किसान आंदोलन का एक साल: क्या राकेश टिकैत में किसान देशव्यापी बड़ी भूमिका देख रहा है ?

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Published : Nov 19, 2021, 8:58 PM IST

Updated : Nov 26, 2021, 6:28 AM IST

rakesh tikait

किसान आंदोलन का एक साल आज पूरा हो गया है. किसानों की जिद के आगे केंद्र सरकार थोड़ी झुकी है. तीन कृषि कानूनों को सरकार ने वापस ले लिया है. केंद्रीय कैबिनेट ने इस पर मुहर भी लगा दी है. हालांकि अभी भी किसान आंदोलन को खत्म करने के मूड़ में नहीं हैं. उनका कहना है कि जब तक एमएसपी समेत और छह मुद्दों पर सरकार बात नहीं करती हम वापस नहीं हटेंगे. हमारी विवेचना 'फर्स्ट पंच' में बीते सालभर से सुर्खियों में रहे भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत का कद फिर चर्चाओ में है. आंदोलन के इस मोड़ पर खड़े राकेश टिकैट के आंदोलनकारी किरदार और भविष्य की राह पर ईटीवी भारत की ये रिपोर्ट पढ़िए.

- विशाल सूर्यकांत

नई दिल्लीः क्या वाकई राकेश टिकैत किसानों के राष्ट्रीय नेता बन गए हैं ? दरअसल, ये सवाल इसीलिए भी है, क्योंकि आप उनके तौर-तरीके से सहमत हों या न हों, लेकिन उनकी अगुवाई में चल रहे आंदोलन ने देश में लोकप्रिय और पूर्ण बहुमत वाली सरकार को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया है. ये सवाल इसीलिए मौजूं है क्योंकि एक साल में राकेश टिकैत और उनके सहयोगी किसान आंदोलन के देशव्यापी झलक को सतह पर नहीं ला सके लेकिन वो केन्द्र सरकार को अपनी मांगों पर झुकाने में कामयाब हो गए. ये सवाल इसीलिए भी किया जा रहा है, क्योंकि देश में अलग-अलग राजनीतिक दलों में किसान संगठनों के तो हजारो पदाधिकारी हैं, लेकिन उनमें से कोई भी राकेश टिकैत जितनी सुर्खियां इस वक्त हासिल नहीं कर पा रहा है . ये सवाल इसीलिए भी उठ रहा है, क्योंकि आंदोलन के इस एक साल के दौरान कई बार दम तोड़ते आंदोलन को कभी अपने बयानों और कभी अपने आंसुओं से वो टॉनिक देते रहे और आखिरकार कानून वापस करवा लिये .


राकेश टिकैत देश में 365 दिनों तक सुर्खियों में रहा, वो नाम है जो आते-जाते मुद्दों के बीच हमेशा प्रासंगिक बना रहा. 2022 तक किसानों की आय दोगुनी का नारा बुलंद करने वाली मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को इसी कड़ी के रूप में प्रचारित किया. अपनी व्यापक स्वीकार्यता के चलते तीन कृषि कानूनों को संसद के दोनों सदनों में पास करने के बाद मोदी सरकार एक तरह से आश्वस्त थी, कि वो देश में कृषि की परम्परागत व्यवस्थाओं को बदलने के लिए युगान्तरकारी कदम उठा चुकी है.

लगातार दो बार बहुमत वाली सरकार और दूसरी पारी में भी विभिन्न मुद्दों और बयानों से अपनी लोकप्रियता कायम रखने वाले पार्टी नेताओं की लंबी फेहरिस्त...लोकतंत्र में जहां सत्ता और संगठन दोनों की एकराय, एक स्वर पूरी मजबूती से बात रखते नजर आते हैं, विपक्षी वार की धार कुंद करना आसान होता है. लेकिन किसान आंदोलन ने इस पहलू को बदलने का काम कर दिया है. अगर ऐसा नहीं होता तो शायद पीएम मोदी को खुद कृषि कानूनों की वापसी का एलान नहीं करना पड़ता. हालांकि, पीएम मोदी ने अपने उद्बोधन में कृषि कानूनों की पैरवी में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन अंत में ये भी स्वीकार कर गए कि ''दीये के प्रकाश जैसा सत्य'' हम किसानों के एक तबके को नहीं समझा पाए.


केन्द्र सरकार के कृषि कानून वापस लिए जाने के फैसले के बाद राकेश टिकैत के कद को लेकर बहस होना तय है, क्योंकि बहुमत वाली सरकार को अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर करना आसान नहीं . क्या राकेश टिकैत देशभर के किसानों के लिए नई आवाज है ? क्या देश के किसानों के लिए कोई बड़ी भूमिका राकेश टिकैत का इंतजार कर रही है, सीधे शब्दों में कहें तो क्या राकेश टिकैत, किसानों के मुद्दे पर अपने पिता महेन्द्र सिंह टिकैत, किसान नेता चौधरी चरण सिंह के समकक्ष जा खड़े हुए हैं या उनसे भी आगे निकल रहे हैं ?

इस सवाल पर आंदोलन को करीब से देखने वाले विश्लेषकों की अलग-अलग राय है.

"इस बात में कोई संदेह नहीं कि बिल वापस होने के बाद राकेश टिकैत किसानों के सबसे बडे नेता के रूप में उभरे हैं. उन्होंने कठिन दौर में आंदोलन को संभाला है. सोचिए जरा 26 जनवरी लाल किला हिंसा के बाद जो परिस्थितियां बनी थी, उन परिस्थितियों के बाद इस देश में कौन सा आंदोलन टिक पाता. अगर उस वक्त में टिकैत के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नहीं जुटते तो सरकार की तो पूरी तैयारी थी कि आंदोलन अब खत्म करवा लिया जाएगा."
- अरविंद कुमार सिंह , पूर्व संपादक, राज्यसभा टीवी



वहीं, राकेश टिकैत के किसान आंदोलन के नेतृत्व बन जाने के सवाल पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर निरंजन कुमार अलग राय रखते हैं . उनके मुताबिक -
'' ये अभी तय कहा नहीं जा सकता कि आंदोलन सफल हो गया, क्योंकि वे पूरे देश के किसानों की नुमाइंदगी नहीं करते. उनको पूरे देश के किसानों की बात करनी चाहिए थी, लेकिन कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि वो किसी खास एजेंडा से प्रेरित हो रहे हैं. केन्द्र सरकार के कदम का जब हम विश्लेषण कर रहे हैं, तो राकेश टिकैत और उनके सहयोगियों के रुख को भी देखना चाहिए. जब केन्द्र ने कानून स्थगित कर रखे हैं, सुप्रीम कोर्ट भी इसमें भूमिका निभा रहा है, तो आंदोलनकारियों को मेज पर आकर बात करनी चाहिए थी. उनका एक तरह से अड़ियल रूख था, जिसे आप आंदोलन की सफलता नहीं कह सकते. आंदोलन में जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय इंटरनेशनल एजेंसियों का पहलू जुड़ा, वो भी रेखांकित करना चाहिए .



कृषि कानूनों की वापसी के बाद राकेश टिकैत की भूमिका क्या होगी, क्या कृषि कानूनों की वापसी के बाद टिकैत एमएसपी समेत किसानों की उन समस्याओं को दूर कर पाएंगे, जो पिछले 70 सालों से चल रही है ? इस सवाल पर विश्लेषक अरविन्द सिंह कहते हैं - " भारतीय किसान यूनियन ने आंदोलन में जो ताकत दिखाई है, वो दूसरे किसी आंदोलन की नहीं बन पाई है. भले ही आंदोलन में पंजाब, हरियाणा के किसान भी शामिल रहे, लेकिन राकेश टिकैत इस आंदोलन का केन्द्र और प्रमुख आधार दोनों बने रहे. विश्लेषक अरविन्द सिंह के मुताबिक, राकेश टिकैत के पिता और किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत की भी राष्ट्रीय नेता की छवि रही, लेकिन इस आंदोलन के बाद राकेश टिकैट की जो छवि बन रही है वो महेन्द्र सिंह टिकैत की भी नहीं बन पाई, वो गन्ना किसानों की नुमाइंदगी करते रहे. इस देश में सैंकड़ों की संख्या में किसान संगठन हैं, आने वाले वक्त में राकेश टिकैत यकीनन उनके लिए समन्वयक का काम करेंगे. मुझे लगता है कि किसानों के मुद्दे पर देश, राकेश टिकैत की बड़ी भूमिका का इंतजार कर रहा है."



वहीं, प्रोफेसर निरंजन कुमार इसे राकेश टिकैत के राष्ट्रीय नेता बन जाने के सवाल को अतिश्योक्ति करार देते हुए कहते हैं - ''
सभी जानते हैं राकेश टिकैत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं. वो चुनावी राजनीति में उतरे थे, अपना चुनाव बुरी तरह से हार भी गए थे. वे आज भी कई राजनीतिक पार्टियों के संपर्क में हैं. देश का किसान नेता बनने से पहले, उन्हें ये विचार करना चाहिए कि पंजाब, हरियाणा और यूपी के अलावा बाकी राज्यों के किसान, क्यों उन्हें अपना नेता नहीं मान रहे ? क्यों बाकी राज्यों में आंदोलन नहीं चले. उनका मकसद सरकार गिराने का ज्यादा रहा. भले ही तत्कालिक रूप से लोग जुड़ जाएं, लेकिन बडे वक्त में उन्हें इसका फायदा नहीं मिला. कई फैसले होते हैं मसलन, 1991 में आर्थिक उदारीकरण उस वक्त किसी के गले नहीं उतरा था. स्वदेशी आंदोलन भी हुए लेकिन आज देखिए उदारीकरण नहीं होता तो आज हमारी बड़ी आबादी को भूखों मरने की नौबत आ जाती. इसीलिए कुछ फैसले दीर्घकाल के लिए होते हैं. कृषि कानून ऐसे ही थे."



ईटीवी भारत ने इन दो विश्लेषकों से पूछा कि क्या मोदी सरकार के इस कदम को मास्टर स्ट्रोक माना जाना चाहिए. अरविन्द कुमार सिंह इससे साफ इंकार करत हुए कहते हैं कि ये मास्टर स्ट्रोक तो कतई नहीं कहा जा सकता, बल्कि निश्चित रूप से ये देरी से उठाया गया कदम है. पंजाब और यूपी के चुनावों से पहले इसे अगर वापस नहीं लेते हैं, तो बडा राजनीतिक नुकसान होता. इसके अलावा लखीमपुर खीरी की घटना ने भी सरकार को किसानों की मांगों के आगे झुकने को मजबूर किया. ये किसानों का गुस्सा कम करने की कोशिश है. जैसे भूमि अधिग्रहण बिल कानून का हश्र हुआ था, ठीक इसमें भी ऐसा ही हुआ है. मगर इससे राजनीतिक लाभ मिलेगा, इस पर अभी भी संशय है.

वहीं, दूसरे विश्लेषक प्रोफेसर निरंजन कुमार के मुताबिक, इसे मास्टर स्ट्रोक या यू-टर्न की बजाए लोगों की भावना को देखकर उठाया कदम कहना चाहिए. लोकतंत्र में कई चीजों के सामने सरकार को झुकना होता है, खासकर तब जब किसी एजेंडा के तहत काम होता है. इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा, ये मुझे नहीं मालूम लेकिन किसान कानून को ठीक से लागू करना अपने आप में बड़ा मौका है. इसे अभी वापस लिया गया है, मुझे लगता है कि नए स्वरूप में इसे फिर लाया जाएगा, जिसमें और व्यापकता होगी.



दरअसल, भारतीय किसान यूनियन के संयोजक के रूप में राकेश टिकैत का भी बडा इम्तिहान था. कभी खुद चुनावी राजनीति से जुड़ चुके राकेश टिकैट के सामने निष्पक्ष नेतृत्व देने का सवाल हमेशा से खड़ा रहा . लेकिन पिता महेन्द्र सिंह टिकैत की विरासत की छवि इस मजबूती से चिपकी रही कि राकेश टिकैत के राजनीतिक चरित्र का सच, सभी के सामने होने के बावजूद नेपथ्य में ही रहा.


55 साल से राकेश टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत का जब भी ज़िक्र होता है, तब 1988 में दिल्ली के बोट क्लब में हुए किसानों के प्रदर्शन को ज़रूर याद किया जाता है. इस प्रदर्शन के बाद, बोट क्लब के क़रीब प्रदर्शन करने पर ही रोक लगा दी गई थी. महेंद्र सिंह टिकैत उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय किसान नेता रहे. वे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भी थे और क़रीब 25 साल तक वे किसानों की समस्याओं को लेकर संघर्ष करते रहे. महेन्द्र सिंह टिकैत की सभाओं में धर्म-निरपेक्षता को लेकर नारे लगते थे, जिसे राकेश टिकैत ने हूबहू अपना कर अपने आंदोलन का दायरा और बढ़ा दिया. चौधरी चरण सिंह और महेन्द्र सिंह टिकैत के बाद दौर भी बदल गया और किसानों की जिंदगी में भी मुद्दे उस रूप में नहीं रहे, लेकिन इन सब के बावजूद राकेश टिकैत ने अपने समकालीन प्रतिद्वंदी किसान नेताओं के बीच न सिर्फ खुद को बल्कि अपनी मांगों को भी आंदोलन के केन्द्र में बनाए रखा.


निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि जिस तरह की परिस्थितियां किसान आंदोलन में एक साल के दौरान बनीं, अगर कोई दूसरा आंदोलन होता तो न केवल टूटता बल्कि नेताओं के सामने भविष्य के लिए साख का संकट भी खड़ा हो जाता. अभी तक की राह तो मुफीद है, लेकिन इससे आगे एमएसपी को लेकर राकेश टिकैत किसान संगठन कितने साथ और एकजुट होकर काम कर पाते हैं ये देखना होगा, क्योंकि एक आंदोलन को जिस तरह से खड़ा किया जाता है, उसी करीने से उसे बिखेरना भी होता है. क्योंकि कामयाबी के कई हिस्सेदार हो जाया करते हैं. एक साल में यकीनन कई किसान नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी जगी होंगी. कुछ नेता आंदोलन यहीं थाम कर पार्टियों के राजनीतिक टिकट भी चाहेंगे. लोकतंत्र में हर आंदोलन की परिणिति आखिरकार राजनीतिक दलों के दफ्तर में होती है, इस देश में इस सच्चाई से मुंह नहीं फेर सकते . जाहिर है राकेश टिकैट का आंदोलनकारी किरदार आज भले कामयाब हो लेकिन इसे परिभाषित करने भविष्य के कई गलियारों को उनके साथ उनका आकलन करते हुए पार करना होगा.

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Last Updated :Nov 26, 2021, 6:28 AM IST
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