वाराणसी : 'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान'. ये पंक्तियां संत कबीर दास की लिखी हैं. संत ने कभी कलम नहीं पकड़ा लेकिन उनकी ओर से दिए गए ज्ञान आज भी लोगों को कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं. 11 जून को इस महान संत की जयंती मनाई जानी है. ऐसे में बनारस में संत से जुड़े पवित्र स्थलों के बारे में जानना जरूरी हो जाता है.
संत कबीर किस धर्म और किस जाति के थे?, यह जीवन के अंतिम समय तक किसी को नहीं पता चल पाया. कबीर काशी में रहते हुए उन भ्रांतियों को तोड़ने में जुटे रहे जो हमेशा से लोगों के बीच व्याप्त रहीं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण था काशी में मृत्यु होने पर मोक्ष की बात. कबीर ने अपना पूरा जीवन काशी में बिताया लेकिन अंतिम समय पर मौत के समय उन्होंने काशी छोड़कर मगहर को चुना.
भ्रम को तोड़ने के लिए चुना मगहर : मगहर के बारे में यह हमेशा से कहा जाता रहा है कि मगहर मरे तो गधा होए और काशी मरे तो मोक्ष. संत कबीर ने इसी भ्रांति को तोड़ते हुए जीवन के अंतिम समय में काशी छोड़कर मगहर जाने का निर्णय लिया. कबीर की यह बातें आज के बदलते परिवेश में बहुत सटीक बैठती हैं. सोशल मीडिया के दौर में हर तरफ भ्रमित करने वाले संदेश आते रहते हैं. ऐसी भ्रांतियों से दूर रहने की बात संत कबीर बहुत पहले ही कह चुके थे.
लहरतारा तालाब के पास मिले थे कबीर : काशी से कबीर का रिश्ता बेहद पुराना रहा है. कबीर पंथियों के लिए काशी किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है. काशी में कबीर से जुड़े 3 पवित्र स्थल हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है लहरतारा. यहीं से कबीर पंथ की शुरुआत मानी जाती है. इसी तालाब के किनारे कबीर दास मिले थे. नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने उनका पालन पोषण किया. कबीरचौरा में रहते हुए कबीर दास ने समाज सुधार की दिशा में बड़े कदम उठाए.

गुरु के मुंह से निकले नाम को बनाया था गुरु मंत्र : कबीर दास हिंदू थे या मुसलमान यह किसी को नहीं पता. उन्होंने अपने जीवन में जिन्हें गुरु माना वह राम के उपासक थे. रामानंद जी उनके गुरु थे. उन्हें अपना गुरु बनाने के लिए कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेट गए थे. नहाने पहुंचे रामानंद का पैर उनके ऊपर पड़ गया था. इस पर उनके मुंह से राम निकल गया था. कबीर दास ने इसी की गुरु मंत्र बना लिया था.
इसके बाद संत कबीर ने समाज सुधार के दिशा में एक के बाद एक कई रचनाओं को रच दिया. बनारस में कबीर दास से जुड़ी तमाम चीजें आज भी सुरक्षित और संरक्षित हैं. लहरतारा तालाब का वह स्वरूप अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है जो कभी चारों तरफ से कब्जे में हुआ करता था. लहरतारा तालाब बहुत बड़े एरिया में फैला है. कई एकड़ में फैले इस तालाब के किनारे ही कबीर मठ स्थापित है.

जयंती पर लाखों लोग पहुंचते हैं वाराणसी : कबीर मठ के पीठाधीश्वर महंत गोविंद दास का कहना है कि कबीर पंथ से जुड़े करोड़ों लोग भारत और भारत के बाहर निवास करते हैं. कबीर जयंती के मौके पर लाखों की संख्या में लोग वाराणसी पहुंचते हैं. संत कबीर के जीवन से प्रभावित होकर जाति-धर्म से ऊपर उठकर जीवन यापन का संकल्प लेते हैं. कबीरपंथियों के लिए लहरतारा एक तीर्थ है, क्योंकि यहां पर कबीर प्रकट हुए थे.

कुएं का पानी और तालाब की मिट्टी घर ले जाते हैं अनुयायी : यहां के तालाब का जल हो या फिर कबीरचौरा स्थित मूलगादी में कबीर के द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला कुआं. इन दोनों जगहों के जल को आज भी कबीरपंथी किसी गंगाजल से कम नहीं मानते हैं. पानी और तालाब की मिट्टी को अनुयायी अपने घर ले जाते हैं. कबीरपंथियों के लिए ये स्थान बेहद महत्वपूर्ण माने जाते हैं.
जीने का तरीका सिखाता है कबीर पंथ : महंत गोविंद दास का कहना है कि कबीर पंथ एक धर्म नहीं बल्कि लोगों को जीवन जीने का तरीका सिखाने का एक मकसद है. आज के तमाम आडंबर और भ्रांतियों को दूर करते हुए कबीर की बातों का अनुसरण करना कबीर पंथ की मूल जड़ है. उनका कहना है कि कबीर साहब की जयंती के मौके पर यहां होने वाले विविध आयोजन और इसमें शामिल होने वाले लोग निश्चित तौर पर कबीर की बातों से प्रभावित होकर ही यहां पहुंचते हैं.

स्मृतियों को सहेजने के लिए बनेगा म्यूजियम-लाइब्रेरी : यहां जलने वाली अखंड ज्योति हो या मंदिर का वह स्वरूप जो अब समय के साथ बदल रहा है. यह भी कबीर पंथ के बढ़ रहे प्रभाव को बताने के लिए काफी है. जो घाट कभी कच्चा था, अब वह पक्का बनता जा रहा है. सबसे बड़ी बात यह है कि कबीर से जुड़ी स्मृतियों को सहेजने के लिए के लिए एक न्यू म्यूजियम और लाइब्रेरी का निर्माण यहां पर जल्द शुरू होने जा रहा है.
महंत ने बताया कि कबीर चौराहा स्थित मूलगादी मठ में कबीर साहब की हाईटेक झोपड़ी बनकर तैयार हो चुकी है, लेकिन अभी तक इसे शुरू ही नहीं किया जा सका है. कबीरचौरा पर कबीर साहब के माता-पिता नीरू और नीमा की समाधि मौजूद है. यहां पर वह स्थान भी है, जहां संत कबीर रहते थे.
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