भोपाल: मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में झील के सिरहाने में अदब की महफिल सजाई गई. इसकी अध्यक्षता नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने किया. भोपाल की जिन छतों पर एक वक्त में गर्मी की ऐसी ही शामों में किस्सागोई की बैठकों का दौर हुआ करता था. इस महफिल के लिए भी किसी सभागृह के बजाए छत को चुना गया. छत हिंदुस्तान के मशहूर शायर मंजर भोपाली के आशियाने की थी. जहां देश के कई मशहूर शायर और कवि जमा हुए थे. इन शायरों ने अपनी निगाह से जिस दुनिया को देखा है उसे शायरी के जरिए बयां किया.
मैं कहां हूं ये गूगल को मालूम है
देश के मशहूर शायर मंजर भोपाली ने आज के दौर में हो रही घटनाओं को शायरी के जरिए बयां किया. उन्होंने अपनी शायरी में गुगल के बढ़ते प्रभाव और सीसीटीवी कैमरे का भी जिक्र आया.
मैं कहां हूं ये गूगल को मालूम है
उनसे करना बहाना कठिन हो गया
अब तो गजलें सुनाना कठिन हो गया
उनकी गलियों में अब कैमरे लग गए
उनके घर आना जाना कठिन हो गया
जेब खाली हुई हाय मंहगाई से
उनको शॉपिंग कराना कठिन हो गया
ऐसे रुठे हैं वो मानते है नहीं
मंजर उनको मनाना कठिन हो गया

वहीं, शायर अंजुम बाराबंकी ने सच्चाई के रास्ते से हट जाने पर जिंदगी में होने वाली मुश्किलों को बयां किया है.
जब से सच्चाई के रास्ते से हटे हैं हम लोग
मुश्किलें बढ़ गई गिनती में घटे हैं हम लोग
एक हो जाएं तो दुनिया में बहारें आ जाएं
कमनसीबी है कि खानों में बंटे हैं हम लोग
कि वो जिसके नाम पर में लज्जत बहुत है
उसी के जिक्र से बरकत बहुत है
कभी तो हुस्न का सदका निकालो
तुम्हारे पास ये दौलत बहुत है
अपना वजूद झूठ के सांचे में ढल गया.
शायर साजिद रिजवी ने हालिया दिनों की सियासत के साथ बदले समाज को अपनी शायरी का विषय बनाया.
इंसानियत का दौर जहां से निकला गया
अपना वजूद झूठ के सांचे में ढल गया
झुलसा बदन है देख के नफरत ना कीजिए
मैं दूसरों की आग बुझआने में जल गया
कल तक किसी गरीब के दर का था जो फकीर
वो आज रहनुमा है तो लहजा बदल गया
इंसान तू निजाम ए खुदाई तो याद रख
आया है आज तू तो समझ ले कल गया
लगभग 100 किताबें लिख चुके सैफी सिरौंजी ने बचपन के दिनों को याद करते हुए शायरी की.
कि लाया मजा हयात में पढ़ना किताब का
देखा अजीब हमने करिश्मा किताब का
बचपन मेरे करीब से ऐसे गुजर गया
जैसे कि बच्चा फाड़ दे पन्ना किताब का
बेवफाई के भी आदाब हुआ करते है
शायर अली अब्बास उम्मीद ने जीवन के संघर्ष को शायरी के माध्यम से पेश प्रस्तुत किया.
हम उसे बताएं क्या धूप का सफर होगा
जिसने सोच रखा है सर पे गुलमोहर होगा
शायर मेहताब आलम ने इश्क के आदाब बयानी को अपने शेरों के माध्यम से पेश की.
जैसे पलकों में तेरे ख्वाब हुआ करता था
जिंदगी में वही बेताब हुआ करते है
कल ही अनमोल ना थे चश्में वफा के मोती
ये गौहर आज भी नायाब हुआ करते थे
चेहरा पढ़ लेने से खुलता नहीं दिल का सब हाल
एक नॉवेल में कई बाब हुआ करते हैं
दिल भी तोड़ा तो सलीके से ना तोड़ा तूने
बेवफाई के भी आदाब हुआ करते है
तुम लकीरें खींच खींच कर कहते रहो.
वहीं, नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी इस अदबी महफिल की सदारत भी कर रहे थे. उन्होंने कार्यक्रम के आखिर में अपनी कविताओं को प्रस्तुत किया. इन कविताओं में दुनिया में खींची जा रही लकीरों से इतर संसार के साझे की बात थी. जिसमें धर्ती को मुल्कों में बाटनें की बात कही गई है.

मैं बुदबुदा हूं
भमर हूं लहर हूं
मैं सैलाब और सुनामी हूं
मैं ही पोखर हूं तालाब हूं
नदी हूं मैं ही बूंद और समन्दर हूं
लेकिन सच ये है कि मैं सिर्फ पानी हूं.
तुम लकीरें खींच खींच कर कहते रहो
मुझे भारत या पाकिस्तान
अफ्रीका अमरीका या इंगलिस्तान
लेकिन मैं सिर्फ धरती हूं
कब तक उलझे रहोगे तुम अलग अलग
नाम देकर
मेरे आकारों और मेरी रफ्तारों को
जो कभी स्थाई नहीं होते.
परंतु जो मरेगा नहीं कभी
वो सिर्फ में हूं
वही मैं तुम हो
और वही तुम मैं हूं.