बाड़मेर. राजस्थान की पारंपरिक लोक कलाओं में शुमार कठपुतली कला समय के साथ लुप्त होती जा रही है, लेकिन बाड़मेर की तीन बेटियां इस कला को पुनर्जीवित करने में जुटी हैं. ये बेटियां न सिर्फ कठपुतलियों को जीवन दे रही हैं, बल्कि अपने दादा स्वर्गीय श्यामलाल सोनी के अधूरे सपने को भी साकार करने की राह पर हैं.
दादा का सपना कठपुतली को मिले राष्ट्रीय मंच : बाड़मेर की तीन बेटियां ज्योति, संजू और हर्षिता आज कठपुतली कला को फिर से ज़िंदा करने की मुहिम में जुटी हैं. यह सिर्फ एक कला नहीं, उनके दादा स्वर्गीय श्यामलाल सोनी की विरासत है, जिसे अब ये बेटियां नई पहचान दिला रही हैं. श्यामलाल सोनी बाड़मेर के एक सेवानिवृत्त शिक्षक और कठपुतली कला के संरक्षक थे. वे चाहते थे कि यह पारंपरिक लोककला दिल्ली जैसे मंचों तक पहुंचे. अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपनी पोतियों को इस कला की बारीकियां सिखाईं, लेकिन कोविड काल में उनका निधन हो गया और उनका सपना अधूरा रह गया.
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पोतियों की पहल, कला को नई उड़ान : आज उनकी पोतियां ज्योति सोनी (20), संजू सोनी (18) और हर्षिता सोनी (12) इस कला को जीवित रखने के लिए सक्रिय हैं. गर्मियों की छुट्टियों में ये बहनें कठपुतलियां बनाती हैं, उनसे लोक कथाएं प्रस्तुत करती हैं और लोगों को इस कला से जोड़ने की कोशिश कर रही हैं.



संजू सोनी, जो संभाग स्तर पर कठपुतली नाटकों में पुरस्कार जीत चुकी हैं, कहती हैं कि “हमारे दादा का सपना था कि यह कला खत्म न हो. हम उसी को आगे बढ़ा रहे हैं. वहीं छोटी पोती हर्षित, जो अभी 12 साल की है, भावुक होकर बताती है, दादाजी कहते थे कि एक दिन हम दिल्ली में कठपुतली प्रदर्शनी करेंगे. मैं वह सपना जरूर पूरा करूंगी.
जिला से लेकर प्रदेश स्तर पर : संजू सोनी बताती है कि वह अब तक बाड़मेर जिले के विभिन्न सरकारी स्कूलों इसके अलावा जोधपुर संभाग और जयपुर में भी कठपुतली कला का प्रदर्शन कर चुकी हैं. उन्होंने बताया कि अब तक जिला से लेकर राज्य स्तर तक कई अवार्ड भी मिले हैं. युवा महोत्सव के तहत आयोजित कार्यक्रमों में जोधपुर संभाग स्तर पर प्रथम स्थान पर जबकि प्रदेश स्तर पर दूसरा स्थान प्राप्त कर सम्मानित हो चुकी हैं.

तीन पीढ़ियों की साझी विरासत : गौतमचंद सोनी, जो श्यामलाल सोनी के पुत्र और पेशे से शिक्षक हैं. वे खुद भी इस कला में निपुण हैं और अब अपनी बेटियों को इसे सिखा रहे हैं. उन्होंने बताया कि उनके पिता को इस कला के लिए कई बार सम्मानित किया गया था, जिनमें पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से मिला सम्मान भी शामिल है. हमारी बेटियां आज उसी परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं और यह हम सबके लिए गर्व की बात है.

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कठपुतली कला राजस्थान की पुरातन विरासत : राजस्थान की कठपुतली कला (Puppetry) सदियों पुरानी है और इसे यहां के भाट समुदाय से जोड़ा जाता है. इस कला में लकड़ी, कपड़े और धागों से बनी रंग-बिरंगी कठपुतलियों के जरिए लोककथाएं, पौराणिक कथाएं और सामाजिक संदेश प्रस्तुत किए जाते हैं. एक समय था जब गांव-गांव में कठपुतली के शो लोगों के मनोरंजन और शिक्षण का प्रमुख साधन थे. लेकिन आधुनिक मनोरंजन माध्यमों और डिजिटल युग में यह लोककला हाशिये पर चली गई है.

समर कैंप में प्रदर्शन, भविष्य की तैयारी : बाड़मेर की ये बेटियां आज अपने दादा के नाम पर टीम बाड़मेर के समर कैंप में कठपुतली कार्यक्रम कर रही हैं. वे बच्चों को इस कला की बारीकियां सिखा रही हैं. इसमे कठपुतली बनाना, उनकी वेशभूषा तय करना, उनके संवाद और पारंपरिक संगीत पर प्रस्तुतियां देना शामिल है. इससे जहां बच्चों में कला के प्रति रुचि जाग रही है, वहीं यह कला फिर से लोगों के बीच चर्चा में आ रही है. बाड़मेर की तीन बेटियों की यह पहल महज एक कला के संरक्षण का प्रयास नहीं है, बल्कि यह पारिवारिक विरासत और समर्पण की मिसाल है. दादा के अधूरे सपनों को पोतियां मिलकर पूरा कर रही हैं. यह कहानी न सिर्फ कठपुतली कला को जीवित रखेगी, बल्कि युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों और परंपराओं से जोड़ने का माध्यम भी बनेगी.