गिद्ध क्यों महत्वपूर्ण है हमारे लिए: हरियाणा, असम, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में संरक्षण अभियान
गिद्ध प्रजाति अब विलुप्ति के कगार पर है. विशेषज्ञों का मानना है कि गिद्ध बचेगा तो प्रकृति का स्वास्थ्य भी बचेगा.


Published : October 17, 2025 at 6:52 PM IST
रायगढ़: गांव के बाहर खेतों में या जंगल के किनारे पड़े मृत जानवरों के अवशेष कुछ ही घंटों में गायब हो जाते हैं. यह संभव है प्रकृति के स्वच्छता दूत, यानी गिद्ध की बदौलत. मरे हुए जानवरों का मांस खाकर प्रकृति को स्वच्छ रखने वाला यह पक्षी, प्रकृति का असली सफाई अभियान चलाता है. लेकिन, आज यह पक्षी अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.
1980 और 90 के दशक में भारत भर में लाखों गिद्ध पाए जाते थे. कहीं भी मृत जानवार के आसपास आसमान में झुंडों में मंडराते हुए देखा जाता था. 2000 के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई. जानवरों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा 'डाइक्लोफेनाक' से गिद्धों की मौत होने लगी. यह दवा मरे हुए जानवरों का मांस खाते समय उनके शरीर में पहुंचती थी. उनके गुर्दे काम करना बंद कर देते थे. कुछ ही वर्षों में गिद्धों की संख्या 95 प्रतिशत कम हो गई.
गिद्धों का महत्वः
रायगढ़ और रत्नागिरी जिलों में भी गिद्धों की संख्या काफी थी. म्हसाला, संगमेश्वर और दापोली इलाकों में अब भी कभी-कभार कुछ झुंड दिखाई देते हैं. कभी सैकड़ों की संख्या में दिखने वाले गिद्ध अब केवल दो-तीन जोड़े ही बचे हैं. गिद्ध, मृत पशुओं को खाकर पर्यावरण में स्वच्छता बनाए रखते हैं.
उनसे होने वाली संक्रामक बीमारियों को फैलने से रोकते हैं. गिद्धों की संख्या कम होने पर अब कुत्ते और अन्य चौपाया मृत जानवरों के शवों को खा जाते हैं. इससे रेबीज, एंथ्रेक्स और अन्य संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ जाता है.
गिद्धों की संख्या घटने के कारणः
पर्यावरण विशेषज्ञों की मानें तो सिर्फ दवाइयां ही नहीं, बल्कि वनों की कटाई, आवास का क्षरण, पवन चक्कियों और बिजली लाइनों से जुड़ी दुर्घटनाए और खाद्य स्रोतों में कमी भी गिद्धों की संख्या कम होने के प्रमुख कारण हैं. इसके अलावा अब, गांवों में मृत पशुओं को तुरंत दफना या जला दिया जाता है. इस वजह से गिद्ध प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला से बाहर हो गए हैं.
संरक्षण के उपायः
सीस्केप और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) जैसी संस्थाओं ने गिद्ध संरक्षण के लिए अभियान शुरू किए हैं. रायगढ़ और सतारा क्षेत्रों में गिद्धों के सुरक्षित प्रजनन के लिए केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं. किसानों से डाइक्लोफेनाक के बजाय वैकल्पिक सुरक्षित दवाओं का उपयोग करने का आग्रह किया जा रहा है. भारत सरकार ने भी 2006 में पशुओं के लिए डाइक्लोफेनाक का उपयोग बंद कर दिया था.
हरियाणा, असम, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में 'गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र' स्थापित किए गए हैं. इन केंद्रों में कृत्रिम प्रजनन के माध्यम से गिद्धों को पाला जा रहा है और उन्हें वापस जंगल में छोड़ा जा रहा है. रायगढ़, सतारा, नासिक और चंद्रपुर में अभी भी गिद्धों की एक छोटी संख्या देखी जा सकती है. कुछ गांवों में, नागरिकों ने मिलकर 'गिद्ध संरक्षण क्षेत्र' बनाए हैं.
क्या कहते हैं विशेषज्ञः
पर्यावरणविदों का कहना है कि अगर हम आज गिद्धों का संरक्षण नहीं करेंगे, तो कल प्रकृति की पूरी स्वच्छता व्यवस्था चरमरा जाएगी. सीस्केप के अध्यक्ष प्रेमसागर मेस्त्री कहते हैं, "हम लुप्त हो रहे पशु-पक्षियों और उनके घोंसलों को बचाने के लिए काम कर रहे हैं. 1999 में पहली बार समझ में आया कि गिद्ध विलुप्त हो रहे हैं. 1997 में एक पक्षी सम्मेलन के दौरान पता चला कि महाड में दो से चार हज़ार गिद्ध थे. उसके बाद, हर जगह गिद्धों की संख्या अचानक कम हो गई."
प्रेमसागर बताते हैं कि एक गिद्ध साल में सिर्फ एक ही बच्चा देता है. अगर वह भूख से मर जाता है, तो गिद्धों की एक पीढ़ी खत्म हो जाती है. अगर गिद्ध नहीं रहे, तो रोगाणुओं और सड़ती लाशों का संकट आ जाएगा. इसलिए, 'गिद्धों को बचाना प्रकृति के स्वास्थ्य को बचाना है.'
पर्यावरणविद की चेतावनीः
आसमान में आज़ादी से उड़ने वाला गिद्ध आज विलुप्ति के कगार पर है. पर्यावरणविद कहते हैं, अगर हम मिलकर प्रयास करें, डाइक्लोफेनाक का इस्तेमाल बंद करें और उनके आवास की रक्षा करें, तो हम प्रकृति के स्वच्छता दूत को अपने गांव की सरहद पर आसमान में ऊंचे उड़ते हुए देख सकेंगे. विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि अगर अभी ये कदम नहीं उठाए गए, तो यह उपयोगी पक्षी सिर्फ़ किताबों और तस्वीरों में ही रह जाएगा.
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