नई दिल्लीः ''राजधानी दिल्ली में सत्ता बदली, सरकार बदली, लेकिन हालात नहीं बदले. जो वादे किए गए वो आज भी अधूरे हैं. हम आज भी शून्य की स्थिति पर संघर्ष की स्थिति में हैं, जिस हालत में हम पिछली सरकार के वक्त थे.'' यह कहना है डीटीसी कर्मचारी एकता यूनियन के अध्यक्ष ललित चौधरी का, जिन्होंने ईटीवी भारत से बातचीत में डीटीसी की कार्यप्रणाली, कर्मचारियों की दशा, निजीकरण व राजनीतिक रवैए पर खुलकर अपनी बातें रखी.
ललित चौधरी ने कहा कि पिछली आम आदमी पार्टी की सरकार ने कर्मचारियों के एक आंदोलन के बाद हमें आश्वासन दिया था कि कर्मचारियों की वेतन विसंगति दूर की जाएगी. एक नया वेतनमान भी घोषित किया गया था, जो आज भी गूगल पर उपलब्ध है, लेकिन कर्मचारियों के खातों में आज तक वह पैसा नहीं आया. क्या यह वादा सिर्फ दिखावा था? क्या यह सिर्फ प्रेस कॉन्फ्रेंस की बात थी? हालांकि, अब आम आदमी पार्टी की सरकार नहीं भाजपा की सरकार है.
डीटीसी कर्मचारी एकता यूनियन के अध्यक्ष का आरोप है कि डीटीसी जैसे 365 दिन 24 घंटे चलने वाले सार्वजनिक विभाग में ‘कॉन्ट्रैक्ट’ शब्द ही यहां के नियम के खिलाफ है. डीटीसी जैसे महत्वपूर्ण विभाग में स्थायी नियुक्ति की जानी चाहिए, लेकिन पिछले 15-20 सालों से ड्राइवर व कंडक्टर संविदा पर काम कर रहे हैं. क्या यही न्याय है ? क्या 20 साल तक सेवा देने के बाद भी एक कर्मचारी सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट का मोहताज रहेगा?
ललित चौधरी ने कहा; ''हमारा डीटीसी एक स्वतंत्र बोर्ड है. ये अपने नियम-कानून खुद बना सकता है. लेकिन अधिकारी सरकार के निर्देश पर चल रहे हैं. क्या विभाग का परिचालन करने का काम सचिवालय का है या पेशेवर अधिकारियों का.'' उन्होंने कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि उमा देवी केस में स्पष्ट कहा गया है कि अगर कोई कर्मचारी 240 दिन काम कर ले तो उसे स्थायी किया जाए, लेकिन यहां तो 15 साल हो गए. अभी तक कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई. क्या कोर्ट के आदेश सिर्फ किताबों में हैं?

निजीकरण की ओर डीटीसीः ललित चौधरी ने सबसे बड़ा आरोप लगाया कि डीटीसी को योजनाबद्ध तरीके से प्राइवेट किया जा रहा है. गाजीपुर डिपो में जिन बसों को डीटीसी का बताया जा रहा है, वे असल में प्राइवेट कंपनियों की है. उन बसों पर सिर्फ डीटीसी का नाम छपा हुआ है. स्टाफ, बसें, संचालन सब कुछ प्राइवेट कंपनी का है. डीटीसी खुद की बसें नहीं ला रहा है. ऐसे में धीरे-धीरे डीटीसी का निजीकरण होता जा रहा है. डीटीसी के कर्मचारियों पर रोजगार का संकट गहरा रहा है. विशेषकर डीटीसी में काम कर रहे 30 हजार से अधिक संविदा कर्मियों के लिए रोजगार का खतरा है.
ललित चौधरी ने ये भी आरोप लगाया कि अब डीटीसी रोजगार कार्यालय की तरह काम कर रहा है. हमारे कांट्रैक्ट ड्राइवरों को जल बोर्ड भेजा गया है, जहां पर वह पानी के टैंकर चलाते हैं. अब कंडक्टरों को अस्पतालों में भेजे जाने की चर्चा है, क्योंकि कंडक्टरों को फस्ट एड देना आता है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या डीटीसी अब थर्ड पार्टी प्लेसमेंट एजेंसी बन चुका है?

प्राइवेट बसों से हो रहे हादसे की बताई वजहः ललित चौधरी ने बताया कि हाल ही में शादीपुर डिपो के सामने एक भीषण बस दुर्घटना हुई, जिसमें यात्री बस के नीचे आ गए. कंडक्टर का हाथ टूट गया, सर फट गया, लेकिन कोई देखने वाला नहीं है. जो नई इलेक्ट्रिक बसें आ रही हैं उन्हें चलाने के लिए निजी कंपनियां खुद ही चालक रख रही है. जिन चालकों के पास कोई अनुभव नहीं है. आटो व ट्रैक्टर चलाने वाले चालक जब दिल्ली जैसी व्यस्त सड़कों पर बस लेकर निकलेंगे तो हादसे होना स्वाभाविक है. जबकि डीटीसी के चालकों के पास अच्छा अनुभव है. बसों को डीटीसी में शामिल कर इन्हीं चालकों से चलवाना चाहिए.
उम्मीद लगाए बैठे हैं एमडी से: ललित चौधरी ने बताया कि हाल ही में नियुक्त एमडी प्रिंस धवन काफी सक्रिय दिख रहे हैं. वह कर्मचारियों से फील्ड में जाकर भी मिल रहे हैं. ऐसे में यूनियन को उनसे राहत की उम्मीद है. सोमवार को डीटीसी कर्मचारी एकता यूनियन का प्रतिनिधि मंडल एमडी से मिलने के लिए आईपी डिपो पहुंचा, लेकिन एमडी कहीं विजिट पर चले गए थे. ऐसे में मुलाकात नहीं हो सकी. ललित का कहना है कि वह प्रतिनिधिमंडल के साथ मिलकर कर्मचारियों के हितों के मुद्दों को एमडी से समक्ष रखेंगे, जिससे कर्मचारियों के हितों पर काम हो सके.

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से हताशाः ललित चौधरी ने कहा कि जिनके माता या पिता डीटीसी में सेवा करते हुए दिवंगत हो गए, उनके बच्चों को अगर नौकरी मिली भी, तो कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी मिली है, जबकि अन्य विभागों में स्थाई नौकरी मिलती है. इस संबध में दिल्ली के परिवहन मंत्री पंकज सिंह से हमने बात की तो उन्होंने कहा ‘आपको नौकरी मिल गई, उसी में संतुष्ट रहिए’ क्या यह जवाब शोभा देता है?
इतना ही नहीं ललित चौधरी ने कहा कि जब डीटीसी के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर आप सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो बीजेपी का गुंडा बताया गया था. और अब अगर बीजेपी सरकार से सवाल कर रहे हैं, तो कहीं हमें ‘आप’ का गुंडा न कह दिया जाए. कर्मचारी आखिर कब तक राजनीति के मोहरे बने रहेंगे. हम सिर्फ नौकरी की गारंटी मांग रहे हैं. 15 साल की सेवा के बदले स्थायित्व व सम्मान चाहते हैं. सरकार और अधिकारी एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालते रहते हैं. हम अब भी इंतजार में हैं कि कोई हमारी आवाज सुने. नहीं तो हमें एक बार फिर सड़कों पर उतरना कर्मचारियों की मजबूरी होगी.
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