड़ो के अतिरिक्त कुछ नही समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई, मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं." यह शब्द है मुंबई की झोपड़पट्टी से अमेरिका तक का सफ़र तय करने वाली 28 वर्षीय सरिता माली के. आईये इस अविश्वसनीय लगने वाली कहानी को गौर से पढ़ें...

नई दिल्ली: मूलरूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले की 28 वर्षीय सरिता माली इन दिनों काफी खुश है. इसका कारण यह है कि आगे की पढ़ाई के लिए सरिता का अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंग्टन. सरिता ने अपनी सोच समझ से यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है, क्योंकि इस यूनिवर्सिटी ने सरिता की मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक 'चांसलर फ़ेलोशिप' दी है.

अब ऐसे तो प्रतिवर्ष सैकड़ों भारतीय छात्र उच्च शिक्षा की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाते हैं, ऐसे में सरिता का अमेरिका जाना और अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक 'चांसलर फ़ेलोशिप' पाने के बारे में इसलिए मायने रखता है क्योंकि वह जिस परिवार, परिवेश से ताल्लुक रखती है वहां से यहां तक का सफर तय करना सबके लिए आसान नहीं होता.

मुंबई की झोपड़पट्टी में जन्मी, वहां के सरकारी स्कूल में पढ़ने और दिल्ली के जेएनयू से हिंदी में पीएचडी करने के बाद अब कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य में कुछ कर सकने की बात से सरिता स्वयं भावुक हो जाती हैं. बकौल सरिता, क्योंकि ये ऐसा सफ़र है जहां मंजिल की चाह के मुकाबले उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं. हो सकता है आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे, लेकिन यह सरिता माली की कहानी है. जो मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से ताल्लुक रखती हैं. लेकिन उसका जन्म और परवरिश मुंबई में हुई.

मुंबई की झोपड़पट्टी से अमेरिका तक का सफ़र...
मुंबई की झोपड़पट्टी से अमेरिका तक का सफ़र...
सरिता कहती हैं कि वह भारत के जिस वंचित समाज से आई, वह भारत के करोड़ो लोगों की नियति है. लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है क्योंकि वह यहां तक पहुंची है. "जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह-रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है. मैं भी उसी टिमटिमाती हुई शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी. मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहां भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था. हमें कीड़े-मकोड़ो के अतिरिक्त कुछ नही समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई, मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं."सरिता कहती है वह आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर गरीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती है तो उसे उसका बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? जब वे सब भाई- बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेंचते थे तब वे भी गाड़ी वालों के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे. तब पापा उस समय समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है. बस सरिता ने तभी संकल्प लिया कि वो खूब पढ़ाई करेगी और आगे बढ़ेगी. सरिता के पिताजी कहते थे अगर हम नही पढेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जाएगा. हम इस देश और समाज को कुछ नही दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे.इसी भूख, अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए सरिता 2014 में जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई. वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी पता नहीं क्या-क्या कहतें हैं, सरिता के अनुसार जब वह इन शब्दों को सुनती है तो भीतर एक उम्मीद टूटती है. कुछ ऐसी ज़िंदगियां यहां आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूं. वह कहती है कि यहां के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने उसे इस देश को सही अर्थो में समझने और अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी. वो गर्व से कहती हैं कि जेएनयू ने उसे सबसे पहले इंसान बनाया. यहां की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मजदूर, पिछडों, दलितों, आदिवासियों, गरीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज उठाती है, बल्कि इसके साथ-साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करना का साहस भी देती है. जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के खिलाफ बोल सके. वह बेहद उत्साहित है कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौका मुझे मिला है. 2014 में 20 साल की उम्र में सरिता जेएनयू मास्टर्स करने आई थी और अब यहां से एमए, एम फिल की डिग्री लेकर इस वर्ष पीएचडी जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा पीएचडी करने और वहां पढ़ाने का मौका मिला है. पढाई को लेकर सरिता के भीतर एक जूनून रहा तभी 22 साल की उम्र में उसने शोध की दुनिया में कदम रखा था, और आज खुश है कि यह सफ़र आगे 7 वर्षो के लिए अनवरत जारी रहेगा. अंत में मुंबई से वाया जेएनयू होते हुए अब अमेरिका तक जाने में जिन शिक्षक, मार्गदर्शक, दोस्तों ने साथ दिया उनका जिक्र करते हुए सरिता कहती हैं कि उसका यहां तक पहुंचने में इन गुरुजनों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. वह सर्वप्रथम अपने स्कूल के शिक्षक राजीव सिंह को धन्यवाद देती है, सोमैया कॉलेज के मेरे शिक्षक डॉ सतीश पांडेय, जेएनयू में मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर देवेंद्र कुमार चौबे, प्रोफेसर ओम प्रकाश सिंह, प्रोफेसर रमन प्रसाद सिन्हा, प्रोफेसर रामबक्स, सह - शोध निर्देशक डॉ हरीश वानखेड़े, डॉ प्रदीप शिंदे और महारष्ट्र से शोध में हमेशा सहायता करने वाले डॉ मनोहर सर इन सभी का ह्रदय से आभार व्यक्त किया है. इसके अतिरिक्त जिन सीनियर्स, जूनियर्स और दोस्तों से सरिता ने बहुत कुछ सीखा और इन्होंने इस सफ़र को खुबसूरत बनाया उन्हें भी शुक्रिया कहा है.
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