अफगानिस्तान में तालिबान पर चीन मेहरबान, जानें इस दोस्ती का मकसद क्या है ?

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Published : Aug 19, 2021, 2:01 PM IST

Updated : Aug 19, 2021, 4:18 PM IST

china taliban friendship

अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के बाद कई देशों ने अपने दूतावास बंद कर दिए, मगर चीन की एंबेसी काम कर रही है. चीन की प्रवक्ता तालिबानी शासन को मान्यता देने का संदेश दे चुकी है. चीन ने तालिबान 1.0 को मान्यता नहीं दी थी. इस बार आखिर चीन अफगानिस्तान में तालिबान शासन की जल्दी में क्यों है?

हैदराबाद : तालिबान ने अभी काबुल पर कब्जे के बाद अफगानिस्तान में सरकार नहीं बनाई है मगर चीन मान्यता देने के लिए लालायित है. चीन ने अपने बयान में तालिबान के साथ तालमेल की प्रतिबद्धता भी जता दी है. हालांकि तालिबान को कूटनीतिक मान्यता को लेकर चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने कहा कि अफगानिस्तान में सरकार बनने के बाद ही उनका देश इस बारे में फैसला करेगा

अफगानिस्तान अब चीन के लिए खुला मैदान है, कोई नहीं है टोकनेवाला : तालिबान के प्रति चीन की हमदर्दी के कई आर्थिक और सामरिक कारण है. पिछले 20 साल तक अमेरिका अफगानिस्तान में पहरेदारी कर रहा था. हामिद करजई और अशरफ गनी की सरकार में अमेरिकी डिप्लोमेसी की दखल थी. वहां अमेरिकी फौज की मौजूदगी से भी चीन परेशान था. अब अफगानिस्तान चीन के लिए यूरोप और अमेरिकी देशों के प्रभाव से मुक्त खुला देश है, जहां वह इन्वेस्टमेंट की बदौलत अरबों डॉलर के नैचुरल रिसोर्स पर कब्जा कर सकता है. इसके अलावा चीन की पहुंच सेंट्रल एशिया में हो जाएगी, जहां वह अपनी जरूरतों के हिसाब से बड़े पैमाने पर इन्फ़्रास्ट्रक्टर डिवेलप कर सकता है.

  • Chinese Embassy in #Afghanistan is working as usual. Most Chinese nationals had been arranged to return to China previously and some chose to stay. The embassy is in touch with those who stay and they are safe, Chinese FM spokesperson Hua Chunying said Mon. pic.twitter.com/ABniUz2OMH

    — Global Times (@globaltimesnews) August 16, 2021 " class="align-text-top noRightClick twitterSection" data=" ">

डेमोक्रेटिक अफगानिस्तान से चीन ने निवेश के लिए तीन बड़े समझौते किए थे मगर उस पर अमल नहीं कर सका था. उसकी सभी परियोजनाएं रुकी हुई हैं. रेलवे लाइन, बिजली स्टेशन और रिफाइनरी जैसी चिर-प्रतिक्षित योजनाओं पर उसने ठोस काम शुरू नहीं किया. 2007 में, मैटलर्जिकल कॉरपोरेशन ऑफ़ चाइना और जियांग्शी कॉपर ने मेस अयनाक रीज़न में तांबे की खादान के विकास और दोहन के लिए सर्वाधिक बोली लगाकर 30 साल के लिए टेंडर हासिल किया था. यह खादान काबुल से सिर्फ 25 मील दूर है और तालिबान ने चीन से हमला नहीं करने का वादा किया था. इसके बावजूद चीन ने इसका संचालन बंद कर दिया.

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अफगानिस्तान में तालिबान

2007 में जब 2.83 बिलियन डॉलर के इस सौदे पर हस्ताक्षर किए थे, तब से अफगानिस्तान के इतिहास में सबसे बड़ा विदेशी निवेश माना जाता है. पुराने एग्रीमेंट के मुताबिक अब चीन को इस खादान पर काम करने के लिए सिर्फ 14 साल का समय मिलेगा, जिसमें इस भारी-भरकम निवेश के हिसाब से कम आमदनी होगी. एक्सपर्ट मानते हैं कि चीन अब तालिबान 2.0 से नए सिरे से बातचीत करेगा.

अफगानिस्तान के अरबों के मिनरल पर चीन की नजर : चीन की नजर अफगानिस्तान के मिनरल सोर्स पर है. मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक, अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे के बाद खनिज संपदा की अनुमानित कीमत 3 ट्रिलियन डॉलर आंकी गई थी. जिसमें 420 बिलियन डॉलर कीमत का लौह अयस्क है. 274 बिलियन डॉलर के तांबे का भंडार भी है. खनिज संपदा में 25 बिलियन डॉलर का सोना, 81 बिलियन डॉलर का नाइओबियम और 50 बिलियन डॉलर का कोबाल्ट भी शामिल है. तालिबान 2.0 के दौरान चीन और रूस ऐसे देश होंगे, जो अपने संबंधों की बदौलत इसके विकास और दोहन करने की क्षमता रखते हैं. यूरोपियन देशों को व्यापार के स्तर तक पहुंचने से पहले तालिबानी शासन को मंजूरी देनी होगी.

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तालिबान काबुल पर कब्जे से पहले ही चीन से दोस्ती गांठ रहा था. उसे भी मान्यता के लिए बड़े देश की जरूरत है

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के लिए भी जरूरी है अफगानिस्तान : अफ़ग़ानिस्तान में चीन का एक बड़ा हित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) या 'वन बेल्ट, वन रोड' (OBOR) भी है. चीन ने आर्थिक मंदी से उबरने, बेरोजगारी कम करने और अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के वादों के साथ इस प्रोजेक्ट को शुरू किया था. चीन अंतरराष्ट्रीय 'बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव' के तहत अफगानिस्तान के बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए डील करने वाला है. चीन का पहले से प्रस्ताव है कि बीआरआई परियोजना के तहत काबुल से पेशावर तक एक एक्सप्रेस-वे बनाई जाए और पेशावर में आकर सीपेक से जुड़ जाए. इस प्रोजेक्ट को लेकर चीन की अफगानिस्तान की पुरानी सरकार से बात चल रही थी. तालिबानी शासन को जल्द मंजूरी देकर चीन इस डील को फाइनल करना चाहता है.

उइगुर मुसलमानों पर तालिबान का हस्तक्षेप नहीं चाहता है चीन : चीन की अफगानिस्तान के साथ 76 किलोमीटर की सीमा लगती है. अफगानिस्तान का बडाकख्शान इलाका और चीन का शिनजियांग प्रांत के बॉर्डर पर ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) का ठिकाना माना जाता है. यह ग्रुप चीन में वीगर मुसलमानों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ है. तालिबान भी पहले इसका समर्थन करता रहा है. ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट शिनजियांग की आजादी के लिए लड़ रहा है, जहां 10 मिलियन उइगुर मुसलमानों रहते हैं. चीन को अंदेशा है कि तालिबान के कारण शिनजियांग में उइगुर विद्रोहियों को बढ़ावा मिल सकता है. जुलाई में तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से तियानजिन में मुलाकात की थी. इस दौरान चीन ने निवेश और आर्थिक मदद के बदले शर्त रखी थी कि तालिबान को ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट से संबंध तोड़ने होंगे और उइगुर मुसलमानों की स्थिति पर खामोश रहना होगा.

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कुख्यात डिटेंशन सेंटर की तस्वीर, जहां चीन उइगरों को शिक्षित करने का दावा करता है

भारत के रास्ते बंद करने की प्लानिंग : चीन की सरकार अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को भारत की हार के तौर पर भी देख रही है. अगर वह तालिबान से संबंध मजबूत कर लेता है तो भारत के रास्ते मध्य एशिया के लिए बंद हो जाएंगे. साथ ही भारत को आर्थिक नुकसान भी होगा. तालिबान ने भारत से आयात और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है. 2021 में ही भारत का एक्सपोर्ट 835 मिलियन डॉलर था, जबकि 510 मिलियन डॉलर का इम्पोर्ट है. इसके अलावा भारत ने करीब 400 योजनाओं में 3 बिलियन डॉलर इन्वेस्टमेंट किया है.

एक्सपर्ट चीन की तत्कालिक नीति को टिकाऊ नहीं मानते. ऐसा मानना है कि भले ही चीन आर्थिक तौर से फायदा उठा लें, मगर उइगुर मुसलमानों का मामला उसके लिए जरूर सिरदर्द बनेगा. चीन अपनी कठोर नीति से तालिबान को नियंत्रित नहीं कर पाएगा.

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Last Updated :Aug 19, 2021, 4:18 PM IST
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