8 दिन में 1 बार आता है 'नल से जल', शौचालय तक नहीं, फुलबडिया गांव के लोगों में रोष

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Published : Sep 15, 2021, 5:58 PM IST

panchayat chunav 2021

बिहार पंचायत चुनाव (Bihar Panchayat Election) के मद्देनजर प्रत्याशी वोटरों को रिझाने में लगे हैं. ऐसे में ईटीवी भारत पहुंचा भागलपुर के अरार पंचायत और ग्रामीणों से बातचीत की. इस पंचायत में आजतक सरकार द्वारा चलाए जा रहे योजनाओं का लाभ लोगों को नहीं मिला. आज भी आदिवासी परिवार समस्याओं से घिरे हुए हैं. पढ़िए पूरी खबर..

भागलपुर: बिहार में पंचायत चुनाव (Panchayat Election 2021) को लेकर माहौल गरमाया हुआ है. प्रत्याशी वोटरों को अपने अपने पक्ष में करने के लिए गोलबंद करने की कोशिश में जुट गये हैं. ऐसे में ईटीवी भारत पहुंचा भागलपुर जिले के सनहौला प्रखंड के अरार पंचायत (Arar Panchayat), यहां मुखिया की जीत-हार में आदिवासी वोट अहम भूमिका निभाते हैं. लेकिन गांव का आज तक विकास नहीं हो सका है, जिसके कारण लोगों में गहरी नाराजगी है.

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आदिवासियों को मिलने वाली सुविधाएं नगण्य है. इसका मुख्य कारण आदिवासी समुदाय में आदिवासियों का कोई बड़ा नेता न होना माना जा रहा है. अरार पंचायत में कुल 4893 वोटर हैं, जिसमें से पुरुष मतदाता 2578 हैं और महिला मतदाताओं की संख्या 2315 है. 4893 वोटरों में 20 प्रतिशत आदिवासी समुदाय के वोटर शामिल हैं.

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"पीने के पानी के लिए घर से दूर करीब 1 किलोमीटर जाना पड़ता है. कपड़ा धोना, नहाना और बर्तन धोने का काम गांव के केनुआ तालाब में करते हैं. 15 साल पहले घर बनाने के लिए 15 हजार मिला था. उस पैसे से घर का निर्माण नहीं हो सका तो साहूकार से कर्ज लेकर घर का निर्माण कराया."- सरस्वती, फुलबडिया गांव निवासी

आदिवासियों के उत्थान के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही है, लेकिन ग्राम पंचायत के मुखिया की मनमानी के चलते उन तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पा रहा है. मूलभूत सुविधाओं सहित शासन की कई योजनाओं से अरार पंचायत के फुलबडिया गांव के आदिवासी वंचित हैं. पीने का पानी तक लोगों को नसीब नहीं होता है. इसके अलावा शौचालय, बिजली, मकान जैसी सुविधाओं से भी लोग आज तक वंचित है.

"न पानी की व्यवस्था है और न शौचालय की. पीने के लिए पानी भी चापाकल से लाते हैं. घर के आगे में नल लगा हुआ है. नल से कभी-कभी पानी आता है. नहाना, कपड़ा धोना, और बर्तन धोने का काम तालाब में करते हैं."- बिट्टी, फुलबडिया गांव निवासी

आदिवासियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री आवास योजना में नाम होने के बाद भी योजना का लाभ नहीं मिला है. गांव में ऐसे कई परिवार हैं जिनके पास रहने को मकान तक नहीं है. जिसके कारण ये लोग कच्चा मकान में रहने को विवश हैं. ईटीवी भारत से बातचीत में पंचायत की रहने वाली सरस्वती ने बताया कि उनके गांव में पानी की व्यवस्था तो ठीक है, घर के आगे नल लगा दिया गया, लेकिन पानी कभी 8 दिन बाद तो कभी 5 दिन बाद मिलता है.

"15 साल पहले घर बनाने के लिए 10000 मिला था. लेकिन इसके बाद फिर पैसा नहीं मिला.आधा पैसा दिया गया, इसलिए आधा काम हुआ है. 8 दिन में 1 बार पीने का पानी नसीब होता है. पानी लाने के लिए घर से काफी दूर जाना पड़ता है."- होपनमय हेंब्रम,फुलबडिया गांव निवासी

वहीं तालाबू मरांडी ने बताया कि गांव में एक भी सरकारी सुविधा सही से नहीं मिला है. 35 परिवार का यह गांव है. गांव में दो घर को ही प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिला है, बाकी घरों को कोई लाभ नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि गांव में सड़क तो बनाई गई है लेकिन सड़क गुणवत्तापूर्ण नहीं है. तालाब में घेराबंदी नहीं की गई है. जान जोखिम में डालकर लोग तालाब में स्नान करते हैं, बर्तन धोते हैं. पीने के पानी के लिए महिलाओं को घर से करीब 2 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. घर के सामने जो नल लगा हुआ है उसमें रोजाना पानी नहीं आता है कभी 8 दिन बाद तो कभी 5 दिन बाद पानी आता है.

"5 साल पहले घर बनाने के लिए पैसा मिला था. उस पैसे से ईंट खरीद कर घर में रखे हैं. बाकी पैसा अब तक नहीं मिला ,इसलिए घर नहीं बनाया है. शौचालय नहीं है, कोई अधिकारी देखने नहीं आते हैं. मुखिया कभी-कभी आते हैं."- लालबाबू,फुलबडिया गांव निवासी

फुलबडिया गांव प्रखंड मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर है. यहां झुग्गी झोपड़ियों में रह रहे आदिवासी परिवार के लोग खेती-बाड़ी कर अपना भरण पोषण करते हैं. अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों को आर्थिक सामाजिक और शैक्षणिक समानता देने के उद्देश्य से केंद्र और राज्य सरकार कई योजनाएं चला रही हैं. राज्य सरकार अनुसूचित जनजाति के छात्रों को स्कॉलरशिप देती है.

बिहार के भागलपुर, पूर्णिया, सहरसा और मुंगेर प्रमंडल में आदिवासियों की अच्छी खासी संख्या है. 2011 जनगणना के अनुसार बिहार में कुल जनसंख्या का लगभग 1.50% आदिवासी है, जो बिहार की राजनीतिक में अहम भूमिका निभा नहीं सकती है. यह बात राजनेता भी भलि भांति समझते हैं, शायद यही कारण है कि आदिवासी समाज की अनदेखी की जाती है.

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