पंचकूला: प्रकृति के संतुलन के लिए सभी जीव-जंतुओं और वनस्पति का अपना खास महत्व है. किसी भी जीव जंतु या वनस्पति के विलुप्त होने का नकारात्मक प्रभाव मानवीय जीवन पर पड़ता है, जिसका खामियाजा आज नहीं तो कल लोगों को भुगतना ही पड़ता है. प्रकृति का ऐसा ही एक जीव गिद्ध है, जिसे जटायु भी कहा जाता है.
रामायण काल में है वर्णन: गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियां साल 1980 से 1990 के बीच विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई थी. नतीजतन इनकी संख्या अत्याधिक कम होने के कारण आज तक प्रकृति का संतुलन सही से नहीं बैठ सका है. जबकि यह गिद्ध प्रकृति को साफ सुथरा रखकर, उसकी देखभाल करने के लिए मुख्य रूप से जाने जाते हैं. इन गिद्धों का वर्णन रामायण काल यानी कि त्रेता युग में भी मिलता है.
8 करोड़ से घटकर 20 हजार हुई गिद्धों की संख्या: बात अगर इसकी संख्या घटने की करें तो भारत में साल 1980 में 9 प्रकार की प्रजातियों के गिद्धों की कुल अनुमानित संख्या 8 करोड़ थी. लेकिन हर दशक में इनकी संख्या बड़ी तेजी से घटती गई. वर्तमान में इनकी अनुमानित संख्या महज 20 हजार रह गई. इससे स्पष्ट है कि देश में गिद्धों की संख्या बीते 44 सालों में 99.9 फीसद विलुप्त हो चुकी है. यह स्थिति भी उस समय है, जब बीते कई सालों से देश की सबसे पुरानी बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी नाम की एनजीओ केंद्र सरकार और राज्य सरकारो के सहयोग से विलुप्त होती गिद्धों की प्रजातियों के संरक्षण एवं प्रजनन पर देश भर में काम कर रही है.
विलुप्त हो रही प्रजातियां: देश में नौ प्रजातियों के गिद्ध पाए जाते हैं. इनमें किंग वल्चर, सिनेरियस, जिप्स वल्चर में हिमालय ग्रिफिन, यूरेशिया ग्रिफन, लॉन्ग बिल्ड, सिलेंडर बिल्ड, व्हाइट बेक्ड/रैम्पट और इजिप्श वल्चर शामिल हैं. साल 1980 से 90 तक गिद्धों की तीन प्रजातियां विलुप्त हो गई. इनमें लंबी चोंच वाले, छोटी चोंच वाले और सिलेंडरनुमा व्हाइट रम्पट गिद्ध शामिल है, जो विलुप्त हो गई. इन प्रजातियों पर समय रहते सरकार ने ध्यान नहीं दिया. नतीजतन प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया.
गिद्धों की कमी से बढ़ी बीमारियां: गिद्धों के विलुप्त होने के कारण मौजूदा समय में कई अलग-अलग तरह की बीमारियों बढ़ रही है. दरअसल, गिद्ध कभी भी शिकार नहीं करते. ये किसी भी जीव को स्वयं नहीं मारते. गिद्ध केवल मरे हुए जीव जंतुओं को ही खाते हैं. मरे हुए जीव-जंतुओं की दुर्गंध से फैलने वाली बीमारियां, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों की रोकथाम में गिद्ध अहम भूमिका निभाते हैं, क्योंकि गिद्ध बहुत ही कम समय में मरे हुए जीव-जंतुओं को खाते हैं. लेकिन मानवीय भूल के कारण इन गिद्धों की मौत होने लगी और इनकी कई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई. नतीजतन प्राकृतिक संतुलन भी अस्थिर हो गया.
गिद्धों की मौत का कारण: साल 1990 से गिद्धों की संख्या लगातार कम हो रही है. गिद्धों की विलुप्त हो रही प्रजातियों पर बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के संस्थापक डॉक्टर विभु प्रकाश राजस्थान के केवलादेव राष्ट्रीय पार्क में स्टडी कर रहे थे. उसी दौरान पाकिस्तान में संचालित यूके संगठन की संस्था पेरीग्रीन की स्टडी भी जारी थी. यूके की इस संस्था को स्टडी में पता लगा कि गिद्ध मरे हुए जानवरों को खाता है. लेकिन जिन जानवरों को डाइक्लोफिनेक और अन्य प्रतिबंधित दवाएं या इंजेक्शन दिए गए होते थे. उन जानवरों के मरने के बाद उनको खाने के कारण गिद्धों की मौत हो रही थी. हजारों की संख्या में गिद्धों की एक साथ मौत का कारण उनके द्वारा समूह में प्रतिबंधित दवाओं के इंजेक्शन लगे मृत जानवरों को खाना था.
गिद्धों के पोस्टमार्टम में हुआ खुलासा: अगर किसी भी जानवर या मवेशी को प्रतिबंधित डाइक्लोफिनेक या अन्य मेडिसिन का इंजेक्शन लगता है, तो उसका प्रभाव खत्म होने में 72 घंटे का समय लग जाता है. यदि कोई जानवर इस समय सीमा के अंदर मर जाए और गिद्ध उसे खा लें तो जानवर को लगी दवाई के प्रभाव से गिद्ध की किडनी फेलियर से मौत हो जाती है. इस स्टडी का पता लगने पर डॉ. विभु प्रकाश और उनकी टीम द्वारा मृत मिल रहे गिद्धों का पोस्टमार्टम किया गया. गिद्धों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी उनकी मौत का कारण किडनी फेल होना पाया गया.
वेटरनरी इस्तेमाल के लिए प्रतिबंधित दवाएं:
- डाइक्लोफिनेक (2008 से प्रतिबंधित)
- कीटोप्रोफेन और इसके फॉर्मूलेशन (2023 से प्रतिबंधित)
- एसीक्लोफेनाक और इसके फार्मूलेशन (2023 से प्रतिबंधित)
- निमेसूलाइड (2024 से प्रतिबंधित)
पंचकूला में देश का सबसे पुराना गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र: पंचकूला के पिंजौर गांव स्थित जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र एशिया का सबसे बड़ा और पुराना केंद्र है. इस केंद्र की स्थापना साल 2001 में हुई. यहां प्रजनन की शुरुआत साल 2004 से हुई. स्टडी के बाद वेटरनरी इस्तेमाल के लिए डाइक्लोफिनेक साल 2008 में प्रतिबंधित हुई, लेकिन इसके बाद भी प्राइवेट प्रैक्टिशनर जानवरों को इस दवा का इंजेक्शन लगाते रहे, जिससे हजारों की संख्या में गिद्धों की मौत हुई. लेकिन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के प्रयासों से कारण तलाशने में मदद मिली. उसी समय से पिंजौर का यह जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र संचालित है.
गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र में खास व्यवस्था: पिंजौर के जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र के इंचार्ज हेमंत बाजपेयी ने बताया कि गिद्ध संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र में ब्रीडिंग एवियरी, होल्ड एवियरी, नर्सरी, रिलीज एवियरी समेत अन्य एवियरी मौजूद है, जहां गिद्धों को रखा जाता है. जिन गिद्धों को प्रजनन और अन्य कारणों से यहां रखा गया है, उन्हें 24 घंटे मॉनिटर किया जाता है. सीसीटीवी से उन पर निगरानी रखी जाती है. हर जटायु के पांव में एक रिंग और छाती में माइक्रोचिप डाली गई है. इससे उनके जीवित रहने तक उनका पूरा रिकॉर्ड सहेजा जाता है. इसकी मदद से बीएनएचएस के एक्सपर्ट्स और डॉक्टर यह जानकारी रखते हैं कि वे गिद्ध किस वर्ष अंडे से बाहर निकले और उनकी पैरेंटल हिस्ट्री क्या है?
ऐसे चलता है गिद्धों के खानपान का सर्किल: पिंजौर के जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र के कर्मचारी ललित शर्मा ने बताया कि किसी भी मृत जीव जंतु को सबसे पहले उनकी सख्त मीट को खाने के लिए किंग और सिनेरियस प्रजाति के गिद्ध आते हैं. इसके बाद जिप्स वल्चर जिनमें, हिमालय ग्रिफन, यूरेशियन ग्रिफन, लॉन्ग बिल्ड सिलेंडर बिल्ड और व्हाइट बैक्ड मृत जानवर के अंदरूनी अंग को खाते हैं. इसके बाद अंतिम में एजिप्श वल्चर हड्डियों से चिपके बचे हुए मांस को खाते हैं. इस प्रकार इन गिद्धों का पूरा सर्कल चलता है. जब कभी शुरुआत में किंग और सिनेरियस गिद्ध पहले मीट खाने नहीं आते तो कुछ समय इंतजार के बाद जिप्स प्रजाति के गिद्ध जानवर, जीव जंतु के शरीर के प्राकृतिक सुराग से उसके अंदरूनी ऑर्गन खाना शुरू कर देते हैं.
केंद्र में गिद्धों को दिया जाता है बकरी का मीट: पिंजौर के जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र के इंचार्ज ने बताया कि केंद्र में मौजूद गिद्धों को सप्ताह में दो बार बकरी का मीट खिलाया जाता है. बकरी की आंत और ऊपरी त्वचा को निकाल कर गिद्धों की ओवियरी में डाला जाता है, जिसके बाद सभी गिद्ध उस मांस को खा लेते हैं. एक गिद्ध एक सप्ताह में चार किलोग्राम फीड खाता है. गिद्धों की संख्या के अनुसार उनकी ओवियरी में मीट डाला जाता है. बकरी का मीट खिलाने का कारण उनसे होने वाली बीमारी का खतरा कम होना है. इसके अलावा जिस किस बकरी के मृत शरीर को गिद्धों के सामने डाला जाना होता है, उस बकरी को भी एक सप्ताह से 10 दिन तक स्लॉटर हाउस में निगरानी में रखा जाता है, ताकि यदि उसे किसी प्रकार का प्रतिबंधित इंजेक्शन या दवाई दी गई हो तो उसका प्रभाव खत्म हो जाए.
4 महीने बाद अंडे से बाहर आता है गिद्ध का चूजा: मादा गिद्ध एक साल में एक अंडा देती है और उसे 4 महीने तक नर गिद्ध के साथ मिलकर उसे सेकती है. चार महीने के बाद चूजा अंडे से बाहर निकलता है और फिर कुछ समय के बाद उड़ने के योग्य हो जाता है. तीन वर्ष की आयु के बाद मादा गिद्ध अंडा देती है, लेकिन वह अंडा इन्फर्टाइल होता है, यानी उससे चूजा नहीं निकलता. मादा गिद्ध पांच वर्ष की आयु के बाद जो अंडा देती है, वही अंडा फर्टाइल होता है, जिससे चूजा बाहर आता है.
अक्टूबर से अप्रैल तक ब्रीडिंग का समय: गिद्धों की ब्रीडिंग का सबसे उपयुक्त समय अक्टूबर महीने से लेकर अप्रैल महीने तक का होता है. इस समय अवधि के दौरान गिद्ध पेयर बनाते हैं और फिर ब्रीडिंग करते हैं. पेयर बनाने के लिए नर गिद्ध मादा गिद्ध को कोई हड्डी का टुकड़ा या टहनी देता है. यदि मादा गिद्ध को नर गिद्ध का प्रस्ताव स्वीकार करना होता है तो वह उस टहनी या हड्डी के टुकड़े को ले लेती है. इसके बाद दोनों गिद्ध अंतिम सांस या ब्रीडिंग करने में सक्षम रहने तक आजीवन पेयर बनाकर एक साथ रहते हैं.
हर नस्ल के 200 गिद्ध प्रजनन का लक्ष्य: पिंजौर स्थित जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र के इंचार्ज हेमंत बाजपेयी ने बताया कि हमारा लक्ष्य हर नस्ल के 200 गिद्धों को छोड़ना है, जिसमें अभी समय लगेगा. गिद्धों के संरक्षण और प्रजनन का काम काफी धीमा और सावधानी वाला रहता है, जिसके चलते इसमें समय लगता है. साल 2008-2009 से शुरू हुई ब्रीडिंग के बाद 15 वर्ष में अब तक 84 गिद्धों को छोड़ा गया है. साल 2020 में सबसे पहले गिद्धों को छोड़ा गया था. वेस्ट बंगाल के राजाबाद खावा से 31 गिद्ध छोड़े गए. फिर महाराष्ट्र से 20 गिद्ध छोड़े गए. आगामी समय में भी सीजेडआर की स्वीकृति मिलने के बाद पिंजौर स्थित जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र से गिद्धों को महाराष्ट्र में छोड़ने के लिए ट्रांसपोर्ट किया जाएगा.
गिद्धों को पानी में भीगना पसंद: हर प्रजाति के गिद्धों को पानी में भीगना काफी पसंद होता है. पानी में भीगने के बाद वह अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए झाड़ते हैं और फिर अपनी गर्दन और पीठ के ऊपरी हिस्से पर मौजूद ऑयल ग्लैंड में चोंच मारकर उससे निकलने वाले तेल को अपने पंखों पर लगाकर उन्हें चमकाते हैं. सभी चिड़ियां भी ऐसा ही करती हैं.
पिंजौर के केंद्र में 385 हुई गिद्धों की संख्या: जटायु कंजर्वेशन ब्रीडिंग केंद्र में मौजूदा समय में कुल गिद्धों की संख्या करीब 385 है. दिसंबर 2024 में हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी द्वारा इस केंद्र से प्रजनन के बाद 25 गिद्धों को छोड़ दिया गया था. उस समय केंद्र में गिद्धों की संख्या 380 थी, लेकिन उससे पहले से लेकर अब तक और 30 गिद्धों का प्रजनन होने से यह संख्या 385 हो गई है.
यहां है बीएनएचएस के केंद्र: बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के जटायु संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र हरियाणा के जिला पंचकूला के पिंजौर के अलावा असम के गुवाहाटी जिला के रानी, मध्य प्रदेश के भोपाल, पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के राजाबाद खावा में है. लेकिन हरियाणा के पंचकूला का केंद्र एशिया का सबसे बड़ा और पुराना केंद्र है. बीएनएचएस इन सभी केंद्रों को राज्य सरकार के सहयोग से संचालित किया जा रहा है. इन केंद्रों में तकनीकी कामकाज बीएनएचएस के एक्सपर्ट्स और डॉक्टर करते हैं, जबकि फंडिंग केंद्र सरकार से राज्य सरकारों के जरिए होती है. इसके अलावा तेलंगाना, उड़ीसा और गुजरात में चिड़ियाघर संचालित हैं, जहां कंजर्वेशन ब्रीडिंग कराई जाती है. यह सभी चिड़ियाघर सीजेडए के अधीन मॉनिटर किए जाते हैं, लेकिन पंचकूला के पिंजौर स्थित संरक्षण एवं प्रजनन केंद्र इन सभी केंद्रों के बीच कोऑर्डिनेटर की भूमिका निभा रहा है.