जयपुर : राजधानी जयपुर का परकोटा, जिसे पुराना जयपुर भी कहते हैं, यहां का हर मोहल्ला और हर गली किसी न किसी खास वजह से जानी जाती है. परकोटे के रामगंज में ही एक ऐसा मौहल्ला है, जिसे हिरणवालान के नाम से जाना जाता है. इस नाम के पीछे की असली वजह यह है कि रियासत काल में इस मोहल्ले में हिरण और बारहसिंगा को घर-घर में पाला और उन्हें ट्रेंड किया जाता था. हालांकि, आजादी के बाद जब राजशाही का दौर खत्म हुआ और लोकतंत्र लागू हुआ तब वन्यजीव अधिनियम बनने के बाद हिरण-बारहसिंगा और अन्य जंगली जानवरों को घरों में पालने पर पाबंदी लगा दी गई.
इस मोहल्ले में भले ही अब हिरण और बारहसिंगा जैसे जंगली जानवर नहीं पाले जाते हों, लेकिन इस मौहल्ले को आज भी मोहल्ले हिरणवालान के नाम से जाना जाता है. यहां बसने वाले बुजुर्ग भी अपनी आंखों से घरों में हिरण पाले जाने की बातें और दावे करते हैं. रामगंज और घाटगेट के बीच स्थिति यह मोहल्ला पहले तो काफी खुला था, लेकिन जनसंख्या बढ़ने के बाद यह इलाका भी सिकुड़ गया. अब छोटी-छोटी गलियों से होकर मोहल्ला हिरणवालान में पहुंचा जाता है.
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इतिहासकार क्या कहते हैं? : जयपुर के इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत का कहना है कि रियासत काल में छोटी चौपड़ के पास स्थित चौगान स्टेडियम में प्रशिक्षित जंगली जानवरों का दंगल होता था. मोहल्ला हिरणवालान रामगंज के पास स्थित है, वहां भी हिरण और बारहसिंगे पाले जाते थे, जिन्हें स्टेडियम में लड़ाया जाता था. इसे देखने के लिए कई बार अंग्रेज अफसर भी आते थे तो जयपुर के महाराजा और अन्य सामंत और जागीरदार भी आते थे.

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घरों में पाले जाते थे जंगली जानवर : प्रसिद्ध शिक्षाविद और जयपुर के इतिहास को समझने वाले सुनील शर्मा का कहना है कि जब मुगल साम्राज्य बिखर रहा था तब दिल्ली में मुगल सल्तनत के अधीन काम करने वाले कलाकारों और पशु पक्षियों को पालने वाले लोगों को जयपुर के कछवाहा राजा जयपुर ले आए थे. यहां उन्हें अलग-अलग इलाकों में बसाया गया था. हिरण-बारहसिंगा जैसे जानवरों को पालने वाले लोगों को रामगंज के पास लाकर बसाया गया और इसे मोहल्ला हिरणवालान का नाम दिया गया. उस जमाने में ये आम बात थी. पहले जयपुर इतना बड़ा शहर नहीं था. सबकुछ परकोटे तक ही सीमित था. जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई मोहल्ले और गलियां भी सिकुड़ गईं, लेकिन आज भी इस मोहल्ले को हिरणवालान के नाम से भी जाना जाता है. कई देसी-विदेशी इतिहासकारों ने भी हिरणवालान पर खूब लिखा है.

महाराजा मानसिंह ने आमेर में लाकर बसाया : मोहल्ला हिरणवालान निवासी 91 वर्षीय मिर्जा अशफाक बेग ने बताया कि जब जयपुर की स्थापना हुई, तब तत्कालीन जयपुर के राजाओं ने हाथियों, शेरों, चीतों, हिरणों और अन्य जंगली जानवरों को पालने वाले परिवारों को अलग-अलग मोहल्लों में बसाया. हिरण पालने वाले लोगों को रामगंज के पास लाकर बसाया और इसे मोहल्ला हिरणवालान नाम दिया. हिरण और बारहसिंगा पालने वाले परिवारों को जयपुर दरबार की तरफ से एक हिरण पर दो बोरी गेहूं और उस जमाने के दो रुपए देखभाल के लिए मिलते थे. इनका काम केवल हिरणों को ट्रेंड करना था.

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चौहान ग्राउंड में होती थी जानवरों की लड़ाई : मिर्जा अशफाक बेग ने बताया कि उन्होंने भी बचपन में घर में हिरण पलते हुए देखे हैं. रियासत काल में उनके दादा हैदर बेग और चाचा नासिर बेग, जो शिकार खाने में नौकरी करते थे, घरों में हिरण और बारहसिंगा भी पालते थे. जयपुर के राजाओं को जानवरों की कुश्ती और दंगल देखने का शौक था. इसके लिए छोटी चौपड़ के पास चौहान ग्राउंड में हाथियों, शेरों, चीतों और बारहसिंगा की लड़ाई देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे. यहां तक कि ब्रिटिश राज के बड़े अफसर भी जब जयपुर आते थे तो उनके लिए भी चौहान ग्राउंड में जानवरों की लड़ाई और दंगल करवाए जाते थे. उन्होंने बताया कि बारहसिंगा और हिरण को भी उसी तर्ज पर ट्रेंड किया जाता था.

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इस समय तक पलते थे हिरण और अन्य जानवर : उनका कहना है कि 19वीं सदी में जयपुर के आखिरी राजा महाराजा मानसिंह द्वितीय के शासनकाल तक घरों में हिरण, चीते, शेर और अन्य जंगली जानवर पाले जाते थे. जब देश आजाद हुआ, राजशाही खत्म हुई और लोकतंत्र लागू हुआ तब वन्य जीव अधिनियम बनाया गया. इसके बाद सभी जंगली जानवरों के पालने पर पाबंदी लगा दी गई थी. जिनके घरों में हिरण और अन्य जानवर थे उन्हें जयपुर जयपुर जंतुआलय में ले जाकर छोड़ दिया गया था.

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हिरण पालने वाले परिवार सेना में भी काम करते थे : हिरणवालान में ही रहने वाले 50 वर्षीय शकील खान का कहना है कि उन्होंने भी उनके दादा से खूब सुना है कि हमारे मोहल्ले में हर घर में हिरण पाले जाते थे, जिनका खर्च जयपुर रियासत की ओर से दिया जाता था. यहां पर हिरण पालने वाले परिवार जयपुर की सेना में भी काम करते थे. रियासत की ओर से उन सैनिकों को जानवर पालने का काम दे दिया जाता था और जब युद्ध होता था तब यही सैनिक के रूप में लड़ाई करते थे.