सूरजपुर: छत्तीसगढ़ राज्य जनजातीय बहुल राज्य है. यहां के जनजातियों में गोदना अधिक देखने को मिलता (Significance of extinct tattooing practice ) है. वैसे हिन्दू धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदना प्रथा आदिकाल से प्रचलित है.यह प्रथा धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तथ्यों से जुड़ी हुई है. आज हम आपको बताएंगें कि गोदना क्या है ? आखिर क्यों महिलाएं अपने शरीर में गोदना गुदवाती हैं? क्या है इसका महत्व ?
दरअसल, गोदना शब्द का शाब्दिक अर्थ चुभाना होता है. शरीर में सुई चुभोकर उसमें काले या नीले रंग का लेप लगाकर गोदना कलाकृति बनाई जाती है. इसे अंग्रेजी में टैटू कहते हैं. कहीं-कहीं इसे गुदना नाम से भी जाना जाता है.गोदना प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. इसके पीछे एक धार्मिक कहानी भी है. दरअसल महाभारत काल में श्रीकृष्ण गोदनहारिन का रुप धारण कर राधा को गोदना गोदने ले गये थे. यह बताना कठिन है की इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई थी?
अलग-अलग है मान्यताएं
लेकिन यह बात सच है कि, इस प्रथा की शुरूआत अपने कुनबे की पहचान के लिए हुई होगी. यही कारण है कि हिन्दू धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदना प्रथा का प्रचलन है. अपने हाथों में नाम लिखवाना या फिर कोई धार्मिक शब्द लिखवाना इस प्रथा को बल देता है. गोदना के संबंध में अनेक मान्यताए प्रचलित हैं. कुछ जनजातियों की मान्यता है कि शरीर में गोदना रहने से नजर नहीं लगती है.
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गोदना से बीमारियों से होता है बचाव
एक मान्यता ये भी है कि गोदना गुदवाने से शरीर बीमारियों से बच जाता है. शरीर में धारण किये सभी गहने मरने के बाद उतार लिये जाते हैं. गोदना रुपी गहना शरीर में हमेशा साथ रहता है. इसलिए इसे अमर श्रृंगारिक गहना या स्वर्गिक अलंकरण भी कहते हैं. एक मान्यता है कि गोदना गुदवाने से स्वर्ग में स्थान मिलता है. इसलिए इसे स्वर्ग जाने का पासपोर्ट भी कहा जाता है. एक मान्यता प्रचलित है कि हथेली के पीछे में गोदना नहीं रहने से मरने के बाद स्वर्ग में अंजलि से पानी गिर जाता है और व्यक्ति प्यासा रह जाता है.
मरने के बाद मिलती है स्वर्ग
जनजातीय मान्यता के अनुसार बिना गोदना गुदवाए नारी को मरने के बाद स्वर्ग प्राप्त नहीं होती. कहा जाता है कि गोदना रुपी गहना को न कई चोर चुरा सकता है और न ही इसे कोई बंटवारा कर सकता है. हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यताएं प्रचलित हैं कि पहले बुजुर्ग लोग बिना गोदना गुदवाए नारी के हाथ का पानी तक नहीं पीते थे. गोदना मायके और ससुराल की पहचान के लिए अलग-अलग गुदवाने का रिवाज है.
सूइओं के दर्द को सहने की मिलती है शक्ति
गोदना के संबंध में ग्रामीण बुजुर्ग महिलाएं कहती हैं कि, समाज में प्रचलित मान्यताओं और प्रथाओं से ही हमें गोदने की सुइओं के दर्द को सहने की शक्ति मिलती थी. हम बचपन में ही खुशी-खुशी शरीर के सभी अंगों में गोदना गुदवा लेते थे. कुछ आकृतियां सभी जनजाति के लोग गुदवाते हैं. मोर की आकृति सभी जनजातियों में गुदवाने का तरीका भिन्न-भिन्न होता है. इसी तरह राम-सीता की रसोई नाम का गोदना लगभग सभी जनजातियों में प्रचलित है.गोदना के अन्य विषय बिच्छू, सूर्य, चन्द्रमा, तारा, सिंहासन, धरती, अश्व और फूल-पत्तियां प्रचलित हैं. माथे पर गोदना का अंकन आदिकाल से चला आ रहा है. इस गोदने को देखकर जनजातियां की पहचान आसानी से की जा सकती है. इसी तरह हाथ, पैर, जांघ, कोहनी, चुरुवा, सुपली, ठोढी, नाक, कान, गला, अंगूठा, कलाई और पंजा सहित शरीर के प्रत्येक अंगों में गोदना गुदवाये जाते हैं. महिलायें प्रायः शरीर के प्रत्येक अंगों में गोदना गुदवाती हैं. पुरुषों में यह कम देखने को मिलता है. वे केवल एक दो बिन्दी या नाम गुदवाते हैं.गोदना गुदवाने का कोई निश्चित समय नहीं है.बरसात के मौसम को छोड़कर कभी भी गोदना गुदवाया जा सकता है.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से है ये महत्व (Scientific importance of tattoo)
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गोदना को एक्यूपंचर का रुप माना जाता है. चीन में शरीर में सुई चुभाकर अनेक बीमारियों को ठीक किया जाता है. भारत में एक्यूपंचर पद्वति 1959 में आयी. इस पद्वति से शरीर के अपने न्यूरो हार्मोनल सिस्टम को क्रियाशील कर दिया जाता है. सुई से अगर अच्छी तरह त्वचा को छुआ जाए तो शरीर का स्वस्थ होना संभव है. चाहे वह सुई गोदना की ही क्यों न हो. सरगुजा अंचल के लोग इस तथ्य को मानते हुए स्वीकार करते हैं कि गोदना से सुंदरता के साथ-साथ वात रोग, चोट का दर्द या फिर अन्य किसी प्रकार के दर्द से राहत मिलती है.
महिलाएं इस कला में होती हैं माहिर
गोदना गोदने वाली जातियों में अधिकतर महिलायें होती हैं. जो इस कला में निपुण होती हैं. गोदना कला में सबसे अधिक दक्ष जातियां वादी, देवार, भाट, कंजर, बंजारा और मलार हैं. गोदना, गोदने के लिए सुईयों का प्रयोग किया जाता है. सुईयों की संख्या गोदने की आकृति के अनुसार उपयोग में लाई जाती है. कम चौड़ी गोदना के लिए चार सुईयों का और अधिक चौड़ी गोदना के लिए छह या फिर सात सुईयों का उपयोग किया जाता है. गोदने के रंग के लिए रामतिल या किसी भी तेल के काजल को तेल या पानी के साथ मिलाकर लेप तैयार किया जाता है. इसी लेप में सुईयों को डूबोकर शरीर में चुभा कर गोदना की मनमोहक आकृतियां बनाई जाती हैं. आकृतियां बनाने के बाद पानी या गोबर के घोल से इसे अच्छी तरह धोकर इसमें तेल और हल्दी का लेप लगाया जाता है. रेडी का तेल और हल्दी के लेप से सूजन नहीं होता है. कहा जाता है कि पहले बबूल के कांटे को बलोर के रस में डूबोकर शरीर में चुभाकर गोदना गोदा जाता था.
दम तोड़ रही गोदना प्रथा
एक समय था जब गोदना प्रथा का प्रचलन अधिक हुआ करता था. अब धीरे-धीरे यह प्रथा दम तोड़ती जा रही है. नई पीढ़ी के लोग इस प्रथा को स्वीकार नहीं कर रहे हें, लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि, जाने-अनजाने में अपनी पुरानी संस्कृति और परम्परा को आज भी बचाये हुये हैं. इस डूबती हुई गोदना प्रथा को जीवित रखने से ही जनजातीय संस्कृति को संरक्षित किया जा सकता है. भले ही आज के इस आधुनिक दौर में गोदना का रिवाज विलुप्त होने के कगार पर है. लेकिन आज के युवा इसी गोदना को टैटू का आधुनिक नाम देकर अलग-अलग तरह की आकृति अपने शरीर पर गुदवाते हैं